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How will wandering corporate socialists deal with the Modi government and the Yogi government !
मैंने समाजवाद और प्रख्यात समाजवादियों के संघर्ष (Conflicts of eminent socialists) पर काफी अध्ययन किया है समझने का प्रयास किया है। मेरा मानना है कि सच्चे समाजवादी ही मोदी और योगी सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध कर सकते हैं। बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मेरा आकलन यह है आज के स्थापित समाजवादियों के बस की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ से निपटना नहीं है। इसका बड़ा कारण संघर्ष का अभाव और संगठन चलाने के रणकौशल में आई स्थिलता है।
बिल्ली के भाग से छींका टूटने की आस में बैठे हैं आज के समाजवादी
अगले साल चुनाव हैं पर न देश और न ही किसी प्रदेश में कोई बड़ा राजनीतिक आंदोलन चल रहा है, वह भी तब जब महंगाई आसमान छू रही है। नये किसान कानून और श्रम कानून में संशोधन बड़ा मुद्दा राजनीतिक दलों के पास है। विपक्ष की बड़ी कमी वंशवाद के बल पर स्थापित नेतृत्व भी है।
समाजवाद की परिभाषा ही बदल कर रख दी आज के समाजवादियों ने
चाहे इमरजेंसी के खिलाफ खड़ा हुआ जेपी आन्दोलन हो या फिर बोफोर्स मामले में खड़ा हुआ वीपी सिंह का आंदोलन या फिर मनमोहन सरकार के खिलाफ हुआ अन्ना आन्दोलन समाजवादियों ने बड़ी भूमिका निभाई है। कहना गलत न होगा कि आज के समाजवादियों ने समाजवाद की परिभाषा ही बदल कर रख दी है।
गैर बराबरी के विरोध को समाजवाद बताने वाले आज के समाजवादी खुद गैर बराबरी को बढ़ावा देते देखे जा रहे हैं। समाजवादियों के लिए क्रांतिकारी शब्द इस्तेमाल करने वाले समाजवादी अपने संगठनों में भी गुलामी की संस्कृति लादने में लगे हैं।
उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी विपक्ष की मुख्य पार्टी है पर पार्टी में संघर्ष नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। बंगलों और वातानुकूलित कमरों से विपक्ष की भूमिका निभाई जा रही है।
यह अपने आप में दिलचस्प है कि अगले साल विधानसभा चुनाव हैं और अभी तक प्रदेश कार्यकारिणी का गठन नहीं हुआ है। प्रकोष्ठों की स्थिति भी लुंजपुंज देखी जा रही है। पार्टी मासिक बैठकें औऱ छोटे मोटे कार्यक्रमों के साथ ही प्रशासन को ज्ञापन सौंपने तक सिमट कर रह गई है। पार्टी में पदाधिकारियों को ही बैठकों में जाने की अनुमति होने की बात सामने आ रही है। यानी कि जो कार्यकर्ता पार्टी का पदाधिकारी नहीं है, वह पार्टी के किसी कार्यक्रम में नहीं जा सकता है। क्या पार्टी में हर कार्यकर्ता पदाधिकारी है ? क्या पार्टी में ऐसी कोई व्यवस्था है कि पार्टी से जुड़े सभी कार्यकर्ता किसी एक कार्यक्रम में शामिल हो सकें ? जबकि सांगठानिक मजबूती ढांचे के लिए होना तो यह चाहिए कि पार्टी समर्थकों को भी किसी कार्यक्रम में बुलाने की व्यवस्था होनी चाहिए। यह भी कहा जा सकता है कि पार्टी में यह व्यवस्था गुटबाजी को बढ़ावा देने वाली है। मतलब खुद पार्टी कार्यकर्ताओं को गुटबाजी के लिए उकसा रही है।
यदि बिना पद वाले कार्यकर्ता किसी पार्टी के कार्यक्रम में नहीं बुलाये जाएंगे तो वे अपना कार्यक्रम अलग ही करेंगे। ऐसे में संगठन प्रभावित होना तय है। पार्टी में गुलामी का यह हाल है कोई नेता या फिर कार्यकर्ता पार्टी हाईकमान को यह बताने को तैयार नहीं कि उनके इस कदम से संगठन लगातार कमजोर हो रहा है।
समाजवादी पार्टी में देखा जा रहा है कि पार्टी की इस व्यवस्था में काफी पुराने नेता घर बैठने को मजबूर हैं। स्थिति यह है कि कारपोरेट संस्कृति का प्रतीक बॉस सपा संगठन में भी प्रमुखता से प्रचलित हो रहा है। यह हाल संघर्ष के नाम से जाने जाने वाली पार्टी समाजवादी पार्टी का है।
... और भी बुरा है जदयू का हाल
अपने को लोहियावादी बताने वाले नीतीश कुमार की पार्टी जदयू का हाल तो और भी बुरा है। गैर संघवाद का नारा देने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार न केवल संघियों के रहमोकरम पर अपनी सरकार चला रहे हैं बल्कि एक तुगलकी फरमान भी उन्होंने जारी कर दिया है।
नीतीश सरकार में आंदोलन करना भी अपराध हो गया है...
नीतीश कुमार का फरमान है कि यदि कोई धरना देते या फिर प्रदर्शन करते गिरफ्तार होता है तो उसे न कोई सरकारी नौकरी मिलेगी और न ही कोई सरकारी सुविधा। यह हाल आज की दूसरी समाजवादी पार्टियों का है। रालोद, इनेलो की दुर्दशा सबके सामने है।
राजद में तेजस्वी यादव अकेले भाजपा और जदयू से जूझ रहे हैं। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली तक ही सिमटी है। अरविंद केजरीवाल से अलग होकर प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और प्रो. आनंद कुमार ने जो स्वराज पार्टी इंडिया बनाई है, वह कोई खास वजूद नहीं बना पा रही है।
किसान आन्दोलन में विपक्ष में बैठी पार्टियाँ कोई खास छाप नहीं छोड़ पा रही हैं। कांग्रेस प्रियंका गांधी और राहुल गांधी तक सिमटी है। ये नेता वंशवाद के दम पर पार्टी हाईकमान बने हुए हैं।
दरअसल विपक्ष में स्थापित नेतृत्व में एक अजीब सी असुरक्षा की भावना है। देश मोदी सरकार का विरोध करते हुए जो सोशल एक्टिविस्ट गिरफ्तार किए जा रहे हैं, उनके पक्ष में भी ये दल खड़े नहीं हो पा रहे हैं। उधर मोदी सरकार ने न केवल लोकतंत्र की रक्षा के लिए बनाए गए तंत्रों को पूरी तरह से कब्जा रखा है बल्कि उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और मुस्लिम नेता असद्दुदीन ओवैसी को साध रखा है। ऐसे में कैसे समाजवाद स्थापित होगा। कैसे मोदी सरकार के साथ ही भाजपा शासित राज्यों की सरकारों से निपटा जाएगा। यह समझ से परे है।
चरण सिंह राजपूत
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