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हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान के नारे से हिंदी अब किसकी भाषा है? अपने गिरेबान में झाँककर देखें

हिंदी में कोलकाता, महाराष्ट्र, केरल, हैदराबाद जैसे गढ़ों में हिंदी में जीवन भर काम करने वाले लोगों को कोई पहचान नहीं मिलती। हिंदीभाषियों को भी नहीं। इसीलिए हिंदी पूंजी के खिलौने और हथियार में तब्दील है।  हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान के नारे के बाद हिंदी अब किसकी भाषा है? 60 के दशक में हिंदी के चर्चित …

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हिंदी में कोलकाता, महाराष्ट्र, केरल, हैदराबाद जैसे गढ़ों में हिंदी में जीवन भर काम करने वाले लोगों को कोई पहचान नहीं मिलती। हिंदीभाषियों को भी नहीं। इसीलिए हिंदी पूंजी के खिलौने और हथियार में तब्दील है।

 हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान के नारे के बाद हिंदी अब किसकी भाषा है?

60 के दशक में हिंदी के चर्चित कवि और करीब 5 दशक तक कोलकाता में हिंदी समाज के प्रतिनिधि श्री हर्ष जी अब बीकानेर में रहते हैं।

कोलकाता में श्री हर्ष, छेदीलाल गुप्त, शलभ श्री राम सिंह, मनमोहन ठाकौर, प्रतिभा अग्रवाल, अपर्णा टैगोर, श्यामनन्द जालान, प्रभा खेतान, नवल, विमल वर्मा, ध्रुवदेव मिश्र पाषाण, मार्कण्डेय सिंह, अवध नारायण, गीतेश शर्मा, सीताराम सेक्सरिया, अशोक सेक्सरिया, उषा गांगुली जैसे लोगों का हिंदी साहित्य में भारी योगदान रहा है।

कोलकाता में उदन्त मार्तंड हिंदी की पहली पत्रिका निकली। राजा राममोहन राय और क्षितिन्द्र मोहन, केशव चन्द्र सेन, सुनीति कुमार चट्टोपाध्यायअमृतलाल, महाश्वेता देवी और नबारून भट्टाचार्य जैसे हिंदी के पक्षधर लोग थे। शनिचर जैसी पत्रिका निकली।

राजकमल चौधरी, राजेन्द्र यादव जैसे लोग रहे। हिंदी का गढ़ रहा कोलकाता।

इसी तरह नागपुर, हैदराबाद, मुंबई जैसे हिंदी के गढ़ रहे। देश के हर जनपद में हिंदी साहित्य रचा जाता रहा।

अब तो भोपाल, जबलपुर, पटना, आरा, इलाहाबाद और वाराणसी का कौड़ियों का मोल नहीं है।

आज़ाद भारत में राष्ट्रभाषा बनने के दावे के बावजूद हिंदी के राजधानी दिल्ली में सत्ता के साथ नत्थी होकर सिमट जाने का जिम्मेदार कौन? अपने-अपने गिरेबान में झाँककर देखें। हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान के नारे से हिंदी अब किसकी भाषा है?

सामयिक परिदृश्य बहुत महत्वपूर्ण पत्रिका है। विमल जी और श्रीहर्ष जी चुपचाप अपना काम करते रहे हैं। वे तिकड़मबाज नहीं हैं।

जिन लोगों की हमने चर्चा की है, उनमें हमने शांतिनिकेतन के लोगों के नाम जोड़े नहीं और न दुर्गापुर आसनसोल के और न उत्तर बंगाल के।

बंगाल में बांग्ला की समृद्ध विरासत होने के बावजूद बांग्लाभाषी प्रतिबद्ध लोग भारत को जोड़ने के लिए हिंदी को अपनाने में हिचके नहीं और न बांग्ला समाज में इसे अन्यथा लिया गया। मलयाली समाज में भी यही स्थिति रही। मराठी में भी। हमने ये तीन उदाहरण ही गिनाए।

अंग्रेजी में लिखने पढ़ने वाले दुनिया के हर हिस्से के लोग हैं, जिनके योगदान को स्वीकारा जाता है।

दूसरी ओर, हिंदी में कोलकाता, महाराष्ट्र, केरल,  हैदराबाद जैसे गढ़ों में हिंदी में जीवन भर काम करने वाले लोगों को कोई पहचान नहीं मिलती। हिंदीभाषियों को भी नहीं।

जिन लोगों का हमने जिक्र किया है, उन सभी का और श्रीहर्षजी और विमल वर्मा जी का भी जीवन भर का योगदान रहा है हिंदी भाषा और समाज के लिए।

हिंदी को राजनीति, कमाई और विदेशयात्रा का, हैसियत और कुर्सी का डाधन मानने वालों की छोड़ दीजिए, हिंदी के पाठक, लेखक आलोचक उन्हें कितना जानते हैं?

इसीलिए हिंदी पूंजी के खिलौने और हथियार में तब्दील है। भाषा को जनता के खिलाफ इस्तेमाल करने में इसीलिए निरंकुश सत्ता कामयाब है।

क्योंकि प्रतिरोध की ताकतों से हमने खुद को अलग कर लिया है अपनी मुलायम चमड़ी बचाने के लिए। अफसोस।

पलाश विश्वास

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