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प्रो. योगेश त्यागी ने DU में कुलपति पद और कार्यालय की गरिमा को बहाल किया

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hastakshep
05 Oct 2021

प्रो. त्यागी को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में कुलपति के पद और कार्यालय की गरिमा को फिर से बहाल करने का काम किया। यह उनकी महत्वपूर्ण देन है।

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प्रोफेसर योगेश त्यागी के लिए विदाई नोट | Farewell note for Professor Yogesh Tyagi

प्रेम सिंह

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दिल्ली विश्वविद्यालय में छह महीने के इंतजार के बाद नए कुलपति की नियुक्ति हो गई है। प्रो. योगेश सिंह कुलपति कार्यालय से अगले पांच साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय का संचालन करेंगे। उनके पहले के कुलपति प्रो. योगेश त्यागी (Pro. Yogesh Tyagi) अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में गंभीर बीमारी के साथ भाजपा के शिक्षक मोर्चा एनडीटीएफ (BJP Teachers Morcha NDTF) के अंदरूनी सत्ता-संघर्ष का शिकार हो गए थे।

सत्ता-संघर्ष के चलते पैदा हुए उस विवाद, जिसमें मानव संसाधन मंत्रालय भी भूमिका निभा रहा था, ने काफी तूल पकड़ लिया था। विवाद का प्रेस/मीडिया में काफी प्रचार भी हुआ था। मानव संसाधन मंत्रालय ने प्रो. त्यागी पर बतौर कुलपति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करने के आरोप लगाए।

मंत्रालय की सिफारिश पर विजिटर ने उन्हें 28 अक्तूबर 2020 को निलंबित करके आरोपों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया था। आरोपों और जांच का क्या हुआ, इसकी जानकारी अभी तक सामने नहीं आई है। निलंबित रहते ही प्रो. त्यागी ने पांच साल का निर्धारित कार्यकाल पूरा होने पर 9 मार्च 2021 को विजिटर को पत्र लिख कर अपने को कार्य-मुक्त कर लिया। उनके लिए कोई औपचारिक-अनौपचारिक विदाई समारोह नहीं हुआ। किसी शिक्षक, शिक्षाविद अथवा विश्वविद्यालय/मंत्रालय अधिकारी ने उनके लिए किसी अखबार या पत्रिका में विदाई नोट भी नहीं लिखा।

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 विवाद के समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि वह पूरा प्रकरण प्रो. त्यागी को बची हुई समयावधि के लिए कुलपति ऑफिस से बाहर करने के लिए था।

आरएसएस की पसंद नहीं थे कुलपति प्रो. योगेश त्यागी

दरअसल, प्रो. त्यागी की 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में नियुक्ति के समय यह चर्चा थी कि वे इस पद के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की पसंद नहीं हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक भाजपा नेता के दबाव में उनका चयन किया गया था। सरकार को यह करना पड़ा, क्योंकि भाजपा को पहली बार पश्चिम उत्तर प्रदेश में भारी चुनावी जीत हासिल हुई थी।

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आरएसएस के विचारक प्रो. त्यागी के पहले के कुलपति प्रो. दिनेश सिंह और उनके जोड़ीदार साउथ कैंपस के निदेशक प्रो. उमेश राय के कार्यकाल में ही दिल्ली विश्वविद्यालय में अपनी सक्रियता बढ़ा चुके थे। आरएसएस ने इस जोड़ी के माध्ययम से विभागों-कालेजों में काफी नियुक्तियां भी करा ली थीं।

आरएसएस को लग रहा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय के भगवाकरण का सही समय आ गया है। इसीलिए वह दिल्ली विश्वविद्यालय में भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की तरह अपना कुलपति लाना चाहता था। 

प्रो. त्यागी आरएसएस से बाहर नहीं थे। लेकिन वे सीधे आरएसएस के आदेश के तहत नहीं, मानव संसाधन मंत्रालय के शिक्षा विभाग और यूजीसी के तहत काम करने के पक्षधर थे। उन्होंने अपनी टीम, जो कभी पूरी बनाई ही नहीं गई, और जिसके चलते विश्वविद्यालय का प्रशासनिक कार्य काफी हद तक अवरुद्ध हो गया, एनडीटीएफ के धड़ों द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों को लेकर नहीं बनाई।

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यह बात भी सामने आई कि वे डूटा के सभी शिक्षक मोर्चों को साथ लेकर चलना चाहते हैं। उन पर यह आरोप भी लगा कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के शिक्षक मोर्चा डीटीएफ के साथ उनकी सहानुभूति है। यह सब देख कर आरएसएस को दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने अभियान/अजेंडा को लेकर बाधा का अनुभव हुआ।

चर्चा थी कि वह बाधा दूर करने के लिए सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय कानून के विद्वान प्रो. त्यागी को कुलपति का पद छोड़ कर संयुक्त राष्ट्र में बड़ा पद लेने की पेशकश की है। लेकिन प्रो. त्यागी ने उसे स्वीकार नहीं किया। वे आरएसएस के कार्यक्रमों में भी जाते रहे और शिक्षा व्यवस्था को लेकर सरकार/यूजीसी की नीतियों को भी दिल्ली विश्वविद्यालय में लागू करते रहे। करीब साढ़े चार हजार तदर्थ शिक्षकों की लटकाए रखने से लेकर शिक्षण में ठेका-प्रथा लागू करने का नियम बनाने तक उन्होंने सरकार/यूजीसी की नीतियों का पालन किया। उनके कार्यकाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में अतिथि अध्यापक नियुक्त करने की जो प्रक्रिया लागू की गई, दरअसल वह शिक्षण में ठेका-प्रथा (कान्ट्रैक्ट टीचिंग) की ही रिहर्सल है। स्थायी शिक्षकों की प्रोन्नति नहीं होने, और सेवा-निवृत्त शिक्षकों की पेंशन आदि के मामलों में देरी होने की चिंता अगर कुलपति को नहीं थी, तो सरकार को भी नहीं थी।   

 प्रो. त्यागी को कुलपति कार्यालय से बाहर क्यों किया गया?

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नई शिक्षा नीति (new education policy -नेप) ऐसा कारक था जिसके चलते प्रो. त्यागी को कुलपति कार्यालय से बाहर करना सरकार के लिए जरूरी हो गया। उनकी गंभीर बीमारी और ऑपरेशन ने सरकार को वह मौका उपलब्ध कराया। प्रो. त्यागी के साथ साढ़े चार साल के बर्ताव के बाद सरकार को शायद यह लगा हो कि वे पूरी आज्ञाकारिता के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय को नई शिक्षा नीति की पहली प्रयोगशाला बनाने के लिए तैयार न हों। सरकार यह काम तत्काल करना चाहती थी। अगर प्रो. त्यागी तैयार भी होते तो बीमारी की अवस्था में उस दिशा में वैसी तत्परता से काम नहीं कर सकते थे, जैसी उनके हटने पर देखने को मिली। दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न संकायों के विभागों और कालेजों में जो प्रोफेसर और सीनियर प्रोफेसर बनाने का प्रहसन चल रहा है, उसे नई शिक्षा नीति की ‘गुणवत्ता’ से ही जोड़ कर देखा जाना चाहिए। प्रो. त्यागी शायद इस प्रहसन के हिस्सेदार बनने को तैयार नहीं होते।

मेरी प्रो. त्यागी से कभी मुलाकात नहीं हुई है। उनकी नियुक्ति के समय में अध्यापन के लिए विदेश में था। वहां से लौटने के बाद भी मेरा कभी उनसे वास्ता नहीं पड़ा। मेरा मानना है कि प्रो. त्यागी के कार्यकाल में शिक्षकों, कर्मचारियों और विद्यार्थियों के जरूरी कामों में देरी हुई, या काम नहीं हुए। प्रशासनिक कार्यों में ठेका-प्रथा और शिक्षण में तदर्थवाद उनके कार्यकाल में भी बरकरार रहे।

दिल्ली विश्वविद्यालय, जिसके अंतर्गत करीब 100 कॉलेज/संस्थान आते हैं, का लोगो हाथी है। इस वृहदाकार विश्वविद्यालय के प्रभावी संचालन के लिए कुलपति और उनकी टीम के लगातार काम करने की जरूरत होती है, ताकि अन्य सहभागी – प्राचार्य, शिक्षक, प्रशासनिक कर्मचारी, छात्र आदि – अपनी भूमिका में सक्रिय बने रह सकें। लेकिन प्रो. त्यागी ने कभी अपनी पूरी टीम ही नहीं बनाई।

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प्रो. योगेश त्यागी का दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए महत्वपूर्ण योगदान क्या है ?

इस सब के बावजूद प्रो. त्यागी का दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है। उसे समझने के लिए उनके पहले के दो कुलपतियों के कार्यकाल पर एक नजर डालनी होगी।

प्रो. दीपक पेंटल के कार्यकाल (2005-2010) में कुख्यात कोबाल्ट कांड हुआ, जिसमें दो लोग मारे गए थे। वह महज दुर्घटना नहीं, एक आपराधिक कृत्य था। उस समय कुलपति और उस कांड में संलिप्त अन्य लोगों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कर गिरफ्तार करने की मांग उठी थी। डूटा ने इस मांग को लेकर दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर एक बड़ा प्रदर्शन किया था। लेकिन कांग्रेस और सरकार में ऊंची पहुंच का फायदा कुलपति को मिला और इतना संगीन मामला रफा-दफा हो गया।

प्रो. पेंटल अपने कार्यकाल में साहित्यिक-चोरी (प्लेगरिज्म) के आरोपों से घिरे रहे। बाद में मामला अदालत पहुंचा और अदालती फैसले के तहत उन्हें एक रात तिहाड़ जेल में बितानी पड़ी।

प्रो. पेंटल को विश्वविद्यालय के नियम-कायदों को तोड़ने, यूजीसी जैसी संस्थाओं से आने वाले अनुदेशों-आदेशों को दबा देने में हिचक नहीं होती थी।

प्रो. पेंटल के बाद कुलपति बने प्रो. दिनेश सिंह का कार्यकाल (2010-2015) अनेक विवादों/आरोपों के लिए जाना जाता है। वे निरंकुश रवैये के लिए भी जाने जाते थे। प्रो. दिनेश सिंह भी अपने को कांग्रेस घराने का पुराना और घनिष्ट सदस्य बताते थे। आते ही उन्होंने कुलपति कार्यालय को ‘जाति पंचायत’ का अड्डा बना दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि कालेजों में होने वाली प्रत्येक नियुक्ति में कुलपति कार्यालय और दक्षिण परिसर निदेशक कार्यालय का सीधा हस्तक्षेप होने लगा।

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के प्रति प्रो. दिनेश सिंह का व्यवहार दुर्भावना और अहंकार से भरा था। वे डूटा प्रतिनिधियों से मुलाकात नहीं करते थे। डूटा की सभाओं के लिए हाल उपलब्ध न कराने के लिए कॉलेज प्राचार्यों पर दबाव बनाते थे। डूटा धरना-प्रदर्शन के लिए अपना टेंट लगाना चाहे तो उनके ‘बाउन्सर’ शिक्षक प्रतिनिधियों के साथ खुलेआम दुर्व्यवहार करते थे। विश्वविद्यालय के विभाग में नियुक्त शिक्षक डूटा के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करते, या विद्वत परिषद (एसी) अथवा कार्यकारी परिषद (ईसी) की बैठकों में चुने हुए शिक्षक प्रतिनिधियों के पक्ष का समर्थन करते तो ‘दिनेश-उमेश’ उन्हें सीधे धमकाने का काम करते थे।

प्रो. दिनेश सिंह इस कदर आत्म-व्यामोहित और प्रदर्शन-प्रिय थे कि उनके कार्यकाल के दौरान विश्वविद्यालय मैदान में आयोजित ‘अंतरध्वनी’ प्रदर्शनी में वे हाथी पर बैठ कर पहुंचे थे। (मैंने वह नजारा अपनी आंखों से नहीं देखा। केवल फ़ोटो देखे हैं। मेरा मन आज तक यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि कोई कुलपति हाथी पर बैठ कर कार्यक्रम में पहुंच सकता है!) डूटा ने प्रो. दिनेश सिंह के कार्यकाल की वित्तीय और प्रशासनिक गड़बड़ियों पर एक श्वेतपत्र तैयार करके विज़िटर को भेजा था। विज़िटर ने उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया था। तब तक केंद्र में सत्ता बदल चुकी थी। अपने खिलाफ कार्रवाई से बचने के लिए वे सीधे मोहन भागवत की शरण में पहुंच गए। यह सभी जानते हैं कि शरण पाने की कीमत चुकानी होती है।  

प्रो. त्यागी के पहले के दो कुलपतियों के बारे में उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण मैंने अनिच्छा से दिया है। ये तथ्य विश्वविद्यालय के सभी शिक्षक जानते हैं, और नेट पर भी उपलब्ध हैं।

इस विवरण से दो बातें स्पष्ट होती हैं : एक, दोनों व्यक्तियों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के पद और कार्यालय की गरिमा को गिराया। दो, कुलपति के पद और कार्यालय की गरिमा गिराने वाले व्यक्ति केवल भाजपा-राज में नहीं होते हैं। प्रो. त्यागी को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में कुलपति के पद और कार्यालय की गरिमा को फिर से बहाल करने का काम किया। यह उनकी महत्वपूर्ण देन है। नए कुलपति प्रो. योगेश सिंह को प्रो. त्यागी की बदौलत एक गरिमापूर्ण कुलपति कार्यालय मिला है। लिहाजा, यह विदाई-नोट।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक रहे हैं) 

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