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जम्मू-कश्मीर : 370 को हटाने के बाद लोकतांत्रिक अधिकारों का गला घोंट दिया गया है, कश्मीर की तबाही का असर जम्मू में
इस साल 5 अगस्त को भारतीय संसद ने असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक तरीके से जम्मू-कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा खत्म (Special status of Jammu and Kashmir state ended) कर दिया. और देश भर में झूठा प्रचार शुरू कर दिया गया. वैसे, यह झूठ कुछ कथनी और कुछ करनी के रूप में पहले से ही सामने आने लग गया था. तब सुरक्षा बल बढ़ाए जा रहे थे. कई महीनों का राशन जमा करने की अफवाहें चल रही थीं. सुगबुगाहट होने लगी थी कि कुछ होने वाला है और सरकार ने अमरनाथ यात्रियों और रियासत से बाहर के लोगों को सलाह दी थी कि वे कश्मीर के इलाके से फौरन निकल जाएं.
All communication facilities in the entire state of Jammu and Kashmir were closed at midnight.
इससे पहले आधी रात को ही समूची जम्मू-कश्मीर रियासत में तमाम संचार सुविधाएं बंद कर दी गईं. हर जगह दफा 144 लगाकर कर्फ्यू जैसे हालात बना दिए गए. सारी जनता के होंठ सी दिए गए. इंटरनेट, बसें-ट्रक-टैक्सियां बंद कर दी गईं. मीडिया पर पूर्ण पाबंदी लगा दी गई. अफसरशाही और तानाशाही का दौर शुरू हो गया. हर भिन्न विचार के इजहार पर रोक लगा दी गई. जिस किसी ने दफा 370 और 35ए को हटाने के फैसले की कमियां निकालीं, उसे सलाखों के पीछे डाल दिया गया. कश्मीर वाले इलाके में तो पिछले 118 दिन से शटर डाउन चल रहा है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद है. बिजली-पानी की किल्लत हो गई है. स्वास्थ्य सबंधी समस्याएं बढ़ गई हैं और स्कूल-कॉलेज एक तरह से बंद पड़े हैं.
Jammu is also not untouched by this shutdown
जम्मू भी इससे अछूता नहीं रहा है. इस अरसे के दौरान इस इलाके को अपनी मुश्किलात से तो जूझना ही पड़ा, साथ ही कश्मीर बंद होने से जम्मू का 50 फीसदी से ज्यादा कारोबार चौपट हो गया है. उद्योगों से लेकर विभिन्न कारोबार से जुड़े छोटे-बड़े तमाम व्यापारी मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. कामगारों की छंटनी हो रही है. उनके कई परिवार मुश्किल में पड़ गए हैं. पर्यटन कारोबार पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है. शहर के होटलों में 85 फीसदी कमरे खाली पड़े हैं.
टैक्सी ऑपरेटरों की तो कमर टूट गई है. उनका ज्यादातर काम कश्मीर से जुड़ा है. जम्मू में करीब 1250 टैक्सियां हैं जिन्हें पिछले तीन माह से घाटी के लिए टूर पैकेज नहीं मिला है. कश्मीर के लिए टैक्सी की मांग नहीं के बराबर है. इस काम में ज्यादातर गाडि़यां बैंकों से कर्ज लेकर चल रही हैं. उनकी किश्त पटाना भी दूभर हो गया है.
कश्मीर में कारोबार न होने से जम्मू के व्यवसायियों के अरबों रुपये वहां फंसे हुए हैं. घाटी के लिए ज्यादातर सामान जम्मू से सप्लाई होता है. बड़े ऑर्डर की आपूर्ति उधार पर ही होती है. जो सप्लाई पहले हुई थी, उसका भुगतान पाबंदियां लगने के बाद अटक गया है. और जो माल ऑर्डर पर तैयार किया गया, वो पाबंदियों के चलते सप्लाई ही नहीं हो पाया. कश्मीर के व्यापारी अब सीधे देश के दूसरे शहरों से भी लेन-देन कर रहे हैं. इससे एक तरफ जहां अरबों का भुगतान अटक गया है, वहीं तैयार माल भी डंप पड़ा है. और ड्राई फ्रूट का व्यापार भी जम्मू में दम तोड़ रहा है.
जम्मू के फल कारोबारियों ने कश्मीर में फल उत्पादकों को एडवांस में करीब 250 करोड़ रु. दिए थे. बदले हालात में फसल जम्मू नहीं पहुंच सकी. ऐसे में कारोबारियों की यह रकम घाटी में ही फंस गई है. जम्मू फल मंडी से सीजन के दौरान करीब 3,000 करोड़ रु. का कारोबार होता है.
इस सारे अरसे में "जम्मू-कश्मीर फोरम फॉर पीस ऐंड टेरेटोरियल इंटीग्रीटी" दर्जनों मीटिंगें करके जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात पर अपनी राय और सुझाव पेश करता आया है, मगर इन सभी को दिखाने या छापने के लिए मीडिया को रोका जाता रहा. इस संस्था ने सेमिनार करने की इजाजत मांगी तो प्रशासन की ओर से साफ इनकार कर दिया गया. दमन की हद तो तब हुई जब हम पूर्व सांसद शेख अब्दुल रहमान के घर की छत पर मीटिंग कर रहे थे तो पुलिस ने वहां पहुंचकर कार्यक्रम न करने का दबाव बनाया और हर किस्म की रुकावट डालने की कोशिश की.
फोरम ने अपनी नैतिक और सामाजिक जिम्मेवारी निभाते हुए देश के बहुत से स्थानों पर सेमिनारों में सरकार के झूठे प्रचार का जवाब देने और सही हालात बयान करने की लगातार कोशिशें की और देश की जनता से अपील की कि वे जम्मू-कश्मीर में आकर सचाई को जानें और समझें. इसके आधार पर विभिन्न राज्यों के अनेक संगठनों ने मिलकर जम्मू से श्रीनगर तक "लोकतंत्र बचाओ" मार्च निकालने का संकल्प लिया. इसमें नीचे दिए संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का प्रमुख योगदान रहा.
बांग्लादेश-भारत-पाकिस्तान पीपल्स फोरम के पूर्व सांसद शेख अब्दुल रहमान (जम्मू), रीता चक्रबर्ती (कोलकाता) और सुश्री गोपा (कोलकाता), सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के रैमण मैगासेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय (लखनऊ), अमित कुमार मौर्य (उत्तर प्रदेश) और हरिंदर सिंह मानसाहिया (पंजाब), आइडीपी के करनैल सिंह जखेपल और तरलोचण सिंह (पंजाब), जेऐंडके फोरम फॉर पीस ऐंड टेरेटोरियल इंटीग्रीटी के आइ.डी. खजूरिया, हरबंस सिंह, अमृत वर्षा, नरेंद्र खजूरिया और आनंद खजूरिया (जम्मू), लोक मंच के रघुबीर सिंह और गीटन सिंह (जम्मू), सीपीआइ(एमएल) के निर्दोष उप्पल (जम्मू), सीपीआइ के कॉ. प्रीतम सिंह (जम्मू), एआइएसएफ के सुरजीत बंदराल और रणबीर सिंह (जम्मू), हक इंसाफ पार्टी के बिलाल खान (जम्मू), समाजवादी समागम के डॉ. सुनीलम (मध्य प्रदेश), देशभगत यादगार कमेटी के कॉ. सुखदेव सिंह (जम्मू), सिख इंटलेक्चुअल फोरम के नरेंद्र सिंह खालसा (जम्मू), जेके पीपल्स मूवमेंट के शाहिद सलीम (जम्मू), महिला अधिकार संगठन की संतोष खजूरिया (जम्मू), लोकतांत्रिक जनता दल के अरुण कुमार श्रीवास्तव और ललिता कुमारी (दिल्ली), पत्रकार गुड्डी (मुंबई), प्रोफेसर राजिंद्रन (बंगलुरु), एनएपीएम की प्रोफेसर सुशीला कुमारी (बिहार).
इन लोगों ने पर्चे बांटकर जनता से जानना चाहा कि दफा 370 और 35ए खत्म किए जाने और रियासत को केंद्रशासित प्रदेश बनाने से वह कितनी खुश है और तरक्की के कितने अवसर बढ़े हैं, जैसा कि सरकार दावा कर रही है.
पर हमें जनता के पास पहुंचने से रोका जाता रहा, मीडिया को हमारे करीब नहीं आने दिया गया और उनके कैमरे तोड़ दिए गए. जो परचे जनता ने लिए भी, पुलिस अधिकारियों ने उनसे छीन लिए और उनको डराया भी गया. अजीब बात तो यह है कि युरोपियन यूनियन के लोगों को खुली छूट दी जाती है, लेकिन देशवासियों या रियासत (यूटी) एक कोने के नागरिकों को दूसरे कोने के नागरिकों से मिलने की इजाजत नहीं दी जाती. यह कैसा मानवीय असूल है.
कुल मिलाकर, प्रशासन का रुख बहुत ही नकारात्मक और दमनकारी रहा. जब मार्च प्रैस क्लब से शुरू ही हुआ था कि पुलिस ने बड़ी संख्या में घेरा डालकर दबाव बनाया कि मार्च आगे न बढ़े. अधिकारियों ने मीडिया को डराया-धमकाया कि मार्च को लेकर न मीडिया में कुछ दिखाया जाए और न ही उस बारे में कुछ लिखा जाए. यही नहीं, उन्होंने हम पर यह पाबंदी भी लगा दी कि हम शहर में पैदल चलकर मार्च जारी नही रख सकते.
हमने कहा कि देश का संविधान हमें अपनी बात कहने, इकट्ठे चलते हुए विरोध प्रकट करने का अधिकार देता है. लेकिन अधिकारियों ने हमारी एक नहीं सुनी. हमने उनसे कहा कि जनता सचाई सुनना और जानना चाहती है, आप हमें रोककर अपनी वर्दी की ताकत का दुरुपयोग कर रहे हो. लेकिन उन्होंने हमें गाडि़यों पर बैठकर आगे चलने को मजबूर कर दिया.
हम अपने अगले पड़ाव 67 किलोमीटर दूर ऊधमपुर पहुंचे तो पुलिस हमारे साथ-साथ रही. वहां भी उसने सभी लोकतांत्रिक असूलों को ताक पर रखकर हमें पुलिसिया राज के दर्शन कराए और न तो हमें बाजार में प्रदर्शन करने दिया और न ही पर्चे बांटने की अनुमति दी. अगले दिन हमारा कार्यक्रम गाडि़यों में ही बैठकर अपने अगले पड़ाव 56 किलोमीटर दूर रामबन पहुंचने का रहा, लेकिन पुलिस ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा.
आगे एक पहाड़ी गिरने से सड़क बंद हो गई तो एक दिन हमें रामबन में ही रुकना पड़ा. अगली सुबह हम आगे बढ़ने को तैयार हुए ही थे कि प्रशासन ने तय कर लिया कि वह हमें नहीं जाने देगा. लोकतंत्र बहाली मार्च को पुलिसिया ताकत से रोक दिया गया और बड़ी संख्या में पुलिस ने हमें जबरदस्ती चनैनी नाशरी टनल पार करवाया और हम जम्मू लौट आए.
आई डी खजुरीया