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Implications of the peasant movement in the Corona period
किसान आंदोलन के छह महीने पूरे हो गये लेकिन सरकार की संवेदनहीनता ने सिद्ध कर दिया कि सरकार खेतिहर समाज के प्रति किस तरह की धारणा रखती है। सरकार के नुमाइंदे जो भी कह लें पर यह साफ हो गया है सरकार खेती-किसानी के लिए कुछ करने वाली नहीं है, इसलिए अब किसानों को रणनीति बदलने की दरकार है)
डॉ. लखन चौधरी
भारत का खेतिहर ग्रामीण कृषक समाज इन दिनों घोर अव्यवस्था, अराजकता, अनैतिकता, अविश्वास, अनिर्णय, असमानता, अपमान, अनिश्चितता और अमानवीयता के साथ अपनी जिंदगी जीने के लिए विवश है। भयंकर तबाही, शोषण और जिल्लत भरी जिंदगी जीने की मजबूरी के दौर से गुजर रहा है। किसानों के पक्ष में इस समय कुछ भी नहीं है। न वक्त, न मौसम, न शासन-प्रशासन, न सरकार और न किस्मत, कुछ भी नहीं। इसलिए तो किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहें हैं।
वैसे देखा जाए तो खेती किसानी सदियों से भारी मेहनत के बावजूद घाटे और नुकसान का सौदा रहा है, मगर किसान करें भी तो क्या करें ? किसान सदियों से शोषण का शिकार होते आया है, लेकिन यह दौर किसानों के लिए शायद सबसे कठिनतम दौर है, क्योंकि इस दौर में किसानों के लिए ढ़ेरों नीतियां, योजनाएं, कार्यक्रम हैं और आर्थिक छूट, अनुदान, बीमा तथा सहायता राशि के नाम पर अरबों-खरबों का बजट है। इसके बावजूद किसान ठगा का ठगा, शोषित का शोषित और छला का छला है, क्योंकि किसानों की बेहतरी के लिए बनाये गये इन नीतियों, योजनाओं, छूट, सहायता, बीमा, अनुदान और कार्यक्रमों का लाभ किसानों को या तो नहीं मिल रहा है, या किसानों तक नहीं पहुंच रहा है। इसे बिचैलियों, दलालों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, अधिकारियों और नेताओं द्वारा रास्ते पर ही हड़प लिया जा रहा है।
ऐसे हालात में जब सब कुछ उसके लिए होने के बावजूद उसे कुछ नहीं मिल रहा हो तो क्या करे ? कोई तो नहीं है उसके साथ। ना पत्नि, ना बेटा, ना बैंक, ना बीमा कंपनियां, ना रिश्तेदार, ना सगेसंबंधी, ना सरकारी अधिकारी और ना सरकार। तो फिर बेचारा खुदकुशी के सिवा क्या करे ? या क्या ना करे ? यह बात उसे समझ ही नहीं आती है। सरकार के झूठे प्रचारतंत्रों, और नेताओं के धूर्ततापूर्णं आश्वासनों की वजह से अपनी, अपने परिवार की जीवनशैली, खानपान और रहनसहन को ऐसा बना लिया है कि कर्ज के जाल में फंसने के अलावा उसके पास कोई चारा ही नहीं है। कर्ज के इस मकड़जाल से निकलने की कोई तरकीब भी नहीं है। फिर जब इनकी कीमत चुकाने की बारी आती है तो जमीन बेचते जाता है, और जब जमीन खत्म हो जाती है या घर के लोग बेचने नहीं देते हैं तो आत्महत्या उसका अंतिम विकल्प होता है।
आत्महत्या कतई उचित नहीं है, यह उसे कौन बताये एवं समझाये ? यह एक अलग बड़ा सवाल है।
प्रचारवादी, दलालवादी, पूंजीवादी और बाजारवादी ताकतों के साथ सरकार की सांठगांठ के चलते आज किसानों के घरों में आधुनिक जीवनशैली की सारी सामग्रियां, सुविधाएं और उपकरण कर्ज की सुलभता के कारण मौजूद हैं। किसानों की अगली पीढ़ी खेती-किसानी करना नहीं चाहती है। इधर रोजगार के अन्य वैकल्पिक स्थायी साधन नहीं है। खेती-किसानी की लागत कई गुना बढ़ चुकी है। दुनिया की देखादेखी परिवार का खर्चा बेहिसाब बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे हालात में क्या करेगा किसान ?
खेतिहर किसान समाज में शिक्षा की स्थिति बदतर है, जिसके कारण दो-तिहाई से अधिक किसान परिवारों के घरों में खेती-किसानी के अतिरिक्त रोजगार के कोई वैकल्पिक उपाय नहीं हैं। इसकी वजह से निश्चित आमदनी का कोई स्रोत, साधन नहीं है। यही कारण है कि किसान दुखी हैं। मानसून एवं मौसम की अनियमितता के कारण एक तो उपज या उत्पादन का कोई ठिकाना नहीं है और जब कभी अच्छी फसल हुई तो सही कीमत मिलने की कोई गारंटी नहीं रहती है। ऐसे में फसल की सारी कमाई मजदूरी, खाद, बीज, दवाई, पानी और बीमा पर ही खत्म हो जाती है। दिन रात मेहनत करने के बाद हाथ खाली वाली स्थिति की वजह से किसान टूटते जा रहें हैं।
खेती-किसानी से जुड़े खेतीहर समाज के लोग केवल एक वोट बैंक बनकर रह गये हैं। जब तक यह धारणा उनकी समझ में नहीं आयेगी तब तक इसका समाधान नहीं है।
आज गांवों की स्थिति बदतर होती जा रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पीने व सिंचाई के पानी, रोजगार जैसे मसले हाशिये पर जा रहे हैं। गांवों में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता चरम पर है। पारिवारिक और सामाजिक सरोकार से जुड़े मसले और माहौल विषाक्त हो चुके हैं।
इस स्थिति से निकलने का समाधान शिक्षा पर ही टिका है, लेकिन सरकारी नुमाइंदे चाहते नहीं कि गुणात्मक शिक्षा सर्वसुलभ हो। शिक्षा को दुरूस्त किये बिना खेतीहर समाज को विकास की मुख्यधारा में लाया ही नहीं जा सकता है।
आज जरूरत है गांवों में रोजगार के वैकल्पिक साधन उपलब्ध करायें जायें। गांवों में जीवन की सभी बुनियादी सुविधाओं की गुणात्मक उपलब्धता सुनिश्चित की जाये। किसानों की उपज का उचित और वाजिब दाम सुनिश्चित किया जावे। ग्रामीण पलायन को वहीं रोजगार की व्यवस्था करते हुए रोका जाये. तभी कुछ हो सकता है।
सरकारी कर्ज मुक्ति, छूट, अनुदान, बीमा और सहायताएं जैसे तात्कालिक उपायों के साथ किसानों को उद्यमशील बनाने के लिए इस दिशा में ठोस कार्यक्रम, नीतियां और योजनाएं लाने की जरूरत है। जिससे कि दीर्घकाल में किसानों को इसका लाभ मिले। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सबके लिए किसानों के साथ ही साथ सरकारी तंत्र और सरकार में बैठे लोगों की सोच, विचारधारा और मानसिकता में बदलाव और परिवर्तन की सख्त दरकार है। जब तक यह नहीं होगा तब तक कोई भी प्रयास परिणाम तक नहीं पहुंचेंगे।
सवाल फिर वही कि क्या हम, हमारे किसान, हमारा सरकारी तंत्र और हमारी सरकारें इसके लिए तैयार हैं ???
अन्यथा विरोध, धरना, प्रदर्शन, आंदोलन तो अनवरत चलते ही रहेंगे !
किसानों की बली और आहूतियां इसी तरह दी जाती रहेंगी !
विपक्ष चुनाव के बहाने उकसाते रहेंगे !
वोटबैंक की खातिर सत्तापक्ष प्रलोभनों के दाने फेंकते रहेंगें !
मीडिया तमाशा दिखाता रहेगा !
बुद्धीजीवी थोथा बौद्धिक प्रलाप करते रहेंगे !
सत्याग्रह, अनशन, उपवास की नौटंकियां चलती रहेंगी !
किसानों की संतानें मरती रहेंगी !
खेतीकिसानी बदनाम होती रहेगी !
छूट, सहायता, बीमा, अनुदान के नाम पर शोषण, धर्मनीति, राजनीति, वोटनीति, भ्रमितनीति, चलती रहेगी !
अनवरत. अविरल, अनंतकाल तक !!!!!!!
(लेखक; प्राध्यापक, अर्थशास्त्री, मीडिया पेनलिस्ट, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक एवं विमर्शकार हैं)