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क्या पूंजी के पास हर आर्थिक समस्या का हल है?
पूंजीवाद का (और साम्यवाद का भी! ) दावा है कि हर आर्थिक समस्या का हल पूंजी के पास है। देशी हो कि विदेशी, हर पेशेवर अर्थशास्त्री पूंजी की इस ताकत का लोहा मानता है। यही हमारे विद्यालयों में पढ़ाया जाता है और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा प्रचारित भी किया जाता है। पूंजी से ही उत्पादन होता है। ज्यादा उत्पादन, ज्यादा आमदनी; उस आमदनी से फिर ज्यादा उत्पादन के लिए पूंजी, ऐसा क्रम बनता जाता है।
खपत को लेकर पूंजीवाद की मान्यता
इस मान्यता में यह निहित है कि समाज में खपत तो बनी ही रहेगी, बल्कि पूंजीवाद मानता है कि खपत असीमित है, संसाधन सीमित हैं। सीमित संसाधनों का उपयुक्त उपयोग केवल बड़ी पूंजी से ही संभव है और बड़ी पूंजी कुछ ही लोगों के पास होती है, इसलिए उन कुछ लोगों को सारी सुविधाएं उपलब्ध होंगी तभी तेजी से विकास होगा।
जब बड़े पैमाने पर, रोज-रोज उत्पादन होता है तो उसकी खपत बढ़ाने के लिए रोज-रोज प्रचार और विज्ञापन अनिवार्य हो जाते हैं। ध्यान रखें, विज्ञापन केवल खपत नहीं बढ़ाता, बल्कि वह ज़रूरत भी पैदा करता है। इससे एक नया समीकरण बनता है: बढ़ी खपत से आमदनी बढ़ती है, बढ़ी आमदनी से उत्पादन बढ़ता है और उससे बड़ा विकास होता है।
लेकिन यह चर्चा कभी नहीं होती कि पूंजी किसके हाथ में है और उस पूंजी से किसका विकास होता है?
आप इसे समझना चाहें तो पिछले दिनों पेट्रोल के दाम के आसमान छूने से समझिए। कहा गया कि पेट्रोल का उपयोग जो लोग करते हैं वे समाज के सक्षम लोग होते हैं और वे संख्या में बहुत थोड़े हैं। इसलिए पेट्रोल का दाम बढ़ने से उन पर कोई असह्य बोझ नहीं पड़ेगा और वे इतने कम हैं कि उसका कोई सामाजिक परिणाम भी नहीं होगा।
क्या मुट्ठी भर लोगों के लिए ही तथाकथित विकास हो रहा है?
अगर हम यह सच मान लें तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि लाखों-करोड़ों-अरबों रुपए खर्च कर सड़कों और पुलों का जाल केवल इन मुट्ठी भर लोगों के लिए ही बनाया जा रहा है? सरकारें जब अपनी उपलब्धियां गिनाती हैं तो सबसे पहले बताती हैं कि हमने कितनी रेल-रोड-एयरपोर्ट बनाए। यह विकास किसके लिए हो रहा है?
जरा ध्यान करिए, जब आप हाईवे पर चलते हैं तो सबसे ज्यादा क्या दिखता है? उन पर दौड़ते ट्रक, कंटेनर और महंगी गाड़ियां और सर्वसाधारण जनता चलती है पैदल, स्कूटर, रिक्शा और बसों से!
समय-समय पर पूंजीवाद का चेहरा बदलता रहता है, पर कभी नहीं बदलता पूंजी के बहाव का रास्ता
इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर ये सारे काम केवल उन उद्योगों के लिए हो रहे हैं जो पूंजीवाद के खंभे हैं। नतीजा यह होता है कि पूंजी बढ़ती तो है, लेकिन पहुंचती उनके हाथों में है जिनके उद्योग-धंधे हैं।
हम कहते हैं न कि पैसा पैसे को खींचता है! ठीक कहते हैं, लेकिन यह प्राकृतिक रिश्ता नहीं है, हमने सारी व्यवस्था बनाई ही इस तरह है कि पैसा पैसे वालों की तरफ बहता रहे।
आप गौर करेंगे तो देख व समझ पाएंगे कि पूंजीवाद का चेहरा भले समय-समय पर बदलता रहता हो, पूंजी के बहाव का रास्ता कभी नहीं बदलता।
वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने के लिए झोंकी गई पूंजी आखिर गई कहां?
वर्ष 2009 में जो वैश्विक आर्थिक संकट (The global economic crisis in 2009) आया तो उससे निबटने के लिए बैंकों ने बेहिसाब पूंजी बाजार में उड़ेली। तब तक आ गया कोविड! अब जान बचाने की ताकत भी तो केवल पूंजी के पास ही है। तो कोविड-19 के केवल दो सालों में दुनिया के हर देश ने उतनी ही अतिरिक्त मुद्रा फिर से छापी, जितनी कि कुल मिलाकर पिछले दस सालों में छपी थी। सवाल है कि यह सारी पूंजी गई कहां?
आंकड़े तो यह बता रहे हैं कि इसी बीच दुनिया के ( और भारत के भी! ) मुट्ठी भर लोगों के हाथ में पृथ्वी की सारी सम्पत्ति सिमट गई है।
महंगाई आज उफान पर क्यों है?
एक नतीजा यह भी हुआ कि चूंकि पैसा बहुत छापा गया और कोविड-19 के दौरान उत्पादन (production during covid-19) पर एकदम ब्रेक लग गया तो आज महंगाई उफान पर है।
अमीर देशों में महंगाई 40 साल के ऊपर के स्तर पर है। कुछ कम अमीर देशों में 40 फीसदी से 60 फीसदी महंगाई है और हमारे जैसे कुछ भाग्यशाली ऐसे देश भी हैं जहां 'आंख के अंधे, नाम नयनसुख,' कह रहे हैं कि दरअसल महंगाई तो है ही नहीं।
इधर रूस ने यूक्रेन पर धावा बोलकर बाकी कसर भी पूरी कर दी है। अब कैसी महंगाई की बात, यह तो अंतरराष्ट्रीय युद्ध का वैश्विक परिणाम है!
आने वाली है भयंकर मंदी, क्या तीसरा विश्व युद्ध भी होगा?
एक दूसरा नतीजा यह भी है कि असीमित पैसा अब कुछ सीमित लोगों की तिजोरियों में बंद है, जिसके चलते लोगों कि क्रय-शक्ति खत्म हो रही है। आने वाले दिनों में संसार भयंकर मंदी की गिरफ्त में आएगा, इसके आसार दिख रहे हैं। यह पूंजीवाद का चक्र है। हर कुछ दशकों में यह मंदी आती ही है। फिर अपनी पूंजी की रक्षा के लिए पुलिस और सेना का उपयोग अनिवार्य हो जाता है। जगह-जगह फौज-पुलिस का बल-प्रयोग होता है - कहीं परिणामकारी होता है तो कहीं श्रीलंका जैसी स्थिति बन जाती है। दोनों विश्वयुद्ध इसी चक्र के परिणाम थे और तीसरा नहीं होगा, कौन कह सकता है?
पूंजीवाद का चेहरा फिर बदलने जा रहा है
हम फिर एक बार ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जब पूंजीवाद का चेहरा (the face of capitalism) बदलने जा रहा है। पूंजीवाद के अपने अंतर्विरोध से दुनिया की व्यवस्थाओं पर आघात पैना होता जा रहा है। हर जगह, हर तरह के वंचित लोग सत्ता-बल-धन से समर्थ लोगों द्वारा ठगा महसूस कर रहे हैं।
हमने गांधी को मारा; दुनिया ने गांधी को माना। ऐसा इसलिए है कि गांधी ने मनुष्य सभ्यता के सामने यह विकल्प रखा था कि पूंजी बननी और बढ़नी जरूरी है, लेकिन उतना ही जरूरी है कि वह अहिंसक तरीकों से बंटे भी! यही न्यायपूर्ण और टिकाऊ समाज-व्यवस्था का रास्ता है।
पूंजी का बनना व बढ़ना तो हमने देख लिया, पूंजी का बंटना केवल विकेंद्रित आर्थिक व्यवस्था में ही सम्भव है। जहां उत्पादन हो, वहीं उसकी खपत भी हो।
उत्पादन कहीं और खपत कहीं, यह शोषणकारी और संसाधनों की बर्बादी का रास्ता है।
गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य-समाज में खपत कभी भी असीमित नहीं होती, ना होनी चाहिए। मनुष्य अपनी ज़रूरतों को सीमित करे और समाज अपनी जरूरतों को। गरीब और निराश्रित कोई न रहे और उतना ही जरूरी यह भी है कि असीमित धन और संसाधन कुछ लोगों, संगठन या पार्टी के हाथ में सिमट ना जाएं।
क्या मनुष्य की समस्याओं का विभाजन हो सकता है? क्या कहते हैं गांधी
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गांधी ने इस बात पर भी जोर दिया था कि समस्या को देखने का आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तरीका अलग-अलग हो, ऐसा विभाजन अवैज्ञानिक है। मनुष्य का विभाजन नहीं हो सकता तो फिर उसकी समस्याओं का विभाजन कैसे होगा? सभी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हैं, इसलिए शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ जीवन तभी सम्भव है जब सबको उनकी जरूरत भर संसाधन मिलें और सबको उनकी क्षमता भर काम मिले।
समाज में पूंजी और श्रम की हैसियत बराबर होगी तभी शरीर से मजबूत लोग ख़ुशी-ख़ुशी श्रम करेंगे, बुद्धि से समर्थ लोग गर्व से अपना काम करेंगे और दोनों एक-दूसरे को सम्मान से देखेंगे।
समाज का बहु-संख्यक हिस्सा श्रम व बुद्धि, दोनों स्तरों पर औसत क्षमता रखता है, तो समाज की हर रचना बहुमत के उन औसत लोगों को ध्यान में रखकर बनानी होगी। तब जरूरी होगा कि समाज की योजना बनाने के काम में सभी लगें - श्रमिक, बुद्धिशाली, औरतें और सामान्य जन! सबकी साझा समझ और संस्कार से समाज जब सबके हित में सोचेगा तो सबका हित सधेगा। फिर सड़कें भी होंगी, पुल भी, गाड़ियां भी और हवाई जहाज भी, लेकिन एक बड़ा फर्क होगा : उनसे पूंजी नहीं, इंसान उड़ेंगे!
प्रेरणा
(मूलतः देशबन्धु में प्रकाशित लेख का किंचित् संपादित रूप साभार)
The importance of distribution in the formation of capital