प्रेमचंद जयंती पर जरूरी सवाल | Important questions on Premchand Jayanti
आज साहित्य से लेकर जीवन तक सारवान भौतिक तत्व घट रहा है। साहित्यकार निर्मित बहसें, निर्मित यथार्थ और निर्मित प्रशंसा में मगन हैं। इनमें कहीं पर भी सबस्टेंस नहीं नजर आ रहा। जो लेखक भूमंडलीकरण पर बहस कर रहे हैं, वे भूमंडलीकरण का क-ख-ग तक नहीं जानते। जो बाजारवाद को कोस रहे हैं वे कभी बाजार नहीं गए।
सवाल यह है कि सारवान भौतिक जीवन के बिना यह कैसा साहित्य और साहित्यकार हमारे बीच में आया है, इसकी पड़ताल करने की जरूरत है।
कल्पना करें यदि प्रेमचंद भारत के इन दिनों प्रधानमंत्री होते तो देश में किस तरह उनका जन्मदिन मनता ? क्या कोई भी मुख्यमंत्री और विश्वविद्यालय उनके जन्मदिन की उपेक्षा करता ?
प्रेमचंद के अनुसार ईश्वर की उपासना का क्या मार्ग है?
प्रेमचंद का मानना है “ईश्वर की उपासना का केवल एक मार्ग है और वह है मन, वचन और कर्म की शुद्धता, अगर ईश्वर इस शुद्धता की प्राप्ति में सहायक है, तो शौक से उसका ध्यान कीजिए, लेकिन उसके नाम पर हरेक धर्म में जो स्वाँग हो रहा है,उसकी जड़ खोदना किसी तरह ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा है।”
“हिन्दू समाज के वीभत्स दृश्य “निबंध में प्रेमचंद ने जिस भाव को संप्रेषित किया है वह निबंध यदि आज लिखा जाता तो प्रेमचंद का वध हो जाता या फिर संघ के लोग दस बीस मुक़दमे ठोक देते!
कथाकार प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है “बन्धनों के सिवा और ग्रंथों के सिवा हमारे पास क्या था। पंडित लोग पढ़ते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक-दूसरे की बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते थे। यह हमारी व्यावहारिक संस्कृति थी। पुस्तकों में वह जितनी ही ऊँची और पवित्र थी, व्यवहार में उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट।”
साम्प्रदायिकता पर प्रेमचंद के विचार
हमारे समाज में ऐसे लोग हैं जो अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का विभाजन करते हैं। इस नजरिए की आलोचना में प्रेमचंद ने लिखा “हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं, जो हर एक संस्था में दलबंदी कराती है और अपना छोटा-सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है।”
प्रेमचंद ने लिखा है “साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है।उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर
जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खाल ओढ़कर आती है।”
मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है “हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही। दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते। भेड़ों की तरह एक-दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं, कुएँ में गिरें या खन्दक में, इसका गम नहीं। जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो, उसको सँभलते बहुत दिन लगेंगे।”
प्रेमचंद ने लिखा है “जब हम अपने किसी सहवर्गी को अपने से आगे बढ़ते देखते हैं तो संभवतः मन में ऐसईब कुरेदन -सी होती है। उसे किसी तरह नीचा दिखाने की इच्छा होती है।” क्या यह बात आज भी सच है ?
प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी की एफबी टिप्पणियों का समुच्चय
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