In Mathura, there was one Savyasachi who was not an individual but an institution
सव्यसाची की पुण्य तिथि पर स्मरण | Reminiscence on the death anniversary of Savyasachi
एक व्यक्ति के दिवंगत होने के तेईस साल बाद नगर के प्रबुद्ध जन स्मरण कर उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा करें तो निश्चय ही यह हैरत की बात है। साधारण जीवन जीने वाले असाधारण व्यक्ति प्रो. एस. एल. वशिष्ठ (सव्यसाची) के नाम से मथुरा ही नहीं वरन् सम्पूर्ण देश के वामपंथी आन्दोलनों से जुड़े राजनैतिक कार्यकर्ता, राज-नेता और साहित्यकर्मी परिचित हैं। मथुरा के बी.एस.ए. कालेज में तीन दशक से अधिक अध्यापन कर सव्यसाची हजारों छात्रों और शिक्षकों के दिल दिमाग में छा गए थे।
हाथ से धुले बिना इस्त्री किए धवल कुर्ता-पाजामा और चप्पलों से लैस सव्यसाची दूर से एक साधारण व्यक्ति भले ही नजर आते थे पर उनके असाधारण व्यक्तित्व, सोच, कार्यशैली, ईमानदारी, मानवीयता, कर्मठता, शोषित-पीड़ित जन के प्रति गजब की प्रतिबद्धता ने उनके अजर-अमर होने का मार्ग उनके जीवन काल में ही प्रशस्त कर दिया था।
उनका खान-पान और रहन सहन एक सन्यासी का था। 60 वर्ष की उम्र तक उन्हें दो चार बार ही बुखार आया होगा। उनकी सेहत को देखकर उनकी दीर्घ आयु की कल्पना की जाती थी, लेकिन अचानक 1997 में दिमागी फोड़े ने उनके प्राण ले लिए। सव्यसाची बेशक जल्दी चले गए पर वे जितना जिये, एक-एक पल एक लक्ष्य को केन्द्र में रखकर जिये।
Sabyasachi News in Hindi
सव्यसाची को करीब से जानने वाले लोग उनके विराट व्यक्तित्व को न तो एक भाषण में बखान कर सकते हैं और न ही एक लेख में लिपिबद्ध कर सकते हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन एक कथा शिल्पी के लिए उसके उपन्यास की कथावस्तु है, एक इंसान के लिए प्रेरणाप्रद है, एक शिक्षक के लिए अच्छी किताब है तो एक योद्धा के लिए हुंकार है। युग-युग से शोषित भारतीय नारी के लिए संघर्ष पथ है तो बच्चों के लिए “वशिष्ठ अंकल” की अविस्मरणीय स्मृतियां हैं। संक्षेप में, सव्यसाची एक व्यक्ति नहीं संस्था थे।
प्राय: देखा गया है कि अनेक असाधारण पुरुषों का सही-सही मूल्यांकन उनकी मृत्यु के बाद ही होता है। सव्यसाची इस मायने में अपवाद हैं।
आत्मप्रचार से सदैव दूर रहने वाले सव्यसाची को सम्मान देने और प्यार करने वालों की कतार उनके जीवन काल में ही लग गई थी। उनके मजदूरों का साथ देने के कारण कालेज के प्रबंधकों ने प्रारम्भ में नाक भौं सिकोड़ी लेकिन अपने जादूई व्यवहार से वे लोग भी कहने लगे थे “प्रो. वशिष्ठ के विचार हमारी समझ से परे हैं पर वे इंसान गजब के हैं।”
उनमें विरोधियों को मित्र बनाने की गजब की कला थी। आपातकाल में देश भर के हिन्दीभाषी क्षेत्र में सव्यसाची के साहित्य ने सैकड़ों नौजवानों को अत्याचार से जूझने की ताकत दी।
सव्यसाची ने व्यावसायिक पत्र पत्रिकाओं का कभी भी सहारा नहीं लिया। “युगान्तर प्रकाशन” के नाम से स्वयं का प्रकाशन संस्थान स्थापित किया और तीन दर्जन से अधिक पुस्तकों को प्रकाशित कर अपने विचारों की ज्वाला से देश के कौने-कौने को आलोकित किया। उनकी पुस्तकें शोषित-पीड़ित जन का हथियार बनी।
मुझे एक किस्सा याद है। यह बात 1980 के आसपास की है। “मनोहर कहानियाँ” पत्रिका में विहार के एक ऐसे इनामी डकैत का किस्सा छपा था जिसको पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था। इस डकैत की जब तलाशी ली गई तो उसके झोले में बन्दूक की गोलियों के मध्य सव्यसाची द्वारा लिखित पुस्तक “समाज को बदल डालो’ भी रखी थी। यह किस्सा मैंने पढ़ा तो अगले दिन मैगजीन कालेज ले गया। मैंने सव्यसाची को पत्रिका का वह पन्ना खोल कर दिखाया जिसपर यह सब छपा था। सव्यसाची ने एक नज़र पढ़ा और फिर अपनी आदत के मुताबिक अट्टहास लगाकर अपनी कक्षा में चले गए।
इसी प्रकार एक बार गोवा की जेल में बंद एक कैदी ने सव्यसाची की पत्नी को ख़त लिखकर सव्यसाची की पुस्तकें भेजने का निवेदन किया था।
सव्यसाची एक शिक्षक व एक लेखक ही नहीं थे। सव्यसाची ने मथुरा में प्रिन्टिंग प्रेस, डोरी निवाड़, साड़ी छपाई मजदूरों को संगठित कर उनके आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी की। जहाँ भी समय गुजारा, अपने पद चिन्हों को छोड़ा, लोगों के दिलों में अपनी पहचान बनाई। आज भी हजारों लोग उन्हें “मास्साब’ के नाम से याद करते हैं।
सव्यसाची अपनी पुरानी साईकिल पर पूरा शहर नाप देते थे। जिस मिस्त्री से अपनी साईकिल ठीक करते थे, वह उनका दोस्त बन गया था। उन्होंने अपने दोस्त मिस्त्री को गोर्की की पुस्तक ”माँ” को दिया। बाद में मिस्त्री खुद ही पुस्तकें मांगने लगा। मिस्त्री के घर एक बालक का जन्म हुआ तो उसने सव्यसाची को सूचना देते कहा —-”मासाब, मैंने बेटे का नाम ”गोर्की” रखा है। आज मिस्त्री तो नहीं, हाँ,उसका गोर्की मथुरा में जरूर मौजूद है।
न जाने कितने नौजवानों को पढ़ने-लिखने की प्रेरणा देकर सव्यसाची ने उन्हें कलम का सिपाही बनने के लिए प्रेरित किया।
सव्यसाची का स्मरण बिलकुल ऐसे लगता है जैसे तपती धूप में वटवृक्ष के नीचे बैठे एक व्यक्ति को शीतलता का आभास होता है।
अशोक बंसल (Ashok Bansal)
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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