महाश्वेता देवी और उनके पुत्र नवारुण भट्टाचार्य बांग्ला के ऐसे मात्र दो साहित्यकार हैं, जो देश पत्रिका, आनंद बाजार पत्रिका समूह और आनंद पब्लिशर्स (Ananda Publishers) में छपे बिना साहित्यकार बने। जंगल के दावेदार यानी अरण्येर अधिकार फिल्मी पत्रिका प्रसाद में प्रकाशित हुआ। जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और उनकी सार्वभौमिक पहचान बनी। यही नहीं, उनके भाई ऋत्विक घटक, पिता मनीष घटक और पति बिजन भट्टाचार्य सबने वर्चस्ववाद को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई।
महाश्वेता देवी की ज्यादातर रचनाएं लघु पत्रिकाओं या गैर साहित्यिक प्रसाद, ulto rath जैसी पत्रिकाओं में छपी।
महाश्वेता देवी से पहली मुलाकात
1981 में धनबाद में उनसे हमारी पहली मुलाकात हुई कोलियरी कामगार यूनियन आयोजित प्रेमचंद जयंती में। कामरेड एके राय के सौजन्य से।
महाश्वेता जी से पहले मैंने प्रेमचंद की भाषा शैली पर बोला। दीदी ने मेरे वक्तव्य का खण्डन करते हुए कहा कि कथ्य ही भाषा शैली तय करती है। कथ्य प्रमुख है। कथ्य के मुताबिक भाषा शैली बनती है। नैनीताल में गिर्दा भी यही कहा करते थे।
इसके तुरंत बाद आदिवासियों को महाश्वेता देवी के रचना संसार से परिचित कराने के लिए उनके सारे उपन्यासों और कहानियों पर हमने दैनिक आवाज में धारावाहिक लिखा दैनिक आवाज के रविवारीय पृष्ठ में। हमारे जाने के बाद श्याम बिहारी श्यामल ने आवाज में यह परंपरा जारी रखी। तब कवि अरविंद चतुर्वेद भी आवाज में थे।
श्यामल ने लगातार तीन साल तक दैनिक आवाज का प्रकाशन स्थगित होने तक आवाज में मेरा इंटरएक्टिव उपन्यास अमेरिका से सावधान प्रकाशित किया। उसके बाद जमशेदपुर में चमकता आइना में यह उपन्यास धारावाहिक छपा।
जंगल के दावेदार और महाश्वेता दी के दूसरे उपन्यासों में तथ्यों और विवरण बहुत ज्यादा है। डॉक्यूमेंटेशन की बहुलता के लिए बांग्ला साहित्य में लम्बे अरसे तक उन्हें नजरंदाज किया जाता रहा। तब तक, जब तक न उन्हें बाकी देश और दुनिया में प्रतिष्ठित मन लिया गया। टैगोर को भी नोबेल पुरस्कार मिलने तक नजरंदाज किया जाता रहा। हिंदी में भी सत्तर के दशक से पहले प्रेमचंद पर गंभीरता से चर्चा नहीं हुई। डॉक्टर कुंवर पाल सिंह और डॉक्टर भारत सिंह ने पहल की। उत्तरार्द्ध और सव्यसाची ने भी अपनी भूमिका निभाई।
महाश्वेता देवी का ही असर था कि अमेरिका से सावधान और मेरी कहानियों में डॉक्यूमेंटेशन इतना ज्यादा था।
Braju wiki, CC BY-SA 4.0, via Wikimedia Commons
अपनी भाषा के प्रति बेहद सजग थे नबारुन भट्टाचार्य
इसके विपरीत नबारुन भट्टाचार्य अपनी भाषा के प्रति बेहद सजग थे। उनके उपन्यासों के पत्र हाशिए पर सतह से नीचे के लोग थे। उन्हीं की अंडरक्लास अभद्र भाषा का Nabarun Bhattacharya (23 June 1948 – 31 July 2014) ने धडल्ले से इस्तेमाल किया। खासकर हरबर्ट, faitadu और कंगल मलसत (KANGAL MALSAT ) में। लेकिन उनकी रचना में एक फालतू शब्द नहीं होता था और न डॉक्यूमेंटेशन। महाश्वेता दी के शब्दों में बहुत खच्चर लेखक थे नवारुण जो एक गैर जरूरी अक्षर का इस्तेमाल नहीं करता, वहीं कोई जरूरी ब्यौरा को मिस भी नहीं करता।
यही महाश्वेता दी भाषा, वर्तनी और व्याकरण के मामले में बेहद सख्त थीं। वैसे भी बंगाली और मराठी लोग अपनी मातृभाषा के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील होते हैं। किसी भी तरह की मुद्रित या सार्वजनिक प्रदर्शन की सामग्री पंफलेट, साइन बोर्ड या निमंत्रण पत्र में भी वर्तनी, व्याकरण और भाषाई त्रुटि को बंगाली अपनी मातृभाषा का अपमान मानते रहे हैं, नई वाली हिंदी हिंग्लिश की तर्ज पर बंगलिश के प्रचलन से पहले तक।
वे भाषा बंधन की प्रधान संपादक थीं। नबारून दा संपादक। हम लोग संपादकीय में। वर्तनी, व्याकरण और भाषाई त्रुटि पर वे हम सबकी क्लास लेती। सबसे ज्यादा डांट नबारून दा को पड़ती।
हम उनसे रोज कुछ न कुछ सीखते रहते थे। भाषा, साहित्य, समाज और आंदोलन के बारे में।
वे अरण्य की मन थीं। आदिवासियों की भी। उन्हीं की वजह से हम आदिवासी समाज के अंग बन सके।
वे आंदोलनों की भी मन थीं।
उनकी स्मृति को प्रणाम।
पलाश विश्वास
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