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India is a pluralistic country with many religions
भारत अनेक धर्मों वाला बहुवादी देश है। हिन्दू धर्म के मानने वालों का यहाँ बहुमत है परन्तु इस्लाम और ईसाई धर्म में आस्था रखने वालों की संख्या भी कम नहीं है। हमारे स्वाधीनता संग्राम के नेता (Leaders of our freedom struggle) सभी धर्मों को बराबरी का दर्जा देते थे परन्तु सांप्रदायिक ताकतें (Communal forces), ईसाइयत और इस्लाम (Christianity and Islam) को विदेशी मानती थीं। पिछले कुछ समय से सभी धर्मावलम्बियों पर हिन्दू का लेबल चस्पा करने का फैशन चल पड़ा है। ईसाईयत और इस्लाम के बारे में सांप्रदायिक ताकतों का नजरिया (Communal forces' view of Christianity and Islam) बदलता रहा है। जहाँ आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर उन्हें हिन्दू राष्ट्र का ‘आंतरिक शत्रु’ ('Internal enemy' of Hindu nation) बताते थे वहीं बाद के कुछ हिंदुत्व विचारकों ने मुसलमानों और ईसाईयों को ‘हिन्दू’ बताते हुए इस शब्द को भौगोलिक अर्थ देने का प्रयास किया।
भाजपा के डॉ मुरली मनोहर जोशी मुसलमानों के लिए अहमदिया हिन्दू और ईसाईयों के लिए क्रिस्टी हिन्दू शब्द का इस्तेमाल करते थे।
संघ के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत ने कई मौकों पर कहा है कि हिंदुस्तान के सभी निवासी हिन्दू हैं।
दरअसल ये सारी बातें हवाई हैं। सच यह है कि मुसलमानों और ईसाईयों को हमारे देश में न केवल विदेशी धर्मों का अनुयायी माना जाता है वरन उनके खिलाफ नफरत भी फैलाई जाती है। इतिहास की चुनिन्दा घटनाओं के हवाले से उनके बारे में गलत धारणाएं फैला कर इन दोनों धर्मों के लोगों को घृणा का पात्र बनाया जा रहा है।
The Constitution of India stems from our freedom struggle.
भारत का संविधान हमारे स्वाधीनता संग्राम से उपजा है। यह हमारे गणतंत्र की नींव है और हमारे प्रजातान्त्रिक मूल्यों का रक्षक है। संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से सम्बंधित प्रावधानों का वर्णन है। हम सबको अपने-अपने धर्मों में आस्था रखने, उनका आचरण करने और उनका प्रसार करने का मूल अधिकार है। जिस तरह नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म में आस्था रखने का अधिकार है उसी तरह उन्हें किसी भी धर्म में आस्था न रखने का अधिकार भी है। अर्थात वे नास्तिक या अनीश्वरवादी भी हो सकते हैं।
हमारा संविधान देश के सभी नागरिकों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है परन्तु व्यावहारिक धरातल पर पिछले कुछ सालों से देश में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार कमज़ोर पड़ा है। देश के 28 में से नौ राज्यों में धर्मपरिवर्तन निषेध कानून लागू कर दिए गए हैं। मुंबई, गुजरात और मुज्जफरनगर में हुए भयावह सांप्रदायिक दंगों की याद हम सबके दिमाग में आज भी एक दुखद स्मृति के तौर पर जिंदा है। पास्टर ग्राहम स्टेंस की हत्या और कंधमाल हिंसा को क्या हम भूल सकते हैं?
हाल में दिल्ली में हुए दंगों में लगभग 52 व्यक्ति मारे गए। इनमें से अधिकांश निर्दोष थे। इनमें से तीन-चौथाई मुसलमान थे। देश के अलग-अलग भागों में समय-समय पर ईसाई-विरोधी हिंसा होती रहती है। इस तरह की घटनाओं में हाल के वर्षों में वृद्धि हुई है। कुछ संस्थाएं और व्यक्ति सांप्रदायिक घटनाओं का लेखाजोखा रखते हैं।
मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म (Mumbai-based Center for Study of Society and Secularism) प्रत्येक वर्ष होने वाली सांप्रदायिक हिंसा का विश्लेषणात्मक अध्ययन (Analytical study of communal violence) प्रकाशित करता है। अलायन्स डिफेंडिंग फ्रीडम जैसे कुछ अन्य संगठन भी धार्मिक स्वातंत्र्य के अधिकार के उल्लंघन की घटनाओं को हमारे ध्यान में लाने का अहम कर्त्तव्य निभाते हैं। कई अन्य संगठन, समूह और व्यक्ति भी यह काम कर रहे हैं परन्तु उनके बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है।
हाल में अमरीकी विदेश विभाग ने भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर एक रपट सार्वजनिक की है। इस रपट के मुख्य निष्कर्षों की चर्चा करने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अमरीका सहित दुनिया के अनेक देशों के विभिन्न संगठन इस तरह की रपटें प्रकाशित करते रहते हैं परन्तु इन देशों की सरकारों की नीतियों पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
यद्यपि अमरीका के कई राष्ट्रपति अलग-अलग मौकों पर दुनिया के इस या उस भाग में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चिंता व्यक्त करते रहे हैं परन्तु यह मानना गलत होगा कि अमरीका की विदेश नीति के निर्धारण में इस मुद्दे की कोई भूमिका होती है।
मानवाधिकार उल्लंघन के चंद ही मामलों में अमरीका की सरकार ने कार्यवाही की है - जैसे गुजरात कत्लेआम के बाद 2002 में अमरीका ने नरेन्द्र मोदी को वीज़ा देने से इंकार कर दिया था। परन्तु अधिकांश मामलों में किसी देश के प्रति अमरीका के रुख का निर्धारण इससे नहीं होता कि वहां मानवाधिकारों या धार्मिक स्वातंत्र्य की स्थिति कैसी है। बल्कि अमरीका स्वयं मानवाधिकारों का मखौल बनाता आया है। अबू गरीब और ग्वांतनामो बे जेल इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
अतः अमरीकी संगठनों द्वारा जारी इस तरह की रपटों को कितना महत्व दिया जाए इस बारे में अलग-अलग राय है। परन्तु मोटे तौर पर ये रपटें संबंधित देश की स्थिति का वर्णन तो करती हैं और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले संगठनों को दिशा भी देती है।
अमेरिकी विदेश विभाग के अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता कार्यालय (US Department of State International Religious Freedom Office) ने 10 जून को जारी वर्ष 2019 की अपनी रिपोर्ट में भारत में धार्मिक स्वातंत्र्य के अधिकार के उल्लंघन की घटनाओं का वर्णन किया है। यह रपट भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर विस्तार से और व्यवस्थित ढंग से प्रकाश डालती है। रपट में मुसलमानों, ईसाईयों और दलितों को भारत में पेश आने वाली परेशानियों का विवरण दिया गया है, विशेषकर धर्म से जुड़ी हत्यायों, हिंसक हमलों, भेदभाव और लूटपाट का। रपट में भारत के गृह मंत्रालय के आंकड़े दिए गए गए हैं जिनके अनुसार 2008 से 2017 के बीच देश में सांप्रदायिक हिंसा की 7,484 घटनाएं हुईं, जिनमें 1,100 लोग मारे गए।
रपट में मुसलमानों, ईसाईयों और दलितों की लिंचिंग की दिल दहलाने वाली घटनाओं का विवरण दिया गया है। “लिंचिंग की घटनाएं अपने आप में नृशंस हैं परन्तु अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए इससे भी अधिक चिंताजनक है वह भड़काऊ प्रचार जो मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा बन गया है,” रपट कहती है। ओपन डोर सहित कई अन्य जानेमाने संगठन देश में ईसाईयों की सुरक्षा की स्थिति की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। “वर्तमान सत्ताधारी दल के 2014 में सत्ता सम्हालने के बाद से ईसाईयों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं बढीं हैं। हिन्दू अतिवादी अक्सर ईसाईयों पर हमले करते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ता।”
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लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं
अमरीकी विदेश विभाग का एक दल हालात को गहराई से समझने के लिए भारत का दौरा करना चाहता था परन्तु उसे इस आधार पर वीज़ा नहीं दिया गया कि भारत इन मामलों में बाहरी तत्वों की सोच को महत्व नहीं देता। आज की वैश्वीकृत दुनिया में क्या ऐसा संभव है? हम अपनी कमियों और भूलों को आखिर कब तक परदे के पीछे छुपाये रख सकते हैं। अगर हमारे पास छुपाने के लिए कुछ नहीं है तो हमें इस तरह के संगठनों का स्वागत करना चाहिए और उनसे सीखना चाहिए।
यह भी महत्वपूर्ण है कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन (Violation of right to religious freedom), हमारे संविधान का उल्लंघन भी है।
हमारे संविधान के अनुसार धार्मिक स्वातंत्र्य की रक्षा करना राज्य का कर्त्तव्य है। साम्प्रदायिकता के बढ़ते क़दमों का नतीजा यह है कि जो लोग धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने हैं उन पर कोई कार्यवाहीं नहीं होती। हमें एक मानवीय भारत की ज़रुरत है जिसमें विविधता को केवल सहन न किया जाये वरन उसका उत्सव मनाया जाए। यही विविधता एक समय हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम की सबसे बड़ी ताकत थी।
प्रो. राम पुनियानी
(हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)