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India is still a country of villages. Those who led the freedom struggle were understood by this very rule.
बदलाव का सपना देखने वाले लोग न जाने क्यों भूल जाते हैं कि भारत अब भी गांवों का देश है। आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वालों ने इस बहुत कायदे से समझा था। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ग्रामीण भारत में प्रतिरोध की सुनामी पैदा हो गई थी।
इसके विपरीत गांवों को सिरे से भुलाकर शहरों और खास तौर पर राजधानियों से देश की कारपोरेट पूंजीवादी मनुस्मृति व्यवस्था को बदल देने की खुशफहमी में हैं हम।
The economic condition of the villages is not reflected in the glow of consumerism due to market and urbanization.
गांवों की आर्थिक स्थिति बाजार और शहरीकरण की वजह से उपभोक्तावाद की चमक दमक में नज़र नहीं आती जबकि किसान थोक भाव से आत्महत्या कर रहे हैं। अपनी जमीन से बेदखल होकर अपने ही देश में शरणार्थी बन रहे हैं। दलित, आदिवासी और पिछड़े भारी तादाद में रोज़गार और आजीविका से बेदखल हैं। उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण आरक्षण खत्म करने का चाक चौबंद इंतज़ाम है।
Automation and Artificial Talent, Ending Employment with Robotics and Quantum Technology
हर सेक्टर में प्राइवेट सेक्टर है। सरकार प्राइवेट सेक्टर की है। प्राइवेट सेक्टर न रोज़गार देता है और न रोज़गार।
प्राइवेट सेक्टर आरक्षण क्या स्थाई नौकरी तक नहीं देता, छंटनी करता है। आटोमेशन और आर्टीफिशियल टैलेंट, रोबोटिक्स और क्वांटम टेक्नोलॉजी से रोज़गार खत्म कर रहा है।
गांवों में अब न खेत है और न रोज़गार। हर गावँ में भव्य मंदिर जरूर बन गया है। राममंदिर और हर गावँ का मंदिर हर चीज का हिन्दुत्वकरण कर चुका है। पूरा तन्त्र इसके शिकंजे में हैं। संविधान सिर्फ राजनीति के लिए है जबकि देश और समाज मनुस्मृति के कुलीन एकाधिकार वर्चस्व से चलता है। यह एकाधिकार राजकाज, अर्थ व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति, शिक्षा, न्यायपालिका, मीडिया, कला से लेकर बदलने की कोई कोशिश नहीं हुई।
आजादी से पहले देश अनपढ़ जरूर था, लेकिन धर्मांध हरगिज़ नहीं।
आज देश जितना पढ़ा लिखा है, जितनी तकनीक से लैस है, उतना ही ज्ञान विज्ञान से दूर है।
विकास के नाम धर्म का अफीम बांटकर पूंजीवाद, सामन्तवाद और साम्राज्यवाद को मजबूत किया जाता रहा है। कारपोरेट एकाधिकार से देश विदेशी पूंजी और हुकुमत का उपनिवेश बन गया है।
पहले सामान्य बुद्धि, विवेक और ईमानदारी गांवों की पूंजी थी। आज तकनीक, राजनीति और बाजार की महिमा से हर गावँ हिंदुत्व राष्ट्रवाद, धर्मांध साम्प्रदायिकता, नशा, जुआ का अजेय किला बन गया है। यह क़िलाबन्दी 1947 से कांग्रेस के सामंती कुलीन नेता कर रहे थे, जिसे संघ परिवार ने अब इतना मजबूत कर दिया है कि शहरों के शाहीनबाग की कोई गूंज गांवों में नहीं है।
संघ परिवार ने दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, किसानों, मज़दूरों, स्त्रियों, छात्रों और युवाओं को नरसंहारी मुक्तबाजारी हिंदुत्व की पैदल सेना बना दिया है।
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जन्म 18 मई 1958
एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय
दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक।
उपन्यास अमेरिका से सावधान
कहानी संग्रह- अंडे सेंते लोग, ईश्वर की गलती।
सम्पादन- अनसुनी आवाज - मास्टर प्रताप सिंह
चाहे तो परिचय में यह भी जोड़ सकते हैं-
फीचर फिल्मों वसीयत और इमेजिनरी लाइन के लिए संवाद लेखन
मणिपुर डायरी और लालगढ़ डायरी
हिन्दी के अलावा अंग्रेजी औऱ बंगला में भी नियमित लेखन
अंग्रेजी में विश्वभर के अखबारों में लेख प्रकाशित।
2003 से तीनों भाषाओं में ब्लॉग
हम तेज़ आर्थिक, औद्योगिक, शहरी, तकनीकी विकास की चकाचौंध में गांवों के इस कायाकल्प की, नए सिरे से जातियों के मजबूत होते जाने, पूरी मेहनतकश जनता के बजरंगी होते जाने की कभी फिकर ही नहीं की।
सीएए, एनपीआर और एनआरसी से सबसे ज्यादा हैरान परेशान बेदखल होंगे विभाजन पीड़ित शरणार्थी, आदिवासी और वन क्षेत्रों में रहनेवाले दूसरे लोग, स्त्रियां, किसान और मजदूर।
प्रतिरोध में सिर्फ मुसलमानों के साथ होने वाले अन्याय की चर्चा हो रही है तो प्रतिरोध में भी उनके चेहरे दिखेंगे और दिख भी रहे हैं। हम सत्ता वर्ग के धर्मांध ध्रुवीकरण, उनकी नफरत और उनकी हिंसा को सामाजिक समझ न होने की वजह से, जड़ जमीन और गांवों से कटे होने की वजह से मजबूत करते जा रहे हैं।
सीधे सत्तर के दशक के प्रतिरोध से वैदिक मनुस्मृति अंधकार युग में दाखिल हो चुके हैं और अन्तरिक्ष की कोई उड़ान हमें भविष्य की रोशनी की तरफ ले नहीं जा सकती।
पलाश विश्वास