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India vs Bharat : On one side there is multiplicity, on the other there is lack
दो सौ साल की लंबी गुलामी के बाद सन् 1947 में हमारा देश स्वतंत्र हुआ, सन् 1950 में हमने अपना संविधान अपना लिया और हम गणतंत्र बन गए। उसके बाद से भारतवर्ष ने प्रगति के कई पड़ाव पार किये हैं। देश में भारी कल-कारखाने लगे हैं, कृषि उत्पादन बढ़ा है, रिटेल क्रांति आई है, शिक्षा संस्थान बढ़े हैं, आईटी और सेवा क्षेत्र के विकास के कारण रोज़गार के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भरता घटी है और मध्यवर्ग पहले से ज्य़ादा संपन्न हुआ है। यही नहीं, अब भारतीय कंपनियां भी अधिकाधिक देशों में अपना कारोबार फैला कर अथवा विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण करके बहुराष्ट्रीय कंपनियां बन रही हैं तथा विदेशी स्टाक एक्सचेंजों में उनकी लिस्टिंग हो रही है। इतनी प्रगति के बावजूद जनता का अधिकांश भाग अभी भी वंचितों की श्रेणी में आता है। भारतवर्ष अभी भी “इंडिया” और “भारत” नामक दो हिस्सों में बंटा है। “इंडिया” ने विकास की लहर का आनंद लिया है जबकि “भारत” अभी भी पुराने ढर्रे का जीवन जी रहा है, उसके पास न वैसी सुविधाएं हैं न वैसी सोच। एक तरफ बहुलता है तो दूसरी तरफ अभाव। अर्थव्यवस्था के विकास का लाभ सब ओर समान रूप से प्रवाहित नहीं हो पा रहा है। गरीबों में गरीबी और भी बढ़ी है जबकि अमीर और भी अमीर हो रहे हैं। विकास का प्रवाह समरूप न होने से गरीबों में असंतोष बढ़ रहा है जो कभी भी ज्वालामुखी का रूप ले सकता है।
How to overcome economic inequality
बहुत से लोग इसके लिए बाजारवाद को दोषी मानते हैं। वस्तुत: आर्थिक असमानता के मूल में पूंजीवाद नहीं है। साम्यवादी देशों में भी आर्थिक असमानता (Economic inequality even in communist countries) की कमी नहीं है। सच तो यह है कि अमीरों की अमीरी बढ़ने और गरीबों की गरीबी बढ़ने में शासन व्यवस्था की भूमिका बहुत सीमित है। शासन व्यवस्था कैसी भी हो, वह अमीर को और ज्य़ादा अमीर और गरीब को और ज्य़ादा गरीब बनाने से नहीं रोक सकती। एक उदाहरण से आप इस बात को समझ सकते हैं।
मान लीजिए कुल पांच व्यक्ति एक दौड़ में हिस्सा ले रहे हों, उनमें से एक व्यक्ति पैदल हो, दूसरा साइकिल पर हो, तीसरा स्कूटर पर हो, चौथा कार पर हो और पांचवां हवाई जहाज़ पर हो तो समय बीतने के साथ-साथ प्रतियोगियों में फासला बढ़ता चला जाएगा और अंतत: पैदल चलने वाला या साइकिल पर चलने वाला पूरा ज़ोर लगाकर दौड़ते हुए भी दौड़ से बाहर होने की स्थिति में रहेगा। स्कूटर पर चलने वाले को आप निम्न मध्य वर्ग और कार पर चलने वाले को आप उच्च मध्य वर्ग मान सकते हैं। हवाई जहाज़ का खर्च उठा सकने की कूवत निश्चय ही 1 प्रतिशत लोगों तक ही सीमित रहेगी जो दौड़ में हर किसी को पछाड़ेंगे ही। अत: आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए हमें राजनीतिक व्यवस्था बदलने के बजाए सामाजिक व्यवस्था बदलने, लोगों का नज़रिया बदलने और जनसामान्य को आर्थिक रूप से शिक्षित करने की आवश्यकता है।
How to enable the poor
सवाल यह है कि गरीबों को इतना समर्थ कैसे बनाया जाए कि वे अपने लिए सम्मानप्रद रोज़ी-रोटी का जुगाड़ कर सकें। वे न केवल वे दो जून का भोजन कर सकें बल्कि समाज में उनका स्थान हो, वे अपने बच्चों को शिक्षित कर सकें और उन्हें आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हों। गरीबों को रोटी या पैसा देने मात्र से यह समस्या नहीं सुलझेगी। इसके लिए सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट की आवश्यकता है जिसमें उन लोगों की हिस्सेदारी हो जिन्हें वाजिब लागत पर भोजन नहीं मिलता, सार्वजनिक परिवहन नहीं मिलता, अस्पताल की सुविधा नहीं मिलती, या जिनके पास घर नहीं हैं। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।
जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था।
इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग वंचितों को समर्थ बनाने और देश के विकास में लगता है। पंूजीपतियों द्वारा, धर्मशालाएं, स्कूल, कालेज, अस्पताल, गरीबों, दलितों और वंचितों की पढ़ाई और रोज़गार के साधनों का विकास आदि सहृदय पूंजीवाद के उदाहरण हैं।
There is a complete lack of proper economic education in our country.
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वस्तुत: हमारे देश में सही आर्थिक शिक्षा न होने से भी गरीब लोग गरीब रह जाते हैं और मध्यवर्गीय लोग भी अपने स्तर से ज्य़ादा ऊपर नहीं जा पाते। आज हमारे देश की शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को अपने पैसे को काम में लाना और पैसे से पैसा बनाना नहीं सिखाती। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। फिर भी उद्यमियों में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो पैसे को काम में लेना नहीं जानते। बहीखाता बना लेना या शेयर और म्युचुअल फंड की जानकारी होना अलग बात है, और पैसे को काम में लाना तथा पैसे से पैसा बनाना अलग बात है। यही कारण है कि मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि हमारे देश में सही आर्थिक शिक्षा का पूर्ण अभाव है।
समग्र सामाजिक विकास के लिए समाज के दोनों वर्गों को अपना-अपना दृष्टिकोण बदलना होगा।
अमीरी की दौड़ में पीछे चल रहे लोगों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो अमीर होना चाहता है पर अमीरों से घृणा करता है। दुर्भाग्यवश गरीब लोग अमीरों की मेहनत और काबलियत से सीखने के बजाए उनसे घृणा करते हैं और अमीर लोग गरीबों को अपने सामने कुछ नहीं समझते। हमें यह भी समझ लेना चाहिए यह आवश्यक नहीं है कि जब तक उग्र विरोध प्रदर्शन न हों, गुस्से का इज़हार न किया जाए, तब तक समस्या की उपेक्षा करते रहें, इसके विपरीत सच तो यह है कि किसी समस्या के रोग बनने से पहले ही उसका निदान कम दुखदायी और ज्य़ादा कारगर होता है। अब समय आ गया है कि आर्थिक असमानता दूर करने के लिए गंभीर प्रयास आरंभ हो जाएं, तभी समाज से गरीबी दूर होगी और देश का विकास होगा।
पी.के. खुराना
लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।