महंगाई डायन से सुरसा हुई, सरकार कुंभकर्ण!

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hastakshep
24 Oct 2021
महंगाई डायन से सुरसा हुई, सरकार कुंभकर्ण!

Inflation rose, government Kumbhakarna!

दुहरा व्यंग्य है सुरसा में

सोशल मीडिया में इधर एक व्यंग्यात्मक प्रश्न बार-बार सुनने को मिल रहा है। महंगाई डायन तो पहले हुआ करती थी, अब क्या सुरसा नहीं हो गयी है! सुरसा में दुहरा व्यंग्य है। एक तो सुरसा की पहचान, अपना मुंह अनंत तक फैलाकर, कुछ भी निगल सकने वाली राक्षसी की है। दूसरे, इस रूपक में मिथक की प्राचीनता तथा धार्मिकता का छोंक भी है।

हर रोज बढ़ रहे जरूरी सामान के दाम

डायन से सुरसा होने का यह रूपक, इस समय जनता को पीस रही महंगाई के दोनों पहलुओं पर रौशनी डालता है। पहला तो यही कि खाने-पकाने के तेल, साग-सब्जी, दाल, दूध, अंडा, आटा, दाल, साबुन, दवा आदि, आदि हर चीज के और सबसे बढ़कर ईंधन के तेल व परिवहन के दाम, हर रोज और बेहिसाब बढ़ रहे हैं।

दूसरा यह कि आम आदमी को पीस रही इस बेहिसाब महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार कोई प्रयत्न करती तो खैर नजर नहीं ही आ रही है, इस तरह उनकी थाली में से निवाले छिनने को ही एक मामूली बात या गैर-प्रश्न बनाने की कोशिश की जा रही है।

एक जमाना था जब प्याज-टमाटर के भाव चढ़ने पर सरकारें बाकी दस काम छोड़कर उनके दाम नीचे लाने के लिए सक्रिय हो जाती थीं क्योंकि ये दाम सरकारें बदलवा देते थे। लेकिन, आज। महंगाई, व्यक्तिगत हैसियत से आम लोगों को चाहे कितना ही निचोड़ रही हो, सार्वजनिक बहस से एकदम बाहर ही है। शाहरुख खान के बेटे के कथित नशायुक्त पार्टी के इरादे से लेकर, कथित गरबा जेहाद तक और अफगानिस्तान में महिला अधिकार तथा बंग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमले तक, सब के लिए सार्वजनिक बहस में खूब जगह है, बस महंगाई के लिए और उसी प्रकार बेरोजगारी आदि, मेहनत-मशक्कत की रोटी खाने वालों की जिंदगी पर सीधे असर डालने वाले सवालों के लिए ही जगह नहीं है। 

यह किसी से छुपा नहीं है कि इसका सीधा संबंध, सार्वजनिक बहस के सभी साधनों और खासतौर पर मीडिया पर और छापे के तथा इलैक्ट्रोनिक, दोनों तरह के मीडिया पर, मौजूदा सत्ता-प्रतिष्ठान के ऐसे अभूतपूर्व नियंत्रण से है, जैसा नियंत्रण आजादी के बाद इससे पहले किसी भी सत्ता-प्रतिष्ठान को हासिल नहीं रहा था। इस अर्थ में इमर्जेंसी में भी नहीं कि वहां खबरों पर नकारात्मक रोक तो थी, लेकिन लोगों का ध्यान ही भटकाने के लिए, वैकल्पिक सत्ताहितकारी सार्वजनिक बहसों से खाली जगह को भरने की सामथ्र्य नहीं थी।

मीडिया और उसके जरिए, सार्वजनिक बहस पर मौजूदा सत्ता-प्रतिष्ठान का लगभग मुकम्मल नियंत्रण संभव बनाया है, मीडिया पर लगभग मुकम्मल कार्पोरेट नियंत्रण ने।

बहरहाल, सोशल मीडिया को छोड़कर, बाकी तमाम मीडिया पर लगभग मुकम्मल कार्पोरेट नियंत्रण, नवउदारवादी नीतियों के अपनाए जाने के जिस फिनामिना का नतीजा है, वही फिनामिना एक सिरे पर मौजूदा सत्ता-प्रतिष्ठान और कार्पोरेटों के हितों को एक-दूसरे से जोड़ता है और दूसरे सिरे पर आम जनता के हितों के हरेक तकाजे को बाजार के यानी कारोबारी मुनाफे के नियमों के भरोसे छोड़े जाने का तकाजा करता है। यह कोई संयोग नहीं है जिन तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग को लेकर किसान दस महीने से ज्यादा से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हुए हैं, उनमें एक कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम को निष्प्रभावी बनाकर, निजी कारोबारियों को आवश्यक वस्तुओं के  भंडार जमा करने की खुली छूट देने के लिए ही है।

हालांकि, बेहिसाब बढ़ती कीमतों को देखते हुए, सरकार को दालों के निर्यात/ भंडारण पर अंकुश के कुछ कदम उठाने पड़े हैं, लेकिन इन कदमों का नाकाफी होना स्वयंसिद्घ है। इसके बावजूद, मोदी सरकार अन्य विवादित कृषि कानूनों की तरह, इस कानून पर अड़ी हुई है, जबकि इस कानून में कीमतों में अचानक बेहद बढ़ोतरी की आपात स्थिति में ही सरकार के हस्तक्षेप की गुंजाइश छोड़ी गयी है, दामों में जिससे कम बढ़ोतरी की स्थिति में सरकार कुछ कर ही नहीं सकती है। यह नवउदारवादी व्यवस्था के उस आम तकाजे के ही अनुरूप है, जो सब कुछ बाजार के भरोसे ही छोड़े जाने की मांग करता है।

यह मांग की तो इसके दावे के आधार पर जाती है कि बाजार नियम ही सबके हित में पूरी आर्थिक व्यवस्था को बेहतर तरीके से संचालित करते हैं, लेकिन वास्तव में इन नियमों को वहीं तक चलने दिया जाता है, जहां तक वे मेहनतकशों की कीमत पर, कार्पोरेटों की कमाई बढ़ाते हैं। लेकिन, जहां बाजार के नियम खुद कार्पोरेटों के हितों के खिलाफ जाते नजर आते हैं, उन्हें उठाकर ताक पर रखने में भी नवउदारवादी व्यवस्था को कोई संकोच नहीं होता है। डुबाऊ ऋणों का भारी संकट और उसे कम करने के लिए सरकार द्वारा बार-बार लाखों करोड़ रुपए के कर्ज सीधे-सीधे माफ किए जाने से लेकर, दीवालों के समाधान के नाम पर, बैंकों से बकाया का बड़ा हिस्सा छुड़वाया जाना तक, इसके आंखें खोलने वाले उदाहरण हैं।

साफ है कि बाजार के नियम तभी तब अच्छे हैं, जब तक वे आम आदमी की थाली से छीनकर निवाला, कार्पोरेटों की तिजोरी में भरते हैं। कार्पोरेट ही डूबने लगें तो उनके लिए तुरंत, नवउदारवादी निजाम भी बचाव पैकेज की मांग करने लगता है।

फिर भी, महंगाई का मौजूदा विस्फोट सिर्फ जनता के जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कीमतें ‘‘बाजार के भरोसे’’ छोड़े जाने का ही मामला नहीं है। उल्टे इस महंगाई की मुख्य चालक तो पैट्रोल, डीजल तथा अन्य तेल उत्पादों की कीमतें हैं। और इन कीमतों का निर्धारण नाम के वास्ते, तेल कंपनियों पर ही छोड़े जाने के बावजूद, सचाई यह है कि वर्तमान निजाम ही तेल उत्पादों की कीमतों को लगातार बढ़ा रहा है।

यह सच है कि भारत में तेल की खुदरा बाजार की कीमतों में एक बड़ा हिस्सा, अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों से तय होता है, क्योंकि भारत अपनी जरूरत के तीन-चौथाई से ज्यादा कच्चे तेल के आयात पर निर्भर है। नवउदारवादी व्यवस्था के अपनाए जाने के साथ ही, तेल उत्पादों के नियंत्रित दाम की व्यवस्था को खत्म करने की जो यात्रा शुरू की गयी थी, उसमें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में शोधित तेल से तुल्यता का पैमाना अपनाने के जरिए, शुरू से ही यह सुनिश्चित किया जा रहा था कि न सिर्फ तेल पर सब्सिडी खत्म हो जाए बल्कि तेल से सरकार को कुछ न कुछ फालतू आय हो।

बहरहाल, मौजूदा सरकार ने तेल को ऐसी दुधारू गाय बना दिया है, जिसे करों में बढ़ोतरी की मशीन के जरिए, अपने राजस्व के लिए वह बेहिसाब दुह सकती है।

एक अनुमान के अनुसार इस सरकार के सात साल के राज में, 23 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व, तेल उत्पादों पर करों में बढ़ोतरी से ही बटोरा गया है।

अचरज की बात नहीं है कि ट्रोल-डीजल के दाम सैकड़ा पार चुके हैं या रसोई गैस के दाम में महामारी के दौरान ही तीन सौ रुपए की बढ़ोतरी हो गयी है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इन तेल उत्पादों के दाम में बढ़ोतरी, कृषि से लेकर औद्योगिक मालों तथा सेवाओं तक, हर तरह के उत्पादन की लागत में जुड़ती है और हर चीज के दाम में बढ़ोतरी के लिए दबाव बनाती है। इसीलिए, अर्थशास्त्र की भाषा में तेल उत्पादों को यूनिवर्सल इंटरमीडियरी कहा जाता है। तेल उत्पादों का यही ऊंचा दाम, जिसमें आधा हिस्सा करों का है, महंगाई के मौजूदा विस्फोट को संचालित कर रहा है।

Inflationary exploitation of oil taxes as a source of revenue

लेकिन, राजस्व के स्रोत के रूप में तेल करों का ऐसा महंगाई बढ़ाने वाला दोहन भी, नवउदारवादी नीति के प्रति मोदी सरकार की अंधभक्ति का ही नतीजा है। नवउदारवादी नीति का ही तकाजा है कि करोना से उत्पन्न संकट समेत, आर्थिक संकट से निकलने के लिए, कार्पोरेटों को ज्यादा से ज्यादा कर रियायतें तथा छूटें दी जाएं, ताकि उन्हें निवेश करने के लिए प्रेरित किया जा सके। दूसरी ओर, उदारवादी नीति का ही तकीजा है कि राजस्व घाटा तय सीमा से बढऩे नहीं दिया जाए, वर्ना वित्तीय पूंजी अपने मुनाफों में कमी की आशंका से नाखुश हो जाएगी। ऐसे में मोदी सरकार, राजस्व के लिए तेल को ही ज्यादा से ज्यादा दुहने में लगी है। बेशक, ऐसा वह इसलिए भी कर पा रही है कि उसे भरोसा है कि वह बढ़ती कीमतों की तकलीफ से जनता का ध्यान बंटाने के लिए, कोई न कोई तमाशा खड़ा कर ही लेगी। आखिर, मीडिया उसकी जेब में है।                                                                                                  

  0 राजेंद्र शर्मा





Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

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