कैसी संवेदनहीन दुनिया बना दी है इस तकनीक ने? जो वीडियो नहीं बना पा रहे, खुद को लाइव नहीं दिखा पा रहे, क्या हम जानते हैं कि वे ज़िंदा हैं या मर रहे हैं?

hastakshep
09 Jun 2020
कैसी संवेदनहीन दुनिया बना दी है इस तकनीक ने? जो वीडियो नहीं बना पा रहे, खुद को लाइव नहीं दिखा पा रहे, क्या हम जानते हैं कि वे ज़िंदा हैं या मर रहे हैं?

कोरोना काल में महान विभूतियों की लाइव भूमिका पर अभिषेक श्रीवास्तव के लिखे पर प्रतिक्रिया नोट किया जाए।

पलाश विश्वास जन्म 18 मई 1958 एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक। उपन्यास अमेरिका से सावधान कहानी संग्रह- अंडे सेंते लोग, ईश्वर की गलती। सम्पादन- अनसुनी आवाज - मास्टर प्रताप सिंह चाहे तो परिचय में यह भी जोड़ सकते हैं- फीचर फिल्मों वसीयत और इमेजिनरी लाइन के लिए संवाद लेखन मणिपुर डायरी और लालगढ़ डायरी हिन्दी के अलावा अंग्रेजी औऱ बंगला में भी नियमित लेखन अंग्रेजी में विश्वभर के अखबारों में लेख प्रकाशित। 2003 से तीनों भाषाओं में ब्लॉग पलाश विश्वास

अभिषेक, तुम ने तो सोने की लंका में आग लगा दी है। यह वक्त सच का सामना करने और बिना लाग लपेट के सच कहने का है। मुझे खुशी है कि तुम वही कर रहे हो। मेरे लिए प्रतिष्ठा और कैरियर कभी बड़ी चीज नहीं थी। हम हमेशा अपनी शोषित, उत्पीड़ित, मेहनतकश, जनता के साथ खड़े होने की कोशिश की है। नागरिकता और श्रम कानून जैसे क़ानूनों को बदलकर जिन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है, उन्हीं के साथ खड़ा होने के लिए महानगर की माया छोड़कर अपने गांव चला आया और लोग इसे मेरी मूर्खता मानते हैं। मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है कि लोग मेरे पोस्टर लगाए। पोस्टर लगाने वाले कौन होते हैं, हम जानते हैं। हम तो नियमगिरि और मरीचझांपी के साथ खड़े हैं और खड़े रहेंगे।

हमारे लिए कोई मूर्ति कितनी भव्य और ऊंची है, इसका कोई मायने नही है क्योंकि किसी ईश्वर में मेरी आस्था नहीं है। हमारी आस्था मनुष्य में हैं। जो मनुष्य नहीं है, वह मेरे लिए दो कौड़ी का नहीं है।

धन्यवाद कटु सत्य लिखने के लिए।

पलाश विश्वास

पढ़ें – अभिषेक श्रीवास्तव ने किया लिखा -

अभिषेक श्रीवास्तव अभिषेक श्रीवास्तव

“आज राहुल गांधी ने पत्रकार अजय झा का एक वीडियो ट्वीट किया। पुण्य प्रसून ने भी किया। अब तक उस वीडियो के हज़ारों ट्वीट हो चुके हैं। अजय झा Go News में काम करते हैं। रिपोर्टर हैं। उनके परिवार में दो मौतें हो चुकी हैं। दो बच्चियां, बीवी, सब करोना पॉजिटिव हैं। अजय झा एकदम टूटे हुए लग रहे थे। तकरीबन मौत के इंतजार में, मदद की फरियाद करते हुए। उन्होंने वीडियो जारी किया, तब हमें पता चला। जो वीडियो नहीं बना पा रहे, खुद को लाइव नहीं दिखा पा रहे, क्या हम जानते हैं कि वे ज़िंदा हैं या मर रहे हैं?

करोना एक चीज़ है। इस पर किसी का कोई बस नहीं। दुनिया करोना के बगैर भी दुखी है। अपने अपने तरीके से। दर्जनों लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी, एक्टिविस्ट ज़िन्दगी में पहली बार खुद को फंसा हुआ पा रहे हैं। सारी प्रतिबद्धता और दृढ़ता, परिस्थितियों के आगे दम तोड़ रही है। माहौल में असम्पृक्तता ऐसी गहरी है कि इन तमाम दुखी लोगों को निजी रूप से जानने वाले अपेक्षाकृत सुविधासंपन्न लोग दूसरी ही दुनिया में रमे हुए हैं। कोई कविता सुना रहा है, कोई उपदेश दे रहा है, कोई कहानी पढ़ रहा है, और ये सब कुछ ऐसी अर्जेंसी के साथ गोया अब लाइव नहीं हुए तो जाने कभी हो पाएं या नहीं। इधर भी डर ही काम कर रहा है, लेकिन थोड़ा मेलोड्रामा और महत्वाकांक्षा के साथ।

किसने सोचा था कि मैनेजर पांडेय, नरेश सक्सेना, आलोक धन्वा, अष्टभुजा शुक्ल जैसे हमारे प्रिय बुजुर्गों को फेसबुक लाइव के धंधे में लोग खींच लाएंगे। आप सोचिए एक बार, इन्हें लाइव पर ज्ञान देते, कविता पढ़ते, देखने वाले किसी नौजवान बेरोजगार लेखक के मन में कैसा भाव आता होगा? नौजवान सुसाइड के भाव से भरा हुआ है और उसका प्रिय कवि काव्य पाठ मचाए हुए है! कैसी संवेदनहीन दुनिया बना दी है इस तकनीक ने? जो लोग इस धंधे के पीछे मौजूद हैं, क्या उन्हें वाकई इस बात की चिंता नहीं है कि अगले महीने का कमरे का किराया कैसे जाएगा और राशन कैसे आएगा?

संभव है, न हो। ज़्यादातर बूढ़े लेखक या तो मास्टरी से रिटायर पेंशनधारी हैं, या किसी का बेटा बेटी विदेश में है। उनके पीछे टहोका लगाने वाले ज़्यादातर प्रौढ़ लेखक मास्टर हैं या पक्की नौकरी में हैं। किसी की तनख्वाह नहीं रुकी है इस बीच। सब मंगल मंगल है। हर तरफ शब्दों का खोखला जंगल है। किसी को किसी के कहे पर अहा अहा करते देखिए। कोई किसी का लिखा पोस्टर बनाए दे रहा है, उसमें उगता लाल सूरज देखिए। एकदम इलाहाबादी अमरूद की तरह। बाहर से लाल, भीतर से कसैला। किनाहा।

हिंदी के बौद्धिक परिवेश में ये दौर वर्ग विभाजन का दौर होगा। कल जब दूसरी दुनिया के प्रवेश द्वार पर हम खड़े होंगे, तो ज़िन्दगी की धूल चाट के वहां तक घिसटता हुआ पहुंचा भूखा प्यासा नौजवान ही यह तय करेगा कि उस पार कौन जाएगा और कौन नहीं।

याद रखिए लेखकों पत्रकारों, इस गाढ़े वक़्त में आपका शो बिजनेस सब तरफ देखा जा रहा है। एक एक नाटक का हिसाब एक एक आदमी रख रहा है जो आपकी तरह नहीं, अपनी तरह किसी न किसी रूप में लाइव है। पैर छूने वाली, उमर का लिहाज करने वाली पीढ़ी, अब आखिरी है। आने वाली पीढ़ी की आंख में पानी नहीं होगा। फिर कविता कहानी नाटक, कुछ काम नहीं आएगा।

केवल एक कसौटी होगी। आपकी संवेदना की पहुंच किसी दुखी बिरादर तक है या नहीं, बस इतना ही नापा जाएगा। नाप कम हुआ और आप कूड़ेदान में गए। निर्ममता से। अभी भी वक़्त है। बूढ़े बुजुर्ग कवि लेखक, बुढ़ापे की दहलीज पर खड़े रचनाकर्मी, अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें। धंधेबाजों के चक्कर में आकर अपनी रही सही इज्जत ना गंवाएं। दुनिया बदली, और नौजवान अपनी भूख सहकर ज़िंदा रहा, तो धंधेबाजों दलालों का कार्यक्रम सबसे पहले होगा। बाज़ वक़्त, बर्दाश्त ही सियासत होती है, लेकिन यह स्थाई नहीं है। संचारी और स्थाई भाव का फर्क समझिए। आलरेडी बहुत दुख फैला है। नाटक बंद करिए। तत्काल।“

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