Advertisment

बेबाक- तमाम उम्र बेलिबास रहने वाले की मूर्तियां

author-image
hastakshep
19 Jan 2023
New Update
बेबाक- तमाम उम्र बेलिबास रहने वाले की मूर्तियां

कुलदीप कुमार लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।

Advertisment

मूर्तिपूजा का लाभ

Advertisment

हमारा देश मूर्तिपूजकों का देश है। लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी हिन्दू है जिनमें से अधिकांश मूर्तिपूजक हैं। जो नहीं भी हैं, वे भी किसी न किसी रूप में मूर्तिपूजा करते ही हैं। जैन और बौद्ध भी मूर्तिपूजक हैं। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि जिसकी मूर्ति की पूजा की जा रही है, उसके जीवन और कर्म से सीखने की कोई जरूरत महसूस नहीं की जाती और मान लिया जाता है कि उसकी मूर्ति स्थापित करके पूजने से कर्तव्य पूरा हो गया। अन्य धर्मों और देशों का भी यही हाल है।

Advertisment

प्राचीन समय में भारत के मंदिरों की अकूत संपत्ति की दुनिया भर में चर्चा थी जिससे आकृष्ट होकर विदेशी शासक उन पर हमले किया करते थे। अगर आज रोमन कैथॉलिक चर्च को देखें, तो उसकी अपार संपत्ति का अंदाज़ लगाना मुश्किल होगा, हालांकि ईसा मसीह ने कहा था कि ऊंट का सुई की नोंक में से होकर निकल जाना संभव है, लेकिन किसी धनी व्यक्ति का स्वर्ग में प्रवेश नहीं।

Advertisment

साईं बाबा के आलीशान मंदिर

Advertisment

शिरडी के जिन साईं बाबा ने अपना पूरा जीवन उपवास करते हुए और जमीन पर सोते हुए किसी भी आम आदमी की तरह फटेहाल रहकर काट दिया, आज उन्हीं के आलीशान मंदिर बने हुए हैं जिन में सोने के सिंहासन पर उनकी प्रतिमा स्थापित है और भक्तगण उस पर हीरों से जड़े सोने के मुकुट चढ़ाते हुए नहीं अघाते।

Advertisment

मठ विरोधी कबीर के पंथ के महंत

Advertisment

जिन कबीर ने हर प्रकार के मठ का विरोध किया और स्वतंत्र चिंतन का रास्ता दिखाया, उन्हीं के बाद में मठ बन गए और कबीरपंथियों के भी महंत होने लगे।

जिन स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मूर्तिपूजा का जमकर विरोध किया, उनके ही अनुयायी अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर भव्य राममंदिर बनाने के लिए पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में चले उग्र आंदोलन के शीर्ष पर नज़र आए। यह सब इसीलिए होता है क्योंकि इंसानी फितरत व्यक्ति को पूजने की है, उसके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने की नहीं।

22 सालों में उत्तर प्रदेश में लगीं मूर्तियां बेशुमार

इसलिए जब यह खबर आई कि उत्तर प्रदेश में 1990 से 2012 यानि 22 सालों के दौरान 294  यानि हर महीने औसतन एक मूर्ति स्थापित हुई, तो कोई खास ताज्जुब नहीं हुआ। इनमें सबसे अधिक 25 मूर्तियाँ भीमराव अंबेडकर की लगाई गईं। महात्मा गांधी की छह और गौतम बुद्ध की आठ मूर्तियाँ भी स्थापित की गईं। इन आंकड़ों को देखकर कुछ लोग यह सोच सकते हैं कि अपनी मूर्तियाँ स्वयं लगाने वाली बहुजन समाज पार्टी नेता मायावती के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए सबसे अधिक मूर्तियाँ लगाई गई होंगी। लेकिन ऐसा है नहीं। सबसे अधिक मूर्तियाँ मुलायम सिंह यादव के शासनकाल में लगीं और इनकी संख्या 75 है।

सब के अपने महापुरुष

दरअसल अब मूर्तियाँ लगाना भी राजनीति का अंग बन गया है। अब कोई भी महापुरुष सबका नहीं रह गया है। हर पार्टी के अपने महापुरुष हैं। भारतीय जनता पार्टी के विनायक दामोदर सावरकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय हैं तो कांग्रेस के महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी हैं। ज्योतिबा फुले, साहूजी महाराज और भीमराव अंबेडकर पर बहुजन समाज पार्टी का कॉपीराइट है।

इन दिनों मूर्ति के राजनीतिक इस्तेमाल को पूरा देश मुंह बाए देख रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद के भाजपा उम्मीदवार 2500 करोड़ रुपये की लागत से सरदार वल्लभभाई पटेल की एक ऐसी मूर्ति लगवा रहे हैं जो दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति होगी। भारत जैसे देश में जो आज भी मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से विश्व के पिछड़े देशों में ही गिना जाता है, सरकारी धन का यानी जनता के पैसे का यह दुरुपयोग अक्षम्य है।

installing idols is now a part of politics

installing idols is now a part of politics

क्या हमारी सरकारें और उनके शिक्षा एवं संस्कृति विभाग इन महापुरुषों के विचारों को छात्रों, युवाओं और आम नागरिक के बीच फैलाने के लिए कोई प्रयास करते हैं? क्या इस धनराशि को प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार पर खर्च नहीं किया जा सकता? हमारे देश में मूर्तियाँ लगाना एक तरह से इन महापुरुषों का अपमान करना ही है।

पहली बात तो यह कि इनके जीवन और कार्यों से कोई शिक्षा न लेना ही इनका अपमान करना है। दूसरी यह कि अक्सर मूर्ति लगाने के बाद उसे भुला दिया जाता है और उसके रख-रखाव पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। नतीजतन ये मूर्तियाँ स्थापित होने के कुछ ही समय बाद उदासीनता का शिकार होकर बहुत खराब हालत में पाई जाती हैं।

उत्तर प्रदेश में कबीर, तुलसी, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हजारीप्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल जैसे साहित्यकारों की मूर्तियाँ भी लगाई गईं हैं। इन मूर्तियों को लगाने से बेहतर होता यदि सरकार इनकी पुस्तकों को कम दाम पर प्रकाशित कराकर साहित्यप्रेमियों को उपलब्ध कराती या जो थोड़े-बहुत सार्वजनिक पुस्तकालय अभी भी बचे हुए हैं, उन्हें अधिक अनुदान देती या नए सार्वजनिक पुस्तकालय खोलती जहां आम आदमी जाकर पत्र-पत्रिकाएँ और किताबें पढ़ सकता। लेकिन हम प्रतीकात्मक कामों को ज्यादा तरजीह देते हैं, असली कामों को नहीं। लेकिन समाज में परिवर्तन प्रतीकात्मक कार्रवाइयों के जरिये नहीं लाया जा सकता। उसके लिए ठोस काम की जरूरत होती है।

क्योंकि आंकड़ें उत्तर प्रदेश के बारे में सामने आए हैं, इसलिए यहाँ उसी की चर्चा की गई है। लेकिन यही हाल देश के अन्य राज्यों में भी है।

मूर्तियों में विचार दफन करने का खेल

किसी के भी विचारों को निष्प्रभावी बनाने में हमारा जवाब नहीं है। अनीश्वरवादी बुद्ध को हिंदुओं ने विष्णु का अवतार घोषित करके ईश्वर का दर्जा दे दिया और राम और कृष्ण की बगल में बैठा दिया। किसी भी जीवंत विचार को समाप्त करना हो तो उसे देने वाले विचारक को पत्थर की मूर्ति में ढाल कर किसी चौराहे पर लगा देना काफी है।

कुलदीप कुमार

लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।

मूर्तियों की राजनीति : कर्नाटक में ईसा मसीह की प्रतिमा पर विवाद

Installing idols is now a part of politics

Advertisment
सदस्यता लें