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Is the farmer scared or prime minister?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) किसान आंदोलन (Peasant movement) को लेकर विपक्ष पर लगातार हमला बनाए हुए हैं। उनका लगातार आरोप है कि विपक्ष अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल करने के लिए किसानों को कृषि कानूनों के खिलाफ गुमराह कर रहा है। खास कर उन्हें जमीन छिन जाने का डर दिखा कर।
मोदी का यह हमला किसानों पर भी उतना ही है। वे शुरू से यह जताने में लगे हैं कि किसानों को अपने भले-बुरे की पहचान नहीं है। वे विपक्ष के झांसे में हैं, जबकि किसानों समेत देश का सबसे बड़ा खैरख्वाह मोदी के रूप में उनके सामने मौजूद है। यह ‘सच्चाई’ उन्होंने बड़े उद्योगपतियों की संस्थाओं/सभाओं में ज्यादा जोर देकर बताई है। यानि किसानों को कारपोरेट से डरने की जरूरत नहीं है। वे खुद और कारपोरेट मिल कर उनके कल्याण का बीड़ा उठाए हुए हैं। इससे पता चलता है कि मोदी कारपोरेट घरानों/कारपोरेट पूंजीवाद को किसानों समेत देश का स्वाभाविक कल्याण-कर्ता मानते हैं। लिहाजा, श्रम कानून हों या कृषि कानून, उनके कारपोरेट-फ़्रेंडली होने में कोई परेशानी की बात नहीं है, बल्कि वे कारपोरेट-फ़्रेंडली होंगे ही। मजदूरों-किसानों को सब चिंताएं छोड़ कर बस मालामाल होने की तैयारी करनी है!
Yarana capitalism has been going on in India since 1991
मोदी जानते हैं कि देश में पिछले तीन दशकों से कारपोरेट-फ़्रेंडली कानूनों की प्रमुखता बनी हुई है। मोदी के विरोधियों के इस तर्क में ज्यादा दम नहीं है कि मोदी अपने कुछ पूंजीपति यारों को फायदा पहुंचा रहे हैं। भारत में 1991 से याराना पूंजीवाद ही चल रहा है। सभी राजनीतिक पार्टियां कमोबेश याराना पूंजीवाद की पोषक रही हैं। सबके अपने-अपने ‘अंबानी’ ‘अडानी’ रहे हैं।
अन्य विपक्षी पार्टियों से मोदी की यह अलग खूबी है कि उन्होंने अपने को कारपोरेट घरानों/कारपोरेट पूंजीवाद से अभिन्न बना लिया है। यह उनकी स्वाभाविक अवस्था है, जो उन्होंने लगातार तीन बार गुजरात का मुख्यमंत्री रहते प्राप्त कर ली थी। कोई अन्य भारतीय नेता निगम पूंजीवाद का सक्रिय-निष्क्रिय पैरोकार होने के बावजूद अभी मोदी की अवस्था तक नहीं पहुंच पाया है।
The meaning of Modi's friendship with the owners of big corporate houses
बड़े कारपोरेट घरानों के मालिकों के साथ मोदी की गलबहियां के प्रतीकार्थ समझने की जरूरत है। एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत में किसी भी नेता की ताकत संविधान और संसदीय लोकतंत्र के आधार पर बनती है। नेता के लिए इनके प्रति सच्ची निष्ठा का विकल्प नहीं होता। लेकिन अगर कोई नेता खुले आम कारपोरेट घरानों के धन और सुविधाओं से यह ताकत हासिल करता है, तो वह स्वाभाविक तौर पर कारपोरेट का हमजोली होगा। संविधान, संसद, लोकतंत्र उसके लिए इस्तेमाल की चीजें होंगी।
अडवाणी जैसे राष्ट्रीय स्तर के वरिष्ठ नेता को नीचे गिरा कर एक प्रदेश का मुख्यमंत्री देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता था, अगर वह स्वाभाविक कारपोरेट-सेवी नहीं होता। ऐसा नहीं है कि अडवाणी अगर प्रधानमंत्री होते तो निगम पूंजीवाद का रास्ता रोक लेते। लेकिन कोई पूंजीपति उन्हें अपना निजी हवाई जहाज ऑफर करने या उनके गले में बाहें डालने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पूंजीवाद समर्थक वाजपेयी को भी अपनी ताकत का भरोसा नेता होने के नाते ही था। नई आर्थिक नीतियों के जरिए भारत में निगम पूंजीवाद का पथ प्रशस्त करने वाले मनमोहन सिंह की कोई पूंजीपति छाया भी नहीं छू सकता था। जिस नेता कि ताकत का स्रोत कारपोरेट घराने हों, वही पूंजीपतियों के साथ गलबहियां कर सकता है।
दरअसल, उपनिवेशित देशों में शुरू से ही पूंजीवाद का याराना चरित्र रहा है। पहले वह उपनिवेशवादी सत्ता का यार था, अब स्वतंत्र हुए देशों के शासक-वर्ग का यार है। इधर निगम पूंजीवाद का याराना चरित्र अलग-अलग रूप में पूरी दुनिया के स्तर पर देखा जा सकता है। मोदी और ट्रम्प जैसे नेता याराना पूंजीवाद की खास बानगियां हैं।
मोदी कहते हैं कि विपक्षी नेता किसानों को उनकी जमीन छिन जाने का डर दिखा रहे हैं। लेकिन क्या खुद मोदी डरे हुए नहीं हैं? आइए इस पर थोड़ा विचार करें। यह सही है कि मोदी ने याराना पूंजीवाद को सांप्रदायिकता और फर्जी देशभक्ति का कोट चढ़ा कर अपने अंध-समर्थकों के लिए ‘पवित्र’ बना दिया है। उन्होंने ‘कारपोरेट के प्रधान सेवक’ की अपनी भूमिका को ‘देश के प्रधान सेवक’ का पर्यायवाची भी बना दिया है। वे मृत्युपर्यंत यह ‘सेवा’ करने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय खजाने से भारी धनराशि खर्च करके अपने लिए अमेरिका से विशेष हवाई जहाज खरीदा है, और सेंट्रल विस्टा के अंतर्गत नया संसद भवन बनवा रहे हैं। कोरोना संक्रमण उनके ‘सेवा-मार्ग’ में बाधा उपस्थित न कर दे, उन्होंने पिछले कई महीनों से हजामत नहीं बनवाई है।
किसी भी क्षेत्र अथवा विषय से जुड़ा फैसला अथवा कानून हो, वे बिना किसी मर्यादा अथवा गरिमा का ख्याल किए कारपोरेट के हित-साधन में संलग्न रहते हैं। इस तरह मानो दोनों की जान एक-दूसरे में बसती हो! मोदी को भरोसा है कि सत्ता के खेल में वे कितना भी नीचे गिर जाएं, कारपोरेट उन्हें ऊंचा उठाए रहेगा। वे निश्चिंत हैं कि कारपोरेट यह मानता है कि उनके जैसा ‘सेवक’ अंदर या बाहर से कोई अन्य नेता नहीं हो सकता। उन्होंने महामारी के कठिन दौर में कारपोरेट- फ़्रेंडली श्रम और कृषि कानून न केवल लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर पारित करा लिए, उन्हें सभी प्रतिरोधों को निरस्त कर यथावत लागू कराने के लिए कृतसंकल्प हैं। हो सकता है ऐसे करामाती मोदी अपने लिए डर का कोई कारण नहीं देखते हों।
लेकिन राजनीति संभावनाओं का खेल कही जाती है। कारपोरेट लिए कोई पार्टी या नेता इतना सगा नहीं होता कि उसके पीछे वह नुकसान उठाने को तैयार हो। कारपोरेट भाजपा के लिए चुनावों, चैनलों, भव्य पार्टी दफ्तरों और कार्यक्रमों पर भारी धनराशि इसीलिए खर्च कर रहा है, क्योंकि प्रधानमंत्री और सरकार उसे मोटा मुनाफा कमाने के अवसर दे रहे हैं। जो कारपोरेट अपने हवाई जहाज में मोदी को उड़ाए फिरता है, अपने मुनाफे के प्रति शंकित होने पर उन्हें पैदल भी बना सकता है। भारतीय जनता पार्टी मोदी और उनके ‘नवरत्नों’ तक सीमित नहीं है। कारपोरेट को जिस दिन लगेगा कि मोदी अपनी भूमिका पहले जैसी मजबूती से नहीं निभा पा रहे हैं, वह भाजपा के अंदर से किसी नेता पर दांव लगा सकता है। आखिर मोदी के बाद भी कारपोरेट को कोई ‘प्रधान कारपोरेट सेवक’ चाहिए होगा। कारपोरेट ऐसे नेता का संधान पहले भी कर ले सकता है। इस बीच कारपोरेट ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का चरित्र भी अच्छी तरह पढ़-समझ लिया होगा। छोटे व्यावसाइयों के चंदे और समर्पण के बूते लंबा सांगठानिक सफर तय करने वाले आरएसएस को अब बड़ी पूंजी कि चाट लग चुकी है। वह अब शायद ही कभी कारपोरेट के बाहर जाने की हिम्मत कर पाए! यह असंभावना नहीं है कि कल को विपक्ष का कोई नेता कारपोरेट की नजर में चढ़ जाए।
कहने का आशय यह है कि मोदी भले ही अपने को कारपोरेट से अभिन्न मानते हों, लेकिन कारपोरेट के लिए यह मजबूरी नहीं है कि वह मोदी से ही चिपका रहे।
शायद मोदी को मन के एक कोने में कारपोरेट की इस सच्चाई का एहसास है। यह एहसास उनमें डर पैदा करता होगा। तभी वे श्रम कानूनों के बाद कृषि कानूनों को बनाए रखने की हर कवायद कर रहे हैं। ऐसे में लगता नहीं कि 29 दिसंबर 2020 को सरकार और किसान संगठनों के बीच होने वाली 7वें दौर की बातचीत से कृषि और किसानों के पक्ष में कोई ठोस नतीजा निकल पाएगा।
दरअसल, किसान संगठनों को उनके आंदोलन की हिमायत करने वाली विपक्षी पार्टियों से लिखित में संकल्प लेना चाहिए कि वे जिन राज्यों में सत्ता में हैं या आगे होंगी, और जब केंद्र में सत्ता में आएंगी, कारपोरेट-फ़्रेंडली श्रम और कृषि कानूनों को लागू नहीं करेंगी। साथ ही यह भी लिख कर लें कि वे निजीकरण/निगमीकरण की नीतियों का परित्याग करेंगी। ऐसा होने से महामारी और कड़ाके की ठंड के बावजूद एक महीने से ज्यादा समय से जमे हुए किसान आंदोलन की एक सही दिशा बनेगी।
डॉ. प्रेम सिंह
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं।
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