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13 मार्च को यह लेखक प्रो रतन लाल के चैनल आंबेडकरनामा पर था। चर्चा का विषय था रायपुर के कांग्रेस अधिवेशन से निकला सामाजिक न्याय का पिटारा!
24 से 26 फरवरी तक छत्तीसगढ़ के रायपुर में चले कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन में चर्चित पत्रकार उर्मिलेश के शब्दों में ‘कांग्रेस के इतिहास में पहली बार सामाजिक न्याय का पिटारा’ खुला था, जिस पर राय देते हुए मैंने चर्चा के अंत में कहा था, ’सामाजिक न्यायवादी दलों की उदासीनता से सामाजिक न्याय का वह मैदान कांग्रेस के लिए मुक्त हो गया है, जिसकी पिच पर भाजपा कभी टिक ही नहीं पाती. ऐसे में यदि कांग्रेस रायपुर में खुले सामाजिक न्याय के पिटारे में सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, मीडिया इत्यादि में आरक्षण का मुदा शामिल कर ले, 2024 में भाजपा शर्तिया तौर पर मात खा जाएगी’!
मेरे दावे पर कुछ चौंकते हुए प्रो लाल ने यह सवाल दाग दिया. ’आपको पता होना चाहिए कि दिग्विजय सिंह ने मध्य प्रदेश में डाइवर्सिटी लागू किया और कांग्रेस हार गयी! दूसरी बात क्या समाज में कहीं से डाइवर्सिटी के लिए मांग है?’
जवाब देते हुए मैंने कहा, ’देखिये ! 2004 में दिग्विजय सिंह इसलिए चुनाव हारे क्योंकि उन्होंने सिर्फ एससी और एसटी के लिए डाइवर्सिटी लागू करने का उपक्रम चलाया था, यदि इसमें ओबीसी को भी शामिल कर लिए होते हारने की नौबत नहीं आती. जहां तक समाज में डाइवर्सिटी की मांग का सवाल है, आप ध्यान लगाकर देखे तो पाएंगे कि दलित-बहुजन समाज में इसकी प्रचंड मांग है. दलित – पिछड़ों का ऐसा कोई सभा/ सेमिनार नहीं देखेंगे जिसमें डाइवर्सिटी अर्थात नौकरियीं से आगे बढ़कर ठेकेदारी इत्यादि अर्थोपार्जन की दूसरी गतिविधियों में आरक्षण मांग न उठी हो.
मैंने दो दिन पहले आंबेडकरनामा के दो वीडियों देखें, जिनमें एक में रामलीला मैदान आयोजित बहुजनों के सम्मेलन में ठेकों में आरक्षण की मांग प्रमुखता से उठाया गया था. दूसरे वीडियो में नई-नई पार्टी गठित करने वाले डॉक्टर जगदीश प्रसाद को कहते सुना था, ‘हमें आरक्षण नहीं, भागीदारी चाहिए. हमें सप्लाई में, ठेकों में, मीडिया इत्यादि हर जगह भागीदारी चाहिए’.
इसी तरह फेसबुक पर देख रहा हूँ कि स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ‘साहित्य- संस्थाओं’ में जेंडर डाइवर्सिटी की खोज करने के अभियान में जुटे हैं.
इसी तरह ढेरों लोग मीडिया में डाइवर्सिटी ढूंढने में मशगूल हैं. कहने का आशय यह है कि आज हर बहुजन संगठन/ एक्टिविस्ट अपने –अपने तरीके से डाइवर्सिटी की मांग उठा रहे हैं. कमी बहुजन नेतृत्व में है जो इस चाहत का सद्व्यवहार नहीं कर पा रहा है.’
प्रो. रतनलाल ने एक तरीके से सहमति से सर हिलाते हुए कहा कि इस बात तफ्तीश के लिए मैं आंबेडकरनामा पर सीरिज चलाऊंगा.
बहरहाल आज मेट्रोपोलिटन सिटी से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक के बहुजन बुद्धिजीवियों, संगठनों और पार्टियों को डाइवर्सिटी का एजेंडा कितना स्पर्श किया है, इसका जायजा लेने के लिए थोड़ा अतीत में चला जाय!
अगर मार्क्स की भाषा में दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो भारत में वह आरक्षण पर केन्द्रित संघर्ष का इतिहास है, जो 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद सतह पर आ गया. तब हिन्दू आरक्षण (वर्ण-व्यवस्था) के सुविधाभोगी वर्ग(सवर्णों) का हर तबका- छात्र और उनके अभिभावक, लेखक-पत्रकार, साधु-संत और राजनीतिक दल अपने – अपने तरीके से वंचितों के आरक्षण के खात्मे में जुट गए.
बहरहाल आरक्षण पर संघर्ष के नए दौर में जब 24 जुलाई, 1991 को आधुनिक भारत के चाणक्य पंडित नरसिंह राव ने नव उदारवादी अर्थनीति ग्रहण की, तब शुद्रातिशूद्रों में यह आशंका पैदा हुई कि शासक वर्ग द्वारा यह सब कुछ आरक्षण के खात्मे के लिए किया जा रहा है. तब कई संगठन निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर उतरने लगे. और जब स्वदेशी के परम हिमायती अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता में आकर अपने गुरु नरसिंह राव को बौना बनाने का लक्षण दिखाने लगे, तब आरक्षित वर्ग के लोगों को पूरा यकीन हो गया कि सत्ता पर काबिज हिन्दू आरक्षणवादियों का एकमेव लक्ष्य आंबेडकरी आरक्षण को कागजों की शोभा बना देना है, तब निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग शोर में बदलने लगी.
और जब समस्त आर्थिक गतिविधियां निजीक्षेत्र में सौंपने पर आमादा वाजपेयी अरुण शौरी को विनिवेश मंत्री बनाकर सरकारी उपक्रमों को औने-पौने दामों में बेचने की दिशा में अग्रसर हुए, उन्हीं दिनों चंद्रभान प्रसाद और उनके कुछ साथियों के सौजन्य से भारतीय बौद्धिक क्षितिज पर सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी का उदय हुआ. बाद में चंद्रभान प्रसाद के प्रयास और अब्राहम लिंकन सरीखे दिग्विजय सिंह के सक्रिय सहयोग से 12-13 जनवरी, 2002 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में दलितों का ऐतिहासिक सम्मेलन आयोजित हुआ.
सम्मेलन के शुरू में भोपाल दस्तावेज और शेष में भोपाल घोषणापत्र ( 21वीं सदी में दलितों के लिए नई रणनीति/ New strategy for Dalits in 21st century) जारी हुआ था.
भोपाल दस्तावेज में नौकरियों की सीमाबद्धता उजागर करते हुए चंद्रभान प्रसाद ने बताया था कि संगठित निजीक्षेत्र में महज 82 लाख, जबकि सरकारी क्षेत्र में पौने दो करोड़ नौकरियां हैं. अगर निजी और सरकारी क्षेत्र का कोटा पूरी तरह लागू किया जाय तो एससी-एसटी को सरकारी क्षेत्र में 45 लाख, जबकि निजी क्षेत्र में 19 लाख, कुल मिलाकर 65 लाख नौकरिया मिलेगी, जबकि एससी-एसटी की आबादी 26 करोड़ है और यह समुदाय प्रायः भूमिहीन और उद्योग-व्यापार से बहिष्कृत है. ऐसे में नौकरियों पर से दलितों की निर्भरता ख़त्म करने के लिए उन्होंने तथ्यों के आधार पर प्रमाणित कर दिया कि तकनीकी कारणों और शासकों की साजिश से निकट भविष्य में नौकरियां ख़त्म हो जायेंगीं और इनको अपना वजूद बचाना कठिन हो जाएगा. ऐसे में उन्होंने नारा दिया- नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ो. इससे डाइवर्सिटी का एक और अर्थ हो गया, नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार सहित अर्थोपार्जन की दूसरी गतिविधियों में हिस्सेदारी.
क्या है भोपाल घोषणापत्र?
चंद्रभान प्रसाद द्वारा लिखित भोपाल दस्तावेज और भोपाल घोषणापत्र में दलितों (एससी/एसटी) के अतीत और वर्तमान की आर्थिक,सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक, शैक्षिक अवस्था का निर्भूल विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीकारण के सैलाब में दलितों को तिनकों की भांति बहने से बचाने के लिए डाइवर्सिटी केन्द्रित 21 सूत्रीय दलित एजेंडा प्रस्तुत किया गया था, जो इतिहास में भोपाल घोषणापत्र के नाम से जाना जाता है. इसके जारी होने के बाद कई बुद्धिजीवियों का मानना था कि इससे भारतीय राजनीति में झंझावती परिणाम आएंगे !
बहरहाल भोपाल घोषणा के क्रान्तिकारी एजेंडे ने तो तत्कालीन राष्ट्रपति, प्रख्यात विद्वानों सहित पूरे राष्ट्र के दलितों को स्पर्श किया, किन्तु किसी को भी यकीन नहीं था कि भारत में भी अमेरिका की भांति सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों इत्यादि में आरक्षण लागू हो सकता है. लेकिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ऐसा कर दिखाया. उन्होंने 27 अगस्त,2002 को अपने राज्य के समाज कल्याण विभाग में एससी/एसटी के लिए कुछ वस्तुओं की सप्लाई में 30 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिखा दिया कि यदि सरकारों में इच्छाशक्ति हो तो अमेरिका की तरह भारत के वंचितों को भी उद्योग-व्यापार में अवसर सुनिश्चित कराया जा सकता है.
दिग्विजय सिंह के उस ऐतिहासिक कदम से आरक्षण के खात्मे की आशंका से भयाक्रांत दलितों में यह विश्वास जन्मा कि एक दिन उन्हें भी अमेरिका के अश्वेतों की भांति नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में भागीदारी मिल सकती है. फिर तो ढेरों दलित नेता और संगठन अपने-अपने तरीके से डाइवर्सिटी आन्दोलन को आगे बढ़ाने में जुट गए. नेताओं में जहां डॉ. संजय पासवान ने इस मुद्दे पर पहली बार संसद का ध्यान आकर्षित करने के बाद कई संगोष्ठियां आयोजित की, वहीँ बीएस-4 के राष्ट्रीय अध्यक्ष आर.के.चौधरी ने ‘निजी क्षेत्र में आरक्षण, अमेरिका के डाइवर्सिटी पैटर्न पर’ को अपनी राजनीतिक पार्टी का एकसूत्रीय एजेंडा बना कर डाइवर्सिटी के पक्ष में अलख जगाना शुरू किया.
इस मामले में डॉ. उदित राज भी खूब पीछे नहीं रहे. भोपाल घोषणा से प्रेरित होकर देश भर के ढेरों दलित संगठनों ने अपने – अपने राज्य सरकारों के समक्ष डाइवर्सिटी मांग-पत्र रखा. यही नहीं भोपाल के डाइवर्सिटी एजेंडे के जरिये दलितों में उद्यमिता को बढ़ावा देने का जो मनोवैज्ञानिक सन्देश फैला उसके फलस्वरूप नयी सदी में पहली बार दलितों में उद्यमी बनने का भाव पैदा हुआ. फलतः परवर्तीकाल में दलितों के डिक्की जैसे दर्जनों संगठन वजूद में आए.
दिग्विजय सिंह द्वारा मध्य प्रदेश में सप्लायर डाइवर्सिटी लागू करने के कुछ ही वर्षों बाद जब डाइवर्सिटी की मांग उठाने वाले संगठनों और नेताओं की गतिविधियां ठप्प पड़ने लगीं, वैसी स्थिति में डाइवर्सिटी के विचार को आगे बढ़ाने के लिए इस लेखक की अध्यक्षता में 15 मार्च,2007 को ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) नामक लेखकों का एक संगठन वजूद में आया. इस अवसर पर बीडीएम के उद्देश्यों और एक्शन प्लान इत्यादि से राष्ट्र को अवगत कराने के 64 पृष्ठीय ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का घोषणापत्र’ जारी हुआ. भोपाल घोषणापत्र के बाद बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का घोषणापत्र एक बेहद महत्त्वपूर्ण दस्तावेज रहा, इसका अनुमान सुप्रसिद्ध बहुजन लेखक डॉ विजय कुमार त्रिशरण की इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है- ‘एच. एल. दुसाध द्वारा लिखा गया बीडीएम का घोषणापत्र बहुजन समाज के उत्थान और उद्धार का एक मन्त्र संहिता है. इस बहुजन मुक्ति संहिता में कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र से भी ज्यादा आग है. यदि गहरी निद्रा में सुषुप्त हमारे समाज के लोगों में थोड़ी भी गर्माहट पैदा हुई तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि बीडीएम का घोषणापत्र एक दिन कार्ल मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पर भारी पड़ेगा’,(डॉ.विजय कुमार त्रिशरण, आरक्षण बनाम डाइवर्सिटी खंड-2, पृष्ठ-59).
भोपाल और बीडीएम के घोषणापत्र, दोनों में ही धनार्जन के समस्त स्रोतों में हिस्सेदारी की राह सुझाई गयी थी, पर, दोनों में मौलिक प्रभेद यह था कि भोपाल घोषणा में डाइवर्सिटी की मांग (Demand for diversity in Bhopal Declaration) सिर्फ एससी/एसटी के लिए थी, किन्तु बीडीएम से जुड़े लेखकों ने इसका विस्तार शक्ति के समस्त स्रोतों में सभी सामाजिक समूहों के स्त्री-पुरुषों तक कर दिया. चूंकि मिशन से जुड़े लेखकों का यह दृढ मत रहा है कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक-शैक्षिक)में सामाजिक और लैंगिक विविधता के असमान प्रतिबिम्बन से ही सारी दुनिया सहित भारत में भी इसकी उत्पत्ति होती रही है, इसलिए ही बीडीएम ने शक्ति के समस्त स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन कराने की कार्य योजना बनाया. इसके लिए बीडीएम के घोषणापत्र में 10 सूत्रीय यह एजेंडा जारी किया गया . 1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार नौकरियों; 2- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जाने वाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जाने वाली खरीदारी; 4 - सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन; 5 – सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकी-व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों के संचालन , प्रवेश व अध्यापन; 6 - सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जाने वाली धनराशि; 7- देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं(एनजीओ ) को दी जाने वाली धनराशि; 8 - प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं फिल्म के सभी प्रभागों; 9 - रेल-राष्ट्रीय राजमार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की जमीन व्यवसायिक इस्तेमाल के लिए एससी/एसटी के मध्य वितरित हो तथा पौरोहित्य एवं 10- ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, सांसद-विधानसभा, राज्यसभा की सीटों एवं केंद्र की कैबिनेट ; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों ,राष्ट्रपति- राज्यपाल, प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में लागू हो सामाजिक और लैंगिक विविधता!
भोपाल घोषणा से जुड़ी टीम और बीडीएम से जुड़े लेखकों की सक्रियता से एससी/एसटी ही नहीं, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में भी नौकरियों से आगे बढ़ कर उद्योग-व्यापार सहित हर क्षेत्र में भागीदारी की चाह पनपने लगी.
संभवतः उद्योग-व्यापार में बहुजनों की भागीदारी की चाह का अनुमान लगा कर ही उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने जून 2009 में एससी/एसटी के लिए सरकारी ठेकों में 23 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दिया. इसी तरह केंद्र सरकार द्वारा 2011 में लघु और मध्यम इकाइयों से की जाने वाली खरीद में एससी/एसटी के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण घोषित किया गया. बाद में 2015 में बिहार में पहले जीतनराम मांझी और उनके बाद नीतीश कुमार सिर्फ एससी/एसटी ही नहीं, ओबीसी के लिए भी सरकारी ठेकों में आरक्षण लागू किया. यही नहीं बिहार में तो नवम्बर-2017 से आउट सोर्सिंग जॉब में भी बहुजनों के लिए आरक्षण लागू करने की बात प्रकाश में आई. किन्तु बहुजन संगठनों द्वारा सरकार पर जरूरी दबाव न बनाये जाने के कारण इसका लाभ न मिल सका. हाल के वर्षों में कई राज्यों की सरकारों ने परम्परागत आरक्षण से आगे बढ़कर अपने-अपने राज्य के कुछ-कुछ विभागों के ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, सप्लाई इत्यादि कई विभागों में आरक्षण देकर राष्ट्र को चौकाया है. कई राज्यों सरकारों ने आरक्षण का 50 प्रतिशत का दायरा तोड़ने के साथ निगमों, बोर्डो, सोसाइटियों में एससी/एसटी,ओबीसी को आरक्षण दिया : धार्मिक न्यासों में वंचित जाति के पुरुषों के साथ महिलाओं को शामिल करने का निर्णय लिया तो उसके पीछे डाइवर्सिटी का वैचारिक आन्दोलन ही है.
2020 झारखण्ड की हेमत सोरेन सरकार ने 25 करोड़ तक ठेकों में एसटी, एससी, ओबीसी को प्राथमिकता दिए जाने की घोषणा कर राष्ट्र को चौका दिया था. निश्चय ही सरकार के उस फैसले के पीछे डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन की भूमिका रही. जून 2021 के दूसरे सप्ताह में तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने वहां के 36,000 मंदिरों में गैर-ब्राह्मणों- एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं की पुजारी के रूप में नियुक्ति का ऐतिहासिक निर्णय लेकर राष्ट्र को चौका दिया है. स्टालिन सरकार के इस क्रान्तिकारी फैसले के पीछे अवश्य ही डाइवर्सिटी आन्दोलन की भूमिका है.
बहरहाल नौकरियों से आगे बढ़कर सीमित पैमाने पर ही सही सप्लाई, ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब में बिना बहुजन जनता के सड़कों पर उतरे ही, सिर्फ डाइवर्सिटी समर्थक लेखकों की कलम के जोर से कई जगह आरक्षण मिल गया. नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, ठेकों इत्यादि में आरक्षण के कुछ – कुछ दृष्टान्त साबित करते हैं कि डाइवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण की मांग सत्ता के बहरे कानों तक पहुंची और उसने ज्यादा तो नहीं, पर कुछ-कुछ अमल भी किया. लेकिन बीडीएम वालों को सबसे बड़ी संतुष्टि की बात रही कि भाजपा-कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के साथ कई क्षेत्रीय पार्टियों ने डाइवर्सिटी को अपने घोषणापत्र में जगह दिया.
यही नहीं बिहार विधानसभा चुनाव- 2015 में लालू प्रसाद यादव ने डाइवर्सिटी प्रेरित मुद्दे उठाकर भाजपा को बुरी तरह शिकस्त देने का कारनामा अंजाम दे दिया. बहरहाल अगर देश की कई पार्टियों ने अपने घोषणा पत्रों में डाइवर्सिटी को जगह; अगर कई राज्य सरकारों ने थोड़े-बहुत पैमाने पर इसे लागू किया तो इसलिए कि सबको इल्म था कि बहुजन अवाम में डाइवर्सिटी अर्थात नौकारियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार, सलाई, ठेकेदारी इत्यादि विविध क्षेत्रों में हिस्सेदारी की चाह बढ़ चुकी है.
आज भले ही बहुजन बुद्धिजीवी और संगठन भोपाल घोषणा या बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का नाम जुबान पर न लाये, किन्तु सभी अपने-अपने हिसाब से सभी क्षेत्रों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी की उठा रहे हैं. नौकरियों से आगे बढ़कर दूसरे क्षेत्रों में आरक्षण की मांग की चाह पनपी है तो डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन के चलते ही पनपी है.
यदि 2015 वाले लालू प्रसाद यादव से प्रेरणा लेकर यूपी-बिहार के बहुजनवादी नेतृत्व ने नौकरियों सहित सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, मीडिया इत्यादि के मुद्दे पर चुनाव लड़ा होता, मोदी की कब की सत्ता से विदाई हो गयी होती. लेकिन यूपी-बिहार के बहुजन नेतृत्व की कमियों से कांग्रेस के लिए सामाजिक न्याय का वह मैदान मुक्त हो गया है, जिसके पिच पर भाजपा हारने के लिए विवश रहती है.
इसमें कोई शक नहीं कि जिस तरह डाइवर्सिटी का विचार वंचित वर्गों के बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों को स्पर्श किया है; जिस तरह सरकारें इसे लागू करने के लिए आगे आयीं हैं, वह स्वाधीन भारत के इतिहास एक विरल घटना है. इसकी अहमियत का इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि 19 सितम्बर, 2021 को लखनऊ में 70 बहुजनवादी संगठनों ने मिलकर डाइवर्सिटी कानून बने, इसकी मांग उठाई थी. यह इस बात का दृष्टान्त है कि डायवर्सिटी का विचार (idea of diversity) वंचित वर्गों को जमकर प्रभावित किया है. इसकी एक ही कमी है कि सरकारें और बहुजन एक्टिविस्ट डाइवर्सिटी के सम्पूर्ण एजेंडे को एक साथ अपनाने के लिए आगे नहीं आये: सरकारों ने टुकड़ों-टुकड़ों में इसे लागू किया तो बहुजन संगठन भी अपवाद न बन सके. बहुजन संगठनों द्वारा इसकी आंशिक मांग उठाये जाने के कारण ही अब तक यह एक बड़े जनांदोलन का रूप अख्तियार नहीं कर पाया है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि बड़े-बड़े आंबेडकरवादी संगठन तक आर्थिक और सामाजिक विषमता के समस्या की विकरालता की ठीक से उपलब्धि नहीं कर पाए हैं: अधिकांश के लिए ब्राह्मणवाद ही सबसे बड़ी समस्या है. ऐसे संगठनों को लगता है कि यदि निजी क्षेत्र, न्यायपालिका, ठेकों, मीडिया में आरक्षण हो जाए तो बहुजनों की समस्या सुलझ जाएगी. उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि शासक वर्ग ने वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए बहुजनों को उस स्टेज में पहुंचा दिया है, जिस स्टेज में पहुंचने पर सारी दुनिया के वंचितों को मुक्ति की लड़ाई में उतरना पड़ा. और भारत में बहुजनों की मुक्ति के लिए बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे में डाइवर्सिटी लागू करवाने की लड़ाई लड़ना जरूरी है. जिस दिन बहुजन इसकी सत्योपलब्धि कर लेंगे बहुजन मुक्ति के लिए सम्पूर्ण डाइवर्सिटी एजेंडे को अपनाने का जरूर मन बनायेंगे. बहरहाल वर्तमान गंभीर हालात में बीडीएम से जुड़े लोग डाइवर्सिटी आन्दोलन को एक नए फेज में ले जाने की तैयारी में जुट गए हैं. वे डाइवर्सिटी का दस सूत्रीय एजेंडा लागू करवाने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाने की तैयारी कर रहे हैं, जिसके जरिये इसे लागू करवाने की लड़ाई में 50 करोड़ लोगों को जोड़ने की परिकल्पना है.
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
Is there a demand for diversity among Bahujans?