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लगातार घनिष्ठ मित्रों, साथियों और प्रियजनों के कोरोना संक्रमित होने की खबरें मिल रही हैं।
उत्तराखंड में आज से शाम सात बजे से रात्रि कर्फ्यू है। दोपहर दो बजे से सब कुछ बन्द।
सिर्फ लॉकडाउन कहा नहीं जा रहा। कालाबाज़ारी की धूम मची है। जरूरी चीजें अनाज, दालों, खाद्य तेल से लेकर जीवनरक्षक दवाओं तक की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऊपर से कालाबाजार।
विशेषज्ञ लगातार चेता रहे थे, दूसरी लहर आएगी। वैक्सीन भी आ गयी। लेकिन करीब 6 महीने का वक्त मिलने के बावजूद इस संकट से निबटने की कोई तैयारी नहीं की गई।
तैयारी थी तो बिसनेस बढ़ाने की।
तैयारी थी तो सिर्फ आपदा को अवसर बनाने की।
तैयारी थी तो सिर्फ जातीय, नस्ली धार्मिक ध्रुवीकरण की।
क्या यह सुनियोजित जनसंहार नहीं है?
फिर घनघोर रोज़गार संकट।
शिक्षा चिकित्सा ठप।
बच्चे घरों में कैद।
मजदूरों का पलायन शुरू।
अल्वेयर कामु ने प्लेग के शिकंजे में मरते हुए पेरिस का जो ब्यौरा अपने उपन्यास the plague में दिया है, जैसा शरत के उपन्यासों में बर्मा,समुंदर और कोलकाता में प्लेग का विवरण है, जैसा माणिक बन्दोपाध्याय की रचनाओं में बंगाल की भुखमरी के ब्यौरे हैं, जो चित्र अकाल का सोमनाथ होड़, जैनुल आबेदीन, चित्तोप्रसाद ने बनाये थे, वे सारे चित्र और ब्यौरे हमारे आस पास चारों तरफ जीवंत हो रहे हैं।
लंदन में भी इसी तरह की महामारी फैली थी।
महानगरों के विनाश की कथाएँ जीवंत हो रही हैं।
हमारे महानगर मृत्यु दड़बे में तब्दील हैं।
हमने विकास और बाज़ार के लिए गांवों को भी सीमेंट के जंगल में तब्दील कर दिया है।
पीढ़ियों से जड़ों से, जमीन से कटे शहरी भद्रलोग तो शहरों में ही सड़ गलकर मरने को अभिशप्त हो गए हैं।
प्रवासी मजदूर हजारों किमी पैदल चलकर गाँव वापस लौट सकते हैं, लेकिन कुलीन भद्र शहरों की पीढ़ी लिखी जनता के लिए जाने की कोई जगह नहीं बची है।
हमने प्रकृति और पर्यावरण का इतना सत्यानाश कर दिया है कि लोग अब हवा पानी आक्सीजन की कमी से मर रहे हैं।
इस सुनियोजित प्रायोजित मृत्यु उत्सव के उल्लास में बचे हुए लोगों के दिलोदिमाग बन्द हैं और बचने का कोई रास्ता नहीं है।
हम यह भी नहीं जानते कि पिछली दफा सकुशल बचे और सक्रिय रहने के बाद इस साल हम कैसे बचें रहेंगे।
वैक्सीन लगा ली है। महीने भर से सरदर्द और कमजोरी झेल रहे हैं।
कोविशिल्ड लगाने वाले ज्यादातर लोगों को उल्टियों की वजह से भारी समस्या हो रही है।
कल 20 तारीख को दूसरा डोज़ लगना था। अब कहा गया कि 2 जून के बाद लगेगा। हम बचे रहेंगे तो आखिरी साँस तक सक्रिय भी रहेंगे।
इस अफरातफरी में भी हम एक दूसरे के साथ खड़ा होकर संकट का मुकाबला कर सकते हैं। लेकिन भारतीय समाज का बाजार ने विघटन कर दिया है।
न समाज बचा है ओर न सामुदायिक जीवन, सिर्फ राजनीतिक रंग बचे हैं, जिनसे हर कोई सराबोर है।
पलाश विश्वास
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जन्म 18 मई 1958
एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय
दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक।
उपन्यास अमेरिका से सावधान
कहानी संग्रह- अंडे सेंते लोग, ईश्वर की गलती।
सम्पादन- अनसुनी आवाज - मास्टर प्रताप सिंह
चाहे तो परिचय में यह भी जोड़ सकते हैं-
फीचर फिल्मों वसीयत और इमेजिनरी लाइन के लिए संवाद लेखन
मणिपुर डायरी और लालगढ़ डायरी
हिन्दी के अलावा अंग्रेजी औऱ बंगला में भी नियमित लेखन
अंग्रेजी में विश्वभर के अखबारों में लेख प्रकाशित।
2003 से तीनों भाषाओं में ब्लॉग