‘जय भीम’ फिल्म समीक्षा | फिल्म रिव्यू: जय भीम | Jai Bhim movie review
Jai Bhim Review in Hindi by Abhishek Srivastava
शुरुआती आधे घंटे की जबरदस्त चटान के बाद किसी तरह लय बनी, तक जाकर ‘जय भीम’ निपटी। इस बीच बार-बार गोविंद निहलानी के किरदार (Characters of Govind Nihalani) भीखू लहानिया, भास्कर कुलकर्णी, दुशाने, भोंसले, डॉक्टर पाटील आदि याद आते रहे।
पूरे सवा दो घंटे मैं सोचता रहा कि काश, ये निर्देशक एक भी किरदार- वकील से लेकर डॉक्टर, समाजकर्मी और नेता तक- उस मेयार का रच पाता जो आज से चालीस साल पहले ‘आक्रोश’ में निहलानी ने कर दिखाया था। एजेंडाबद्ध रचनाकर्म कितना लाउड और लाचार हो सकता है, ‘जय भीम‘ इसका बेहतरीन उदाहरण है। इसे मिल रही अतिरिक्त चर्चा इस समाज के रचनात्मक रूप से भ्रष्ट और जातिगत स्तर पर रूढ़ व ध्रुवीकृत हो जाने का सबूत है।
‘जय भीम‘ और ‘आक्रोश‘ में अंतर क्या है?
‘जय भीम’ की तरह ‘आक्रोश’ के केंद्र में भी आदिवासी थे। वहाँ भी एक समाजकर्मी था। एक वकील था। एक पब्लिक प्रासिक्यूटर था। पुलिस थी। नेता थे। अन्याय था। अन्याय के खिलाफ कानूनी संघर्ष था। दोनों फिल्में सच्ची घटना पर आधारित हैं। अंतर क्या है? चालीस साल पहले दिखाया गया भ्रष्टाचार कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक सबको कठघरे में खड़ा करता है और आदिवासी को अकेला छोड़ देता है।
Suriya on bringing Justice K Chandru’s life to reel with Jai Bhim
2021 में 1995 की घटना पर दिखाया गया भ्रष्टाचार न्यायपालिका को डिस्काउंट दे देता है। क्यों? सिर्फ इसलिए क्योंकि ‘जय भीम’ का नायक चंदरू अम्बेडकरवादी है और कानून के रास्ते अन्याय का प्रतिकार करने में यकीन रखता है (जिसका किरदार निभाने वाले हीरो सुरिया को ‘यादव’ जाति का बताकर प्रचारित किया जा रहा है)? तीनों जज भी बड़े भले हैं। निहलानी को अन्याय का प्रतिकार दिखाने के लिए ‘भीम’ के नाम की जरूरत नहीं थी, बल्कि सरकारी वकील दुशाने यानि अमरीश पुरी वहाँ खुद आदिवासी समुदाय से होते हुए अन्याय का पोषक था। ये अपने समय से बहुत आगे की बात थी।
‘जय भीम’ के निर्देशक आदि बहुत भले हैं। यथार्थवादी सिनेमा का पर्याय केवल रोते हुए चेहरे और चीख-चिल्लाहट को समझते हैं; 1995 में कुर्ता पहने और झोला लटकाए एक पत्रकार को हाथ में गन माइक लिए रिपोर्टिंग करते दिखाते हैं; नायक वकील को विशुद्ध दक्षिण भारतीय फिल्मों जैसा सुपरमैन दिखाते हैं और अदालत में सुनवाई के दौरान घूमते हुए नंगे बच्चे दिखाते हैं। हो सकता है कि ये शायद उतने भले भी न हों चूंकि आदिवासी पृष्ठभूमि की कहानी में इन्होंने एक ओर नायक को अम्बेडकरवादी दिखाया है तो दूसरी ओर गाँव के शोषक सामंत की जाति छुपा ली है। चूंकि दक्षिण भारत के जाति समीकरण का मुझे बहुत ज्ञान नहीं है, इसलिए मोटे तौर पर लगता है कि फिल्म की पूरी डिजाइन आदिवासी अस्मिता को दलित प्रतीकों (और ओबीसी विमर्श) के भीतर पचा ले जाने की है। ठीक वैसे ही जैसे एक खास किस्म का ओबीसी विमर्श दलित अस्मिता के साथ घालमेल कर के उसे को-ऑप्ट करने में लगा रहता है। फिल्म में जाति संघर्ष की जटिलता को एक मोटी बाइनरी में बदल दिया गया है। ऐसा सरलीकरण 1995 में भी अपेक्षित नहीं था। पता नहीं ये चालाकी है या भोलापन! निहलानी इस मामले में बहुत ईमानदार थे।
एक समस्या और दिखी जिससे लेखक-निर्देशक पर शक होता है। जिस पुलिस अधिकारी को (प्रकाश राज) दूसरे नायक और आदिवासियों के हितैषी के रूप में स्थापित किया गया है, उसकी समझ ये है कि कभी-कभी गणतंत्र को कायम रखने के लिए तानाशाही जरूरी होती है। दिलचस्प ये है कि इसी अधिकारी के नेतृत्व में जांच कमेटी गठित करने की सिफारिशी पर्ची भरी अदालत में जजों के पास खुद नायक भेजता है।
Will ‘Jai Bhim’ influence future policies? | क्या ‘जय भीम‘ भविष्य की नीतियों को प्रभावित करेगी?
बहरहाल, ये सब बातें अपनी जगह, लेकिन मुझे बुनियादी रूप से ‘जय भीम’ से ये शिकायत है कि पूरी फिल्म इतनी लाउड और नाटकीय होने के बावजूद मुझे छू नहीं पाती। इसके मुकाबले सैराट या फैन्ड्री या फिर पेरूमल, कोर्ट, मसान आदि कहीं ज्यादा संवेदनशील हैं और देखने वाले को संवेदनशील बनाती भी हैं। इस श्रेणी में श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ अमर है। ‘आक्रोश’ को मैं ‘अंकुर’ के ही क्लासिक विस्तार के रूप में देखता हूँ। इस परंपरा में ‘जय भीम’ कहीं नहीं अंटती है, न अंटनी चाहिए।
मेरा खयाल है कि ‘जय भीम’ इसलिए देखी जानी चाहिए ताकि आपको पता चल सके कि अन्याय की किसी भी घटना पर इस हल्के और एजेंडाबद्ध तरीके से तो फिल्म बिल्कुल नहीं बननी चाहिए।
अभिषेक श्रीवास्तव
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