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जयशंकर प्रसाद, भूमंडलीकरण और राष्ट्रवाद

सवाल यह है भूमंडलीकरण के कारण सारी दुनिया में ´स्पेस´का अंत हुआ या नहीं ॽ आज टेली कम्युनिकेशन और स्वचालित करण ने ग्लोबल कम्युनिकेशन सिस्टम से जोड़ दिया है। सभी किस्म की प्रस्तुतियां वस्तुतः दूरी की प्रस्तुतियां हैं।

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जयशंकर प्रसाद, भूमंडलीकरण और राष्ट्रवाद

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Jaishankar Prasad, Globalization and Nationalism

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समय – फ्रांसिस फुकुयामा ने´इतिहास का अंत´ की जब बात कही थी तो उन्होंने ´एंड ऑफ दि स्पेस´ की बात कही थी, लेकिन हिंदी आलोचकों ने उसे गलत अर्थ में व्याख्यायित किया।

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सवाल यह है भूमंडलीकरण के कारण सारी दुनिया में ´स्पेस´का अंत हुआ या नहीं ॽ

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यही वह परिदृश्य है जिसमें आप भूमंडलीकरण को समझ सकते हैं। ´एंड ऑफ दि स्पेस´ का अर्थ यह भी है मुक्त बाजार ने सर्वसत्तावादी सामूहिकता को हटा दिया, इस प्रक्रिया में ´इंटरवल´या ´अंतराल´का भी अंत हो गया, अब निरंतर फीडबैक है, औद्योगिक या पोस्ट औद्योगिक गतिविधियों के टेलीस्कोपिंग मैसेज हैं। पहले हर चीज के साथ भू-राजनय और भौगोलिक अंतराल हुआ करते थे लेकिन अब यह सब नहीं हो रहा। आज हम पृथ्वी को जानते हैं लेकिन उसके अंतरालों को नहीं जानते। देशज भौगोलिक अंतरों को नहीं जानते। अब हम इतिहास के अंतरालों में प्रवेश ही नहीं करते सीधे यथार्थ में प्रवेश करते हैं। आज हम ´लोकल समय´में नहीं ´रीयल टाइम´ में रह रहे हैं, इसने रियलिटी´से हमारी दूरी खत्म कर दी है। अंतर खत्म कर दिया है।

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पहले दूरी थी, इतिहास-भूगोल का अंतर था, लेकिन अब तो सिर्फ ´दूरी´ही रह गयी है, लेकिन इसको भी अतिक्रमित करके हम ´टेलीप्रिजेंश´में आ चुके हैं। यही भूमंडलीकरण की धुरी है। यही ग्लोबलाइजेशन का ´एक्सचेंज´है, इसके जरिए दूरी को देख सकते हैं। यह ´दूरी´वस्तुतः दूसरी ओर झुकी हुई है।

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आज हम कम्प्यूटरीकरण के वैचारिक दृष्टिकोण से बंधे हैं। आज हम जल्द ही विश्व के किसी भी अंश पर पहुँच सकते हैं, विश्व के किसी भी अंश पर पहले भी जाते थे लेकिन इस समय भिन्न तरीके से जाते हैं। पहले इतिहास और भूगोल के जरिए प्रवेश करते थे लेकिन अब सीधे यथार्थ के जरिए प्रवेश करते हैं। पहले समृद्ध होते थे अब नहीं। अब क्षण में ही यथार्थ में प्रवेश करने के कारण जल्द ही पहुँच जाते हैं, इसके कारण यथार्थ को पूरी तरह देख-समझ नहीं पाते।´दूरी´ का अंतराल महसूस नहीं होता।

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Today telecommunication and automation have connected the global communication system.

आज टेली कम्युनिकेशन और स्वचालितीकरण ने ग्लोबल कम्युनिकेशन सिस्टम से जोड़ दिया है। सभी किस्म की प्रस्तुतियां वस्तुतःदूरी की प्रस्तुतियां हैं। टेलीकम्युनिकेशन ने कहने के लिए दूरी कम करने का वायदा किया है लेकिन दूरिया बढ़ी हैं। इस दूरी ने ´महा भौगोलिक यथार्थ´ का रूप ले लिया है जो ´वर्चुअल रियलिटी´ के जरिए नियमित हो रहा है। आज ´वर्चुअल रियलिटी´ ने ´टेली कंटेंट´ पर एकाधिकार जमा लिया है। यह राष्ट्रों का आर्थिक गतिविधि का बहुत बड़ा हिस्सा बन गया है। इसके कारण संस्कृति का क्षय हो रहा है।

संस्कृति को अपदस्थ कर रही है वर्चुअल रियलिटी

संस्कृति वस्तुतःभौगोलिक स्पेस में रहती है, लेकिन वर्चुअल रियलिटी उसे अपदस्थ कर रही है। फलतः आज हम ´इतिहास का अंत´ नहीं ´भूगोल का अंत´ देख रहे हैं। कल तक 19वीं शताब्दी के ´ट्रांसपोर्ट रिवोल्यूशन´के दौर में जब अंतराल आता था तो विभिन्न समाजों के बीच की खाईयां या अंतराल नजर आते थे। लेकिन मौजूदा ´ट्रांसमीशन रिवोल्यूशन´में अहर्निश फीडबैक आ रही हैं और इसमें सामान्यीकृत इंटररेक्टिविटी हो रही है। इसके कारण हमें अंतर पता ही नहीं चलता। सिर्फ स्टॉक मार्केट में जब तबाही मचती है तो अंदाजा लगता है।

भूमंडलीकरण के दौर में जो बाहरी था या ग्लोबल था वह आंतरिक हो गया और जो लोकल था वह बाहरी हो गया है। वह हाशिए पर चला गया है। भूमंडलीकरण के बारे में अनेक मिथ्या बातें कही जा रही हैं। भूमंडलीकरण ने सबको रूपान्तरित कर दिया है। अब वे ´व्यक्ति´ को स्थानांतरित नहीं करते, या जनता को स्थानांतरित नहीं करते बल्कि उन्होंने ´रहने´की जगह ही छीन ली है। फलतः ´स्थानीय´का भूमंडलीय अ-स्थानीकरण´किया है। इसने ´राष्ट्रीय´स्तर पर ही नहीं सामाजिक स्तर पर भी प्रभावित किया है। इसने राष्ट्र–राज्य के सवाल ही खड़े नहीं किए हैं बल्कि शहर एवं राष्ट्र एवं राजनय के सवाल भी खड़े किए हैं। विदेश नीति और गृहनीति में अंतर खत्म हो गया है। बाहर और भीतर अब कोई अंतर नहीं रह गया है।

´लाइव´एवं ´डायरेक्ट ट्रांसमीशन´के कारण ´बेव´के प्रभाव को कम कर दिया है।´पुराने टेली-विजन´से निकलकर ´भू-विजन´ में दाखिल हो गए हैं। सुरक्षा के नाम पर ’टेली-निगरानी´में आ गए हैं।´ऑडियो विजुअल´निरंतरता ने ´क्षेत्रीय निरंतरता´पर बढ़त हासिल कर ली है। अब ´राष्ट्र´की क्षेत्रीय पहचान को ´रीयल टाइम´ इमेज और साउण्ड ने टेकओवर कर लिया है।

जानिए वैश्वीकरण के दो प्रमुख पहलू क्या हैं

ग्लोबलाइजेशन के दो प्रमुख पहलू हैं, पहला, एक तरफ इसने दूरी को एकसिरे से खत्म कर दिया है, इस क्रम में ट्रांसपोर्ट और ट्रांसमीशन दोनों को ´कम्प्रेस´करके रख दिया है।

दूसरा है टेली-निगरानी।यह विश्व का नया विजन है।´टेली प्रजेंट´ पर बार-बार जोर दिया जा रहा है। यानी टेली प्रजेंट के जरिए 24घंटा,पूरे सप्ताह सक्रियता। अब हर इमेज ´इनलार्ज´ होकर आ रही है। ´टेक्नो-साइंस´ ने ´इमेज´के भविष्य को अपने हाथ में ले लिया है। अतीत में उसने ´टेलीस्कोप´एवं माइक्रोस्कोप´के जरिए यह काम। भविष्य में यह ´टेवी निगरानी´के रूप में काम करेगी और यही इसका सैन्य आयाम है।

ऑडियो-विजुअल दृश्य की निरंतरता ने राष्ट्र की क्षेत्रीय निरंतरता के ऊपर बढ़त बना ली है। आज ´क्षेत्र´ का महत्वपूर्ण नहीं है। आज क्षेत्रीय राजनीति रीयल स्पेस से शिफ्ट होकर ´रीयल टाइम´में दाखिल हो गयी है। यह एक तरह से इमेज और साउण्ड की राजनीति है। यह भूमंडलीकरण की पूरक इमेज है।´ट्रांसपोर्ट´और ´ट्रांसमीशन´के सामयिक दबाव ने ´दूरी´ कम कर दी है।दूसरी ओर ´टेली-निगरानी´बढ़ी है।

अब नया विज़न है ´टेली प्रिजेंट´, यानी 24घंटे उपस्थिति। अब ये स्थानान्तरित नयी आंखें हैं। प्रत्येक इमेज का भविष्य ´इनलार्जमेंट´पर टिका है।´इनलार्जमेंट´ वस्तुतः ´टेक्नो साइंस´है, इसने साइंस को भी पीछे छोड़ दिया है। अब तो टेक्नोसाइंस के पास ही इमेज की जिम्मेदारी है। यह ´टेली निगरानी´का हिस्सा है।पहले किसी भी चीज को भू-राजनय परिप्रेक्ष्य या परिप्रेक्ष्य में देखते थे लेकिन अब कृत्रिम परिप्रेक्ष्य में स्क्रीन और मॉनीटर के जरिए देखते हैं।

अब मीडिया परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।

मीडिया परिप्रेक्ष्य ने ´स्पेस के तात्कालिक परिप्रेक्ष्य´ पर बढ़त बना ली है। यही वो परिप्रेक्ष्य है जिसमें हमारा मौजूदा ´समय´कैद है।

जयशंकर प्रसाद की दृष्टि में तीन महापुरुष

जयशंकर प्रसाद के बारे में विचार करते समय कई और बातों पर गौर करने की जरूरत है। मसलन्, उनका दौर वही है जो महात्मा गांधी के युग के नाम से जानते हैं। इस प्रसंग में एक घटना का जिक्र करना समीचीन होगा। काशी में मैथिलीशरण गुप्तजी के अभिनंदन की तैयारी के अवसर पर इसका विरोध करने वालों की एक सभा हुई, इसमें जयशंकर प्रसाद भी शामिल हुए थे। इसमें प्रसाद ने कहा, ´इस युग के तीन व्यक्तियों को महापुरूष मानता हूँ, गांधीजी, रवीन्द्र बाहू और मालवीयजी। और मैं अपने को इन तीनों में से किसी एक का अनुयायी नहीं मानता।´

जयशंकर प्रसाद किससे प्रभावित थे

प्रसादजी के इस बयान के बाद यह सवाल नए सिरे से उठा है कि आखिरकार प्रसादजी किससे प्रभावित थे

छायावादी कवियों में प्रसाद और निराला पर गांधी का कोई प्रभाव नहीं था, लेकिन पंतजी पर 1934 के बाद प्रभाव देखा जा सकता है। रामविलास शर्मा के अनुसार प्रसाद पर समाजवादी विचारधारा का धुंधला सा प्रभाव जरूर है। इस धुंधले प्रभाव का अर्थ है-किसानों के संगठन और उनके सामन्तविरोधी संघर्ष का बोध।

रामविलास शर्मा के अनुसार प्रसाद और गांधीजी के नजरिए में तीखा अंतर्विरोध देखना हो तो यह भी देखें कि गांधीवाद जहां प्राचीन भारतीय समाज में वर्ग संघर्ष अस्वीकार करता है, वहीं प्रसादजी ने राजा-प्रजा के रक्तमय संघर्ष का चित्रण पेश करके उसे स्वीकार किया है।

गांधीवाद निष्क्रिय प्रतिरोध की बात करता है स्वयं कष्ट सहकर अन्यायी के हृदय-परिवर्तन की बात करता है, वहीं प्रसादजी ने सक्रिय प्रतिरोध के आदर्श को पेश किया है। शस्त्र उठाकर आतततायियों का विरोध करने का चित्र खींचा है। प्रसाद के पात्र सामाजिक संघर्ष में तटस्थ नहीं रहते। वे देश और जनता के प्रति सहानुभूति ही नहीं रखते अपितु संघर्ष में हिस्ला लेते हैं।

रामविलास शर्मा के अनुसार प्रसाद के ´ध्रुवस्वामिनी´ नाटक में यह नीति सूत्र है कि क्रूर, नृशंस, देश की रक्षा करने में असमर्थ राजा वध्य है।

वहीं नंद दुलारे वाजपेयी के अनुसार जयशंकर प्रसाद का मूल दृष्टिकोण है ´नारी पुरूष की उद्धारक है।´यदि इस बुनियादी नजरिए को ध्यान में रखें तो प्रसादजी का नया पाठ निर्मित होगा।

सवाल यह है क्या नारी संबंधी यह दृष्टिकोण आज के समय में समाज में मददगार होगा ॽ हमारा मानना है कि नारी को समाज की धुरी मानना,उसके जरिए ही परिवर्तन के तमाम कार्य संपन्न करना,प्रसादजी के साहित्य स्त्री पात्र बदलाव और उत्प्रेरणा के कारक बनकर सामने आते हैं।

जयशंकर प्रसाद को मन्दिर,फुलवारी और अखाड़ा ये तीन चीजें निजी तौर पर बहुत प्रिय थीं। इसके अलावा उनकी रचनाओं में व्यक्ति और राष्ट्र के अंतर्विरोधों के कई रूप नजर आते हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ´उनकी आरंभिक रचनाओं में अतीत के प्रति एक प्रकार की मोहकता और मादकता भरी आसक्ति मिलती है। उनके कई परवर्त्ती नाटकों में यह भाव स्पष्ट हुआ है।´

मुक्तिबोध का मानना है कि प्रसाद की खूबी है कि ´कवि कुछ कहना चाहता है,पर कह नहीं पाता´,´´अन्य कवियों ने अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को स्वच्छन्दता के साथ प्रकट किया, जबकि प्रसाद ने उन पर अंकुश रखा। एक प्रकार की झिझक और संकोच का भाव उनकी आंसू तक की सभी कविताओं में मिलता है। ऐसा लगता है कि कवि को भय है कि उसके मन में जो भाव उमड़ रहे हैं, जो वेदना संचित है वह यदि एकाएक अपने अनावृत्त रूप में प्रकट हो जाएगी तो पाठक उसकी कद्र नहीं कर सकेंगे।

कवि की धारणा है कि उसका पाठक अभी इस परिस्थिति में नहीं है कि उलके भावों को ठीक-ठीक समझ सके और सहानुभूति के साथ देख सके।´

मुक्तिबोध के अनुसार ´कामायनी में प्रधान हैं लेखक के जीवन निष्कर्ष और जीवन अनुभव, न कि कथावस्तु और पात्र। साधारणतः, कथावस्तु के भीतर पात्र अपने व्यक्तित्व-चरित्र का स्वतंत्र रूप से विकास किया करते हैं, किंतु कामायनी में पात्र और घटनाएँ लेखक की भावना के अधीन हैं। कथानक, घटनाएँ, पात्र आदि तो वे सुविधा रूप हैं, कि जो सुविधा रूप लेखक को अपने भाव प्रकट करने के लिए चाहिए। इसीलिए कामायनी में कथावस्तु फैण्टेसी के रूप में उपस्थित हुई है, और उस फैण्टेसी के माध्यम से लेखक आत्म-जीवन को और उस आत्म-जीवन में प्रतिबिम्बित जीवन-जगत् के बिम्बों को, और तत्संबंध में अपने चिन्तन को, अपने जीवन-निष्कर्षों को प्रकट कर रहा है।´मुक्तिबोध के अनुसार´ यह सर्वसम्मत तथ्य है कि कामायनी में जीवन समस्या है। वह जीवन समस्या है व्यक्तिवाद की समस्या है। जो एक विशेष समाज एवं काल में विशेष प्रकार से उपस्थित हो सकती है। इसके साथ प्रसाद के व्यक्तित्व को मिलाकर देखना होगा।´

मुक्तिबोध की दृष्टि में जयशंकर प्रसाद का दर्शन

मुक्तिबोध के अनुसार जयशंकर प्रसाद का दर्शन ´एक उदार पूंजीवादी-व्यक्तिवादी दर्शन है, जो यदि एक मुँह से वर्ग-विषमता की निन्दा करता है; तो दूसरे मुँह से वर्गातीत, समाजातीत व्यक्तिमूलक चेतना के आधार पर,समाज के वास्तविक द्वन्द्वों का वायवीय तथा काल्पनिक प्रत्याहार करते हुए ´अभेदानुभूति´के आनंद का ही संदेश देता है।´

मुक्तिबोध के अनुसार प्रसादजी की कामायनी में चित्रित सभ्यता समीक्षा के प्रधान तत्व हैं, ´(1) वर्ग-भेद का विरोध और उसकी भर्त्सना,अहंकार की निन्दा-यह प्रसादजी की प्रगतिशील प्रवृत्ति है। (2) शाससकवर्ग की जनविरोधी, आतंकवादी नीतियों की तीव्र भर्त्सना- यह भी प्रगतिशील प्रवृत्ति है।(3)वर्ग-भेद का विरोध करते हुए भी मेहनतकशों के वर्गसंघर्ष का तिरस्कार –यह एक प्रतिक्रियावादी तत्व है।(4) वर्गहीन सामंजस्य और सामरस्य का वायवीय अमूर्त्त आदर असवाद,यह तत्व अपने अन्तिम अर्थों में इसलिए प्रतिक्रियावादी है कि (क)वर्ग-वैषम्य से वर्गहीनता तक पहुँचने के लिए उसके पास कोई उपाय नहीं,इस उपायहीनता का आदर्शीकरण है आदर्शवादी-रहस्यवादी विचारधारा;(ख)इस उपायहीनता का एक अनिवार्य निष्कर्ष यह भी है कि वर्तमान वर्ग –वैषमयपूर्ण स्थिति चिरंजीवी है;(ग)अगर इस यथार्थ की भीषणता में कुछ कमी की जा सकती है तो वह शासक की अच्छाई और उसके उदार दृष्टिकोण द्वारा ही सम्पन्न हो सकती है-(घ)इस विचारदारा के कारण आदर्श और यथार्थ के बीच अनुल्लंघ्य, अवांछनीय खाई पड़ जाती है।´

´प्रसादजी की सभ्यता -समीक्षा के दो दोष रह गये - (1) सभ्यता-समीक्षा एकांगी है,उसने केवल ह्रास को देखा,जनता की विकासमान उन्मेषशाली शक्तियों को नहीं देखा।(2) उनकी आलोचना अवैज्ञानिक है, वह समाज के मूल द्वंद्वों को नहीं पहचानती,मूल विरोधों को नहीं देखती। वह उन मूल कारणों और उसकी प्रक्रिया से उत्पन्न लक्षणों को एक साथ ही रखती है।´

विमर्श-

जयशंकर प्रसाद पर विचार करते समय बार-बार साहित्यिक रूढ़िवाद हमारे आड़े आता है। साहित्यिक रूढ़िवाद से आधुनिक आलोचना को कैसे मुक्त किया जाए यह आज की सबसे बड़ी चुनौती है। साहित्यकार और कृतियों के मूल्यंकन के क्रम में सबसे पहल समस्या है आलोचना को कृति की पुनरावृत्ति से मुक्त किया जाय। इन दिनों आलोचना के नाम पर वह बताया जा रहा है जो कृति में लिखा होता है। कृति में व्यक्त भावबोध को बताना आलोचना नहीं है। कृतिकार ने जो लिखा है वही यदि बता दिया जाएगा तो यह आलोचना नहीं होगी,बल्कि कृतिकार के विचारों या कृति में व्यक्त विचारों की जीरोक्स कॉपी होगी।लेखक या कृति के विचारों की जीरोक्स कॉपी नहीं है आलोचना। यहां से हमें आलोचना के साथ मुठभेड़ करनी चाहिए।

आलोचना में रूढ़िवाद का दूसरा रूप है अवधारणाहीन लेखन। इस तरह का लेखन आलोचना के नाम पर खूब आ रहा है। मसलन्, “विमर्श” पदबंध को ही लें, इस पदबंध के प्रयोग को लेकर नामवर सिंह से लेकर उनके अनेक अनुयायी आलोचकों ने इस पदबंध पर विगत दो दशकों में जमकर हमले किए हैं और इस पदबंध को उत्तर-आधुनिकतावाद पर हमले के बहाने निशाना बनाया है। इस प्रसंग में उनके सभी तर्क शास्त्रहीन और अवधारणाहीन रूप में व्यक्त हुए हैं।

सवाल यह है “डिसकोर्स” (विमर्श) किसे कहते हैं ?

क्या विमर्श से इन दौर में बचा जा सकता है ? विमर्श के दो प्रमुख नजरिए प्रचलन में हैं। समग्रता में “विमर्श” के ढाँचे का विचारधारात्मक अवधारणा के विभिन्न आयामों से गहरा संबंध है।प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धांतकार सुदीप्त कविराज ने “दि इमेजरी इंस्टीट्यूशन ऑफ इण्डिया”(2010)में इस पहलू पर रोशनी डालते हुए इसके विभिन्न अंगों का खुलासा किया है।

कविराज के अनुसार “विमर्श” में शब्द, विचार, अवधारणा, भाषण की प्रस्तुति, कार्यक्रम, रेहटोरिक, आधिकारिक कार्यक्रम आदि सभी आते हैं। ये सब “विमर्श” की आंतरिक व्यवस्था के अंग हैं। “विमर्श” इन सबको बांधने वाली संरचना है। कविराज ने “विमर्श” के दो स्कूलों की चर्चा की है, इनमें पहला वर्ग है संरचनावादियों का है। इसमें अनेक रंगत के संरचनावादी हैं। दूसरा, बाख्तियन स्कूल है। संरचनावादियों की मुश्किल यह है कि वेभाषण, लेखन, चिंतन आदि को विमर्श में शामिल तो करते हैं लेकिन एक-दूसरे के बीच में विनिमय नहीं देखते। उनके यहां भाषा ही “विमर्श” का मूलाधार है। इस क्रम में वे यह भूल जाते हैं कि भाषा के रूप इकसार नहीं होते, मृतभाषा और जीवंतभाषा में अंतर होता है। असरहीन भाषा और प्रभावशाली भाषा में अंतर होता है। वे यह भी नहीं देखते कि वक्तृता के समय वक्ता की भाषा भाषिक नियमों में बंधी नहीं होती बल्कि नेचुरल फ्लो में होती है।

कई बार वक्तृता में निहित साइलेंस बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। बल्कि यों कहें कि जो छिपाया जा रहा है वह बताए जा रहे यथार्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। प्रत्येक विधा और मीडियम की भाषा अलग होती है। सबको इकसार भाषिक रूप में नहीं देखना चाहिए। भाषा में नेचुरल या स्वाभाविक भाषा भी आती है और किताब भाषा या विधा विशेष की भाषा भी आती है। वह भाषा भी आती है जो अवधारणा में निहित होती है। यानी विमर्श का दायरा भाषा से शुरू तो होता है लेकिन भाषा तक सीमित नहीं है। वह अवधारणा और सैद्धांतिकी तक फैला है।

दूसरी ओर बाख्तियन (वोलोशिनोव) आलोचकों ने सवाल उठाया है “विमर्श”में भाषा के उपयोग का मकसद क्या है ?यानी भाषा से हम क्या करना चाहते हैं?

राजनेताओं के भाषण की भाषा में राजनीति प्रच्छन्न रूप में रहती है। राजनीति के बिना भाषा नहीं होती। “विमर्श” का मतलब है जीवित भाषा का अध्ययन करना। उसकी प्रस्तुतियों का अध्ययन करना। उन परिस्थितियों का अध्ययन करना जिसमें भाषा का संचार हो रहा है। साथ ही उन पहलुओं का भी अध्ययन करना जो भाषा के संदर्भ में निषेध में शामिल हैं।

वोलोशिनोव कहते हैं भाषण में भाषायी फिनोमिना को पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। इसमें वक्तृता में निहित व्यक्तिवादिता, अनुभव की अभिव्यक्ति और जीवन की व्यापकता का अध्ययन किया जाना चाहिए। इसी क्रम में सुदीप्त कविराज ने “विमर्श” में विचार और उसके आंतरिक कोहरेंस, बाह्य और आंतरिक चीजों के भाषायी अर्थ और संबंध, खासकर राजनीतिक घटना के साथ संबंध को जोड़कर देखने पर जोर दिया। इससे वक्तृता के आंतरिक और बाह्य रूप को समझने में मदद मिलेगी। साथ ही ‘थीम’ और ‘अर्थ’के बीच अंतर किया।इसी क्रम में “यूज मीनिंग” और “एक्ट मीनिंग” को मिलाकर ऐतिहासिक विश्लेषणबनता है। यह विचारधारा का हिस्सा है।

सवाल यह है “विमर्श” में “सेल्फ”(स्व) की क्या परिभाषा है ? किस तरह का स्व व्यक्त हो रहा है ?”स्व” को परिभाषित किए वगैर विमर्श नहीं बनता।

“स्व” को स्थिर या जड़ तत्व नहीं है। खासकर राजनीतिक व्यक्ति जब विमर्श में दाखिल होता है तो वह महज व्यक्ति नहीं होता,उसकी राजनीतिक विचारधारा होती है, समस्या यह है कि वह उस राजनीतिक विचारधारा को कितना जानता है ?उस पर उसका कितना नियंत्रण है ? वह किस तरह के माध्यमों के जरिए संप्रेषित कर रहा है ?

राष्ट्र, राष्ट्रवाद और विचारधारा- Nation, Nationalism and Ideology

आजकल ´राष्ट्रवाद´के सवाल पुनः केन्द्र में आ गए हैं। इस बहस के प्रसंग में पहली बात यह कि ´राष्ट्रवाद´का कोई एक रूप कभी प्रचलन में नहीं रहा। आम जनता में उसके कई रूप प्रचलन में रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान ´राष्ट्रवाद´के वैविध्यपूर्ण रूपों को समाज में सक्रिय देखते हैं। यही स्थिति स्वतंत्र भारत में भी रही है।

लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया में राष्ट्रवाद सामान्यतौर पर एक समानान्तर विचारधारा के रूप में हमेशा सक्रिय रहा है। मुश्किल उनकी है जो राष्ट्रवाद को लोकतंत्र की स्थापना के साथ हाशिए की विचारधारा मानकर चल रहे थे।

राष्ट्रवाद स्वभावतः निजी अंतर्वस्तु पर निर्भर नहीं होता अपितु हमेशा अन्य विचारधारा के कंधों पर सवार रहता है। राष्ट्रवाद के अपने पैर नहीं होते। यह आत्मनिर्भर विचारधारा नहीं है। आधुनिककाल आने के साथ ही ´राष्ट्रवाद´के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं, उनमें यह समाजवाद, उदारतावाद, अनुदारवाद यहां तक कि अराजकतावादी विचारधारा के कंधों पर सवार होकर आया है। राष्ट्रवाद के लिए कोई भी अछूत नहीं है, वह साम्प्रदायिक, पृथकतावादी, आतंकी विचारधाराओं के साथ भी सामंजस्य बिठाकर चलता रहा है। इसलिए ´राष्ट्रवाद´पर विचार करते समय उसका ´संदर्भ´ और ´सांगठनिक-वैचारिक आधार´जरूर देखा जाना चाहिए, क्योंकि वही उसकी भूमिका का निर्धारक तत्व है।

मार्क्सवादी आलोचक ´राष्ट्रवाद´को ´छद्म चेतना´ कहकर खारिज करते रहे हैं, जो कि सही नहीं है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि प्रत्येक विचारधारा में ´छद्म´या ´असत्य´भी होता है और ´संभावनाएं´ भी होती हैं। यही स्थिति ´राष्ट्रवाद´की भी है। हमें देखना चाहिए कि ´राष्ट्रवाद´की जब बातें हो रही हैं तो किस तरह के इतिहास और आख्यान के संदर्भ में हो रही हैं। क्योंकि ´राष्ट्रवाद´कोई ´तथ्य´या ´यथार्थ´का अंश नहीं है, वह तो विचारधारा है,उसका इतिहास और आख्यान भी है। जिस तरह प्रत्येक विचारधारा ´स्व´या सेल्फ के चित्रण या प्रस्तुति के जरिए अपना इतिहास बनाती है, वही काम ´राष्ट्रवाद´भी करता है। इसलिए ´राष्ट्रवाद´की कोई भी इकसार या एक परिभाषा संभव नहीं है।

´राष्ट्रवाद´पर विचार करते समय हम यह देखें कि देश को कैसे देखते हैं ॽ कहाँ से देखते हैंॽ और कौन देख रहा है ॽ

हिटलर के लिए ´राष्ट्रवाद´ का जो मतलब है वही गांधी के लिए नहीं है। समाजवाद में ´राष्ट्रवाद´ का जो अर्थ है वही अर्थ पूंजीवाद के लिए नहीं है।´राष्ट्रवाद´ के नाम पर इन दिनों वैचारिक मतभेद मिटाने की कोशिश की जा रही है,´राष्ट्र´ की आड़ में व्यक्ति, वर्ग और समुदाय के भेदों को नजरअंदाज करने की कोशिश की जा रही है।

असल में ´राष्ट्रवाद´तो भेद की विचारधारा है। फिलहाल देश में जो चल रहा है उसमें इसका तात्कालिकता, विदेशनीति और खासकर पाककेन्द्रत विदेश नीति, मुस्लिम विद्वेष, हिन्दुत्ववादी श्रेष्ठत्व से गहरा संबंध है।

´राष्ट्रवाद´में तात्कालिकता इस कदर हावी रहती है कि आपकी सूचनाओं का वैचारिक उन्माद की आड़ में अपहरण कर लिया जाता है। सूचनाओं के अभाव को उन्माद से भरने की कोशिश की जाती है।

स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्रवाद की साम्राज्यवादविरोधी धारा आम जनता को सचेत करने, दिमाग खोलने का काम करती थी, लेकिन इन दिनों तो ´राष्ट्रवाद´ आम जनता के दिमाग को बंद करने का काम कर रहा है, सूचना विपन्न बनाने का काम कर रहा है। पहले वाला ´राष्ट्रवाद´आम जनता की ´स्मृति´को जगाने, समृद्ध करने का काम करता था,लेकिन सामयिक हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद ´स्मृति´ पर हमला करने का काम कर रहा है। बुद्धि और विवेक के अपहरण का काम कर रहा है। पहले ´राष्ट्रवाद´ने कुर्बानी और त्याग की भावना पैदा की लेकिन हिन्दुत्ववादी ´राष्ट्रवाद´तो पूरी तरह अवसरवादी और बर्बर है। इसकी सामाजिक धुरी है मुस्लिम विरोध और अंत्यज विरोध। इसका लक्ष्य है अबाध कारपोरेट लूट का शासन स्थापित करना।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ´राष्ट्रवाद´के आंदोलन ´अन्य´को आलोकित करने, प्रकाशित करने का काम करता था, लेकिन मौजूदा हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद तो ´अन्य´का शत्रु है। यह सिर्फ ´तात्कालिक राजनीति´केन्द्रित है। जबकि पुराना राष्ट्रवाद अतीत,वर्तमान और भविष्य इन तीनों को सम्बोधित था।

साम्राज्यवाद विरोध ´राष्ट्रवाद´ का आख्यान ´रीजन´यानी तर्क के साथ आया लेकिन नया राष्ट्रवाद सभी किस्म के ´रीजन´का निषेध करते हुए आया, इसका मानना है कि आरएसएस जो कह रहा है उसे मानो, वरना ´देशद्रोही´ कहलाओगे। पुराने ´राष्ट्रवाद´के पास साम्राज्यवाद विरोध का महाख्यान था, लेकिन नए राष्ट्रवाद के पास तो कोई आख्यान नहीं है, बिना आख्यान के, सिर्फ रद्दी किस्म के नारों और डिजिटल मेनीपुलेशन के आधार पर यह अपना विस्तार करना चाहता है। जो उससे असहमत हैं उनको कानूनी आतंक के जरिए नियंत्रित करना चाहता है या फिर मीडिया आतंकवाद के जरिए मुँह बंद करना चाहता है।

पुराने वाले राष्ट्रवाद के सामने मुकाबले के लिए यूरोपीय राष्ट्रवाद था, लेकिन हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के सामने तो आम जनता ही है। यह आम जनता के शत्रु के रूप में सामने आया है।

राष्ट्र की पहचान क्षेत्र से जुड़ी है। इसके आधार पर अस्मिता बनती है। इसी तरह राष्ट्र की अस्मिता में क्षेत्र के अलावा भाषा का भी योगदान है, यही कारण है कि आधुनिककाल आने के बाद भाषा के आधार पर जातीयता या नेशनेलिटी का जन्म होता है। पहले भारत में कई किस्म की सांस्कृतिक-भाषायी संरचनाएं मिलती हैं जो अस्मिता बनाती हैं, इनमें पहली संरचना है संस्कृत भाषा और साहित्य की, दूसरी संरचना है अरबी-परशियन भाषा और साहित्य की, तीसरी संरचना है जनपदीय भाषाओं की और पांचवीं संरचना है बोलियों की। इसके अलावा ´जाति´या कास्ट की संरचना भी है जो राष्ट्र की पहचान से जुड़ी है। इसके अलावा ´राष्ट्र´ और ´क्षेत्रीय´का अंतर्विरोध भी है। ये सभी तत्व किसी न किसी रूप में ´राष्ट्र´ के साथ अंतर्क्रियाएं करते हैं। पुराने ´राष्ट्रवाद´को प्रभावित करते रहे हैं।

´राष्ट्रवाद´का आख्यान लिखते समय यह बात हमेशा ध्यान में रखें कि उसका बौद्धिक विमर्श, देश निर्माण की प्रक्रिया और नीतियों और बौद्धिक प्रक्रियाओं से गहरा संबंध रहा है। इसलिए हमें उन पक्षों को खोलना चाहिए। राष्ट्र का विमर्श मूलतः रूपों का विमर्श है। सुदीप्त कविराज ने इस प्रसंग में बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है। उनका मानना है कि राष्ट्रवाद अपने बारे में क्या कहता है उसकी उपेक्षा करें। आत्मकथा की उपेक्षा करें। इससे भिन्न उसके इर्द-गिर्द के सांस्कृतिक रूपों की व्याख्या करें। इनसे ´राष्ट्रवाद´के ऐतिहासिक विकास क्रम को सही रूप में देख सकेंगे।

जयशंकर प्रसाद के नाटकों से लेकर कविता तक राष्ट्र बनाम व्यक्ति का द्वंद्व केन्द्र में है और इसमें वे राष्ट्र की शक्ति के सामने व्यक्ति की सत्ता,महत्ता और असीमित दायरे का विकास करते हैं। वे राष्ट्र की सीमाओं से व्यक्ति के अधिकारों के दायरे को तय नहीं करते बल्कि मानवाधिकार के दायरे से व्यक्ति के अधिकारों को देखते हैं। वे व्यक्ति के सहज-स्वाभाविक विकास को महत्वपूर्ण मानते हैं। समाज के हित में विद्रोह करना, व्यक्ति के अधिकारों का विकास करना, समाज की कैद से मुक्त करके नए व्यक्तिवाद के आलोक में वे मनुष्य के विकास को महत्वपूर्ण मानते हैं। वे व्यक्ति की पहचान का आधार धर्म को नहीं मानते।

वे समाज की पहचान भी धर्म के आधार पर तय नहीं करते बल्कि उनकी रचनाओं के केन्द्र में मनुष्य है और उसके असीम व्यक्तिवाद के विकास को वे बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं। आधुनिक समाज में व्यक्तिवाद के विकास के बिना नए आधुनिक भारत का निर्माण संभव नहीं है साथ ही व्यक्तिवाद के विभिन्न रूपों की जितनी सुंदर व्याख्या उन्होंने की है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण सकारात्मक पक्ष है।

जगदीश्वर चतुर्वेदी

Jagadishwar Chaturvedi जगदीश्वर चतुर्वेदी। लेखक कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

Jagadishwar Chaturvedi जगदीश्वर चतुर्वेदी। लेखक कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

 





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