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Jallianwala Bagh @ 101: The Turning Point of History; Which changed both the condition and direction of India
Jallianwala Bagh History in Hindi
इतिहास के साथ एक सुविधा है, इसे आराम से देखा जा सकता है। दुविधा यह है कि दीवार पर लटकी तस्वीरों को बदलकर इसे बदला नहीं जा सकता। इतिहास हमेशा मैक्रो रूप में होता है एक सूर्य के दीप्तिमान पिंड पुंज की तरह। इसे नैनो या माइक्रो करके नहीं देखा जा सकता। किरण या प्रकाश के आभासीय रेशे में तोड़कर या किसी व्यक्ति या दल से जोड़कर नहीं समझा जाता। यह प्रवृत्ति और धारा में ही समझ आता है।
1757 में प्लासी के अनहुए युद्ध में हुयी हार से भारत का गुलाम बनना आरम्भ हुआ। पूरे सौ साल लग गए देशव्यापी प्रतिरोध संगठित करने में। 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम एक महाविस्फोट था। एक धमाका जिसने करोड़ों की नींद खोल दी, ब्रिटिश राज की चूल हिला दीं। किन्तु अपनी अनेक महानताओं के बावजूद यह निरन्तरित नहीं रहा - अंग्रेज हिन्दू-मुस्लिम कार्ड खेलकर अगले 90 साल गुजारने में सफल हो गए।
Jallianwala Bagh in Hindi
आज आराम से बैठकर पुनरावलोकन करते हुए समझा जा सकता है कि भारतीय इतिहास, खासकर स्वतंत्रता संग्राम का असली इग्निशन पॉइंट था जलियांवाला बाग़; जहां 13 अप्रैल 1919 को आजादी की लड़ाई और रौलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन के दो बड़े नेताओं - सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू - को कालापानी की सजा सुनाये जाने के विरोध में हुयी सभा पर डायर की अगुआई में हुए गोलीचालन में कोई 1000 लोग मारे गए थे, 2000 से अधिक घायल हुए थे। इस अभूतपूर्व अमानुषिक हत्याकांड के बाद राजनीतिक घटना विकास इतनी तेजी से बदला कि महज 29 साल में ही अंग्रेजों को बोरिया बिस्तरा बाँध कर जाना पड़ा।
बेहद निर्णायक गुणात्मक बदलावों का प्रस्थान बिंदु बना यह हत्याकांड। यहां इसके सिर्फ दो आयाम देखे जा रहे हैं।
पहला आयाम था स्वतंत्रता संग्राम का भावनात्मक मुद्दे से ऊपर उठकर गंभीर राजनीतिक वैचारिक विमर्श तक पहुंचना। कांग्रेस के 1921 के अधिवेशन में पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव आया।
कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से मौलाना हसरत मोहनी और स्वामी कुमारानन्द द्वारा रखे इस प्रस्ताव में पहली दफा - 5000 वर्ष में पहली बार - सबके बालिग़ मताधिकार के आधार पर संसदीय लोकतंत्र और अलग अलग प्रदेशों के संघ के रूप में - नए भारत की परिकल्पना किसी कागज़ में नजर आयी।
1924 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (बाद में आर्मी) बनी जिसके नायक सरदार भगत सिंह के समाजवादी विचारों ने देश की दिशा ही बदल कर रख दी। कराची में 1931 में हुए कांग्रेस अधिवेशन का मूलगामी प्रस्ताव आया जिसमें आजादी प्राप्त करने के बाद किस तरह की नीतियां अपनाई जाएंगी इसका ब्यौरा सूत्रबद्ध हुआ। इसी बीच हिन्दुस्तान के तब के उदीयमान पूंजीपतियों का बॉम्बे प्लान (1944) आया जिसने कांग्रेस के लिए आजादी के बाद के आर्थिक रास्ते को सूत्रबद्ध किया।
जलियांवाला बाग हत्याकांड की कहानी
थोड़ा ध्यान से निगाह डालें तो पता चलता है कि यह दौर उस समय के सबसे बड़े नेता गांधी के असाधारण रूप से इवॉल्व होने का दौर है - दिल में 1909 में लिखी खुद की किताब “हिन्द स्वराज" सहेजे बैठे गांधी का कराची प्रस्तावों वाले गांधी के रूप में विकसित होने का दौर।
यही 1919 के बाद का समय है जब जोतिबा फुले का जाति विरोधी सुधार आंदोलन एक संगठित और सर्वसमावेशी अजेंडे वाले राजनीतिक आंदोलन के रूप में सामने आया; डॉ. अम्बेडकर और पेरियार इसके प्रतीक बने, बाकी जो हुआ सो ताजा इतिहास है।
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दूसरा आयाम, बड़ा और युगांतरकारी बदलाव स्वतंत्रता संग्राम के चरित्र बदलने के रूप में हुआ। पढ़े लिखे भद्रजनों, वकीलों, उच्च मध्यमवर्गियों तक ही इसे सीमित रखने की समझ के बरक्स आम जनों को इसमें उतारने के ठोस प्रयास हुए। देश के मजदूर 1920 में आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के रूप में संगठित हुए। सोलह साल में तो जैसे काया ही पलट गयी। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा, प्रगतिशील लेखक संघ. इप्टा से होती हुयी यह जगार 1946 में नौसैनिकों की बगावत और उसकी हिमायत में हिन्दुस्तानी मेहनतकशों की शहादत तक पहुँची। आजादी की लड़ाई में अब शब्दशः करोड़ों लोग शामिल थे। इसने धजा कैसी बदली यह अक़बर इलाहाबादी का एक शेर समझा देता है कि;
“गो मुश्ते-खाक हैं मगर आंधी के साथ हैं
बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं।”
Jallianwala Bagh massacre (जलियाँवाला बाग हत्याकांड)
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एक बात और न जलियांवाला बाग़ अनायास हुआ था, ना ही उसके बाद का यह घटनाविकास स्वतःस्फूर्त था। उसकी एक बड़ी देशी पृष्ठभूमि थी; दुनिया के साम्राज्यवादी बंटवारे के लिए 1914 - 1918 का पहला विश्वयुद्ध हुआ था। इसमें बिना किसी वजह के भारत के 13 लाख सैनिक उन देशों की जनता से लड़ने गए थे जिनके साथ उनका कोई झगड़ा तो दूर जान पहचान तक नहीं थी। इनमें से 74 हजार मारे भी गए थे। मगर 12 लाख 26 हजार वापस भी लौटे थे। ये सब दुनिया देख कर आये थे। इतने बड़े पैमाने पर भारतीयों का विश्व से साक्षात्कार पहले कभी नहीं हुआ था। इसने उन देहाती भारतीयों के सोच विचार का फलक ही बदल दिया था।
दूसरी बड़ी घटना थी 1917 की रूसी क्रान्ति जिसने भारत सहित दुनिया के सभी गुलाम देशी की उम्मीद ही नहीं जगाई थी - एक बिलकुल नयी दुनिया असल में संभव है यह बनाकर भी दिखाई थी।
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जलियांवाला बाग़ जिसकी आज 101 वीं बरसी है - एक तरह से उस हिन्दुस्तान का बीज है जिसे हजार लोगों ने अपनी जान देकर अपने खून से सींचा था। जिसके चलते अगले 29 वर्षों में वह एक नए संविधान से सज्जित लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, एक नए सूचित और वैज्ञानिक रुझान के नागरिकों वाले विकसित और सभ्य समाज वाला देश बनने की राह पर आकर खड़ा हुआ।
इतिहास कथा कहानी भर नहीं होता। वर्तमान की चुनौतियों से जूझने और भविष्य की ओर यात्रा का औजार भी होता है। किसी अँधेरे मोड़ पर ठहराव सा दिखने पर उसे तोड़ने का फावड़ा भी होता है। एक जैसे हालात एक जैसी कार्यनीति का अवसर देते हैं। आज जब रौलेट एक्ट जैसे हालात हैं तो जलियांवाला बाग़ जैसे जमावड़े और उसके बाद की 29 सालों के तजुर्बे भी मौजूद हैं, रास्ता सुझाने के लिए।
बादल सरोज
संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा
सम्पादक लोकजतन