जोहार का अर्थ है, प्रकृति की जय। किसी तानाशाह की जय नहीं। इसीलिए हजारों सालों से आदिवासी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं दुनिया भर में। महामहिम ने अपने पहले वक्तव्य में जिंदगी की नर्क से निकलकर विश्व कल्याण के लिए लोकतंत्र के स्वर्णिम राजमार्ग की चर्चा की। उन्होंने आदिवासी जीवन, अस्तित्व और अस्मिता के प्रकृति से जुड़े होने की चर्चा की तो स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी विद्रोहों और महान आदिवासी पुरखों की शहादतों के बारे में भी बताया।
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हम उनकी बात और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की आदिवासियत्त की अवधारणा को समझ पा रहे हैं क्या?
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बड़े अफसोस की बात है कि हमारे प्रगतिशील साथियों की हालत खिसियानी बिल्लियों की सी हो गई है। इस ऐतिहासिक मौके का आदिवासी समुदायों के लिए महत्व उन्हें समझ में नहीं आ रहा। उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद द्रौपदी मुर्मू के वक्तव्य पर गौर भी नहीं किए। इनमें हमारे दशकों पुराने वे मित्र भी शामिल हैं जो लंबे अरसे से आदिवासियों के जल जंगल जमीन के हक हकूक के लिए लड़ रहे हैं और बहादुरी से सत्ता के दमन के खिलाफ प्रतिरोध में शामिल हैं।
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हमारे वैचारिक मित्र आदिवासी इतिहास, आदिवासियों की अस्मिता और आदिवासियत् और आदिवासी भूगोल की भावनाओं को समझ नहीं पा रहे।
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संघ परिवार की सत्ता के कितने साल हुए हैं? इससे पहले कौन सत्ता में थे? कार्पोरेट राज की शुरुआत करने वाले कौन थे?
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आजादी के बाद से आदिवासी भूगोल में सलवा जुडूम, बेदखली और विस्थापन और आदिवासी भूगोल के खिलाफ युद्ध जारी है। अलगाव में आदिवासी हैं।
सत्ता की राजनीति सभी दलों की एक है। वोटबैंक की राजनीति सभी करते हैं। अनुसूचित जातियों, जनजातियों और ओबीसी से लेकर स्त्रियों तक का सही प्रतिनिधित्व कभी नहीं हो पाता। सत्ता वर्ग की कठपुतलियों को ही चुना जाता है। ग्राम प्रधान से लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद तक। जो उनके समुदाय के हितों के खिलाफ और उनके दमन के लिए भी उनका इस्तेमाल करते हैं। संघ परिवार कर रहा है तो क्या कांग्रेस दूसरे दलों और वामपंथियों ने भी ऐसा नहीं किया?
अफसोस कि एक आदिवासी महिला के भारत का राष्ट्रपति बनने का भी गैर आदिवासी पढ़े लिखे लोग स्वागत नहीं कर पा रहे हैं।
कोलकाता में तो एक सज्जन ने यहां तक लिख दिया कि वे सनातन पंथी है तो जैसे अछूतों को दुर्गापूजा में कोई हक नहीं होता, वैसा राष्ट्रपति पद पर किसी आदिवासी का हक नहीं है। ऐसा लिखने के कारण उन्हें बड़े मीडिया हाउस की नौकरी गंवानी पड़ी, माफीनामा के बावजूद। फिर भी उन्होंने अपने मन की बात कर दी। बाकी लोगों के मन में कुछ है और जुबान पर कुछ।
लोकतंत्र और संविधान में कितनी मजबूत है हमारी आस्था?