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प्रतिष्ठित जर्नल साइंस में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन (Climate change), तापमान वृद्धि ( temperature rise) और बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई के कारण जंगल पहले की अपेक्षा अधिक युवा और आकार में छोटे होते जा रहे हैं. इसका सीधा असर जंगलों द्वारा कार्बन के भंडारण और वन्य जीवों पर पद रहा है.
इस अध्ययन का आधार पिछले कुछ वर्षों में इस विषय पर प्रकाशित लगभग 150 शोधपत्र हैं, जिनके अनुसार जंगल में बृक्षों की मृत्यु दर में तेजी आयी है. उत्तरी अमेरिका और अमेजन के जंगलों में यह मृत्यु दर लगभग दुगुनी हो गई है. वर्ष 1990 के बाद से पुराने जंगलों का क्षेत्र दो-तिहाई ही रह गया है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्बिंघम के टॉम पुघ के अनुसार पिछले एक शताब्दी के दौरान पेड़ों की मृत्यु दर बड़ी है और छोटे और नए बृक्षों का क्षेत्र बढ़ा है.
वर्ष 1990 के बाद से दुनिया के कुल जंगलों के क्षेत्र में 12 प्रतिशत की कमी आ गई है, जबकि 140 वर्ष या इससे भी पुराने बृक्षों का क्षेत्र 89 प्रतिशत से घटकर 66 प्रतिशत ही रह गया है.
भारत में वर्ष 2001 से 2018 के बीच लगभग 16 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल नष्ट कर दिए गए, यह क्षेत्र गोवा के क्षेत्रफल से चार गुणा अधिक है. नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर राज्यों के आधे से अधिक जंगल नष्ट किये जा चुके हैं.
भारत सरकार की जलवायु परिवर्तन को रोकने की तमाम प्रतिबद्धता के बीच यहाँ के जंगलों के नष्ट होने के कारण वायुमंडल में लगभग 17.2 करोड़ टन कार्बन का उत्सर्जन हुआ है.
वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (World Resources Institute) की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के वन क्षेत्र बढ़ने के दावों के विपरीत यह क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है. वर्ष 2000 में देश के 12 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल थे, जबकि 2010 तक यह क्षेत्र 8.9 प्रतिशत भू-भाग पर सिमट कर रह गया.
पिछले वर्ष जुलाई के अंत तक ब्राज़ील के अमेज़न क्षेत्र (Brazil's Amazon Region) में 10000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र के जंगल या तो काटे जा चुके थे या फिर नष्ट किये जा चुके थे.
ध्यान रहे कि यह क्षेत्र उस क्षेत्र से अलग है जो भयानक दावानल (जंगलों की आग) से नष्ट हो गए थे.
ब्राज़ील सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष अगस्त के महीने में अमेज़न के जंगलों में आग के कुल 80000 मामले दर्ज किये गए, यह संख्या इससे पिछले वर्ष की तुलना में 80 प्रतिशत अधिक है. नष्ट किया गया अमेज़न के वर्षा वनों का यह क्षेत्र पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 30 प्रतिशत अधिक है. यहाँ औसतन हरेक मिनट फुटबाल के 2 मैदान के बराबर जंगल कट रहे हैं. ब्राज़ील के सोशियो इकनोमिक इंस्टिट्यूट के निदेशक एद्रियाना रामोस के अनुसार सरकार पर्यावरण से सम्बंधित अपराध करने वालों का खुले आम साथ दे रही है.
जंगलों के साथ पूरे विश्व में ऐसा ही किया जा रहा है, पर अमेज़न के वर्षा वनों की अपनी अलग पहचान है. दुनिया के सबसे सघन वनों में शुमार अमेज़न के वर्षा वन दक्षिणी अमेरिका के लगभग हरेक देश में फैले हैं, इनके विशाल क्षेत्र और सघनता को देखते हुए ही इन्हें धरती का फेफड़ा कहा जाता है और पूरी दुनिया में इन्हें बचाने की मुहिम चल रही है.
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 20 वीं सदी के दौरान पूरी दुनिया में लगभग एक करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के वनों को नष्ट किया गया. इसके पहले वर्ष 2018 में फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में प्रति सेकंड एक फूटबाल के मैदान के बराबर जंगल काटा जा रहा है. पिछले 25 वर्षों के दौरान 13 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के जंगल काटे जा चुके हैं.
जंगलों के कटने से केवल वन क्षेत्र ही कम नहीं होता बल्कि वनस्पतियों, पशुओं, पक्षियों और कीटों की अनेक प्रजातियों का विलुप्तिकरण भी होता है. अनेक वनवासी जनजातियों का अस्तित्व भी संकट में पद जाता है. इसके अतिरिक्त घने जंगल साफ़ और मृदु पानी के सबसे बड़े स्त्रोत भी हैं.
फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन द्वारा वर्ष 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में मृदु पानी के कुल स्त्रोतों में से 75 प्रतिशत से अधिक वनों पर आधारित हैं और दुनिया के 50 प्रतिशत से अधिक आबादी के पानी की तमाम जरूरतें इन्ही मृदु जल स्त्रोतों से पूरी होती हैं.
जंगलों के कटाने के कारण भारी मात्रा में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है और यह गैस जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार है. दूसरी तरफ जंगलों को बचाने और इनका क्षेत्र बढाने के कारण इस गैस का अवशोषण होता है, और ये वायुमंडल में नहीं मिलतीं.
इन्टर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार तापमान वृद्धि के साथ-साथ जीवन को संभालने की पृथ्वी के क्षमता ख़त्म होती जा रही है. तापमान वृद्धि से सूखा, मिट्टी के हटने (मृदा अपरदन) और जंगलों में आग के कारण कहीं कृषि उत्पादों का उत्पादन कम हो रहा है तो कहीं भूमि पर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है. इन सबसे भूख बढ़ेगी, लोग विस्थापित होंगे, युद्ध की संभावनाएं बढेंगी और जंगलों को नुकसान पहुंचेगा. भूमि का विनाश एक चक्र की तरह असर करता है – जितना विनाश होता है उतना ही कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है और वायुमंडल को पहले से अधिक गर्म करता जाता है.
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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स के प्रोफ़ेसर पिएर्स फोरस्टर के अनुसार आईपीसीसी की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि पृथ्वी पर वनों का क्षेत्र बढ़ाना पड़ेगा और चारागाहों का क्षेत्र कम करना पड़ेगा.
आईपीसीसी की रिपोर्ट के एक लेखक प्रोफ़ेसर जिम स्केया के अनुसार पृथ्वी पहले से ही संकट में थी पर जलवायु परिवर्तन ने इस संकट को कई गुना अधिक बढ़ा दिया है. पृथ्वी के तीन-चौथाई से अधिक क्षेत्र में मानव की गहन गतिविधियाँ चल रहीं हैं. अवैज्ञानिक भूमि-उपयोग, जंगलों का नष्ट होना, अनगिनत पालतू मवेशियों का बोझ और रासायनिक उर्वरकों के अनियंत्रित उपयोग के कारण वायुमंडल में मिलाने वाले कुल कार्बन डाइऑक्साइड में से एक-चौथाई का योगदान है.
पृथ्वी के 72 प्रतिशत क्षेत्र में सघन मानव-जनित गतिविधियाँ चल रहीं हैं और केवल 28 प्रतिशत भू-भाग ऐसा है जिसे प्राकृतिक कहा जा सकता है. इसमें से 37 प्रतिशत क्षेत्र में घास का मैदान या चारागाह है, 22 प्रतिशत पर जंगल हैं, 12 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है और केवल एक प्रतिशत भूमि का उपयोग बस्तियों के तौर पर किया जाता है. पर, पृथ्वी के केवल एक प्रतिशत क्षेत्र में बसने वाला मनुष्य पूरी पृथ्वी, महासागरों और वायुमंडल को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है.
महेंद्र पाण्डेय