राजनीति, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की है और हिंदी भाषा और साहित्य के सत्यानाश की भी राजनीति है।
Advertisment
Hindi literary magazines have already closed
Advertisment
हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएं पहले ही बंद कर दी गईं। लघु पत्रिकाएं किसी तरह निकल रही हैं अजब जिजीविषा और गज़ब प्रतिबद्धता के साथ, जिन्हें न सत्ता का समर्थन है और न जनता का।
Advertisment
राष्ट्रभाषा हिन्दी के साहित्य का कोई पाठक नहीं है।
Advertisment
हिंदी जनता मेहनतकश ज्यादा है, जिनकी रोज़ी रोटी गम्भीर खतरे में हैं। बुनियादी जरूरतों और सेवाओं के लिए उसकी जेब में पैसे नहीं होते। किताबें कहाँ से खरीदें?
Advertisment
इस जनता के लिए कोई साहित्य प्रकाशित नहीं होता, क्योंकि यह घाटे का सौदा है।
पाठ्यक्रम, पुस्तकालय और सरकारी खरीद के लिए भारतीय भाषाओं में अंग्रेज़ी से भी महंगी किताबें छपी जाती हैं जो जनता की औकात से बाहर हैं।
यह हिंदी जनता को अपढ़-कुपढ बनाये रखने और ज्ञान विज्ञान से उन्हें वंचित करके अंधेर नगरी का आलम बनाए रखने की साजिश है।
ऐसी कैसी राष्ट्र भाषा, जिसके पाठक न हों?
बाकी भारतीय भाषाओं के पाठक हैं तो हिंदी के क्यों नहीं है?
पहले अखबारों में साहित्य होता था। रविवारीय परिशिष्ट साहित्यिक होता था।
साप्ताहिक हिंदुस्तान और साप्ताहिक धर्मयुग जैसी बेहद लोकप्रिय पत्रिकाएं छपती थीं।
अब क्यों नहीं?
हिंदी के नाम विदेश यात्राएं करके, पुरस्कार सम्मान पाने वाले, हिंदी प्रचार-प्रसार के लिए मोटी तनख्वाह वाले अफसर, संस्थानों, निदेशालयों और विश्वविद्यालयों के मठाधीश जवाब देंगे?
कादम्बिनी और नंदन का प्रकाशन बंद | Kadambini and Nandan cease publication
आज फिर बुरी खबर है कि कादम्बिनी भी बन्द कर दी गई है। इसके साथ बच्चों को साहित्य से जोड़ने का उपक्रम नंदन भी बंद हो गया है।
इनके अवसान पर हिंदी समाज के इस शोक समय में “प्रेरणा अंशु” और “हस्तक्षेप” की ओर से हमें हिंदी समाज के प्रति सहानुभूति है।
ऐसे में प्रेरणा अंशु जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन बेहद जरूरी है, जो हम हर कीमत पर जारी रखेंगे और जनता को साहित्य से, ज्ञान-विज्ञान से भी जोड़ेंगे। यकीनन।