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भाजपा का ओबीसी चेहरा थे कल्याण सिंह | Kalyan Singh, RSS and OBC politics
राजस्थान के पूर्व राज्यपाल और दो बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह (Former Chief Minister of Uttar Pradesh Kalyan Singh) का 21 अगस्त, 2021 को लखनऊ के एक अस्पताल में निधन हो गया. तब से भाजपा कुनबे के सभी सदस्य उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हुए उनकी प्रशंसा में गीत गा रहे हैं.
कल्याण सिंह भाजपा का ओबीसी चेहरा थे. उन्हें मुख्यतः इसलिए याद रखा जाएगा क्योंकि उन्होंने अपनी देखरेख में बाबरी मस्जिद का ध्वंस करवाया था. उस समय वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने राष्ट्रीय एकता परिषद (जिसका पुनर्गठन भाजपा सरकार ने आज तक नहीं किया है) की बैठक में यह वायदा किया था कि बाबरी मस्जिद की रक्षा की जाएगी. उन्होंने कई अदालतों में शपथपत्र देकर कहा था कि राज्य सरकार बाबरी मस्जिद की रक्षा के लिए हर संभव उपाय करेगी. परंतु जब मस्जिद पर हथौड़े चलने शुरू हुए तब उन्होंने वहां मौजूद पुलिस बल को दूसरी तरफ देखने के निर्देश दिए. जाहिर है कि इस स्थिति का लाभ उठाते हुए कारसेवकों ने वहां मनमानी की. उस समय आडवाणी, जोशी और उमा भारती मंच से कारसेवकों का मनोबल बढ़ा रहे थे.
बाद में उन्हें अदालत की अवमानना के लिए एक दिन की सजा सुनाई गई. इस सजा को उन्होंने अपना सम्मान माना और उसके बाद कुछ लोगों ने उन्हें 'हिन्दू ह्दय सम्राट' कहना शुरू कर दिया. वे गर्व से कहते थे कि भगवान राम के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार हैं और जो कुछ अयोध्या में हुआ उसका उन्हें तनिक भी खेद नहीं है.
लंबे समय तक भाजपा की छवि ऊंची जातियों की पार्टी की थी. कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार जैसे लोगों ने उसे ओबीसी की पार्टी भी बनाने में मदद की.
सन् 2014 के आम चुनाव में कल्याण सिंह ने अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की
कल्याण सिंह एक प्रमुख ओबीसी नेता थे जिनकी पैठ उनके स्वयं के लोध समुदाय के अतिरिक्त उत्तरप्रदेश की अन्य गैर-यादव ओबीसी जातियों जैसे मल्लाह, कुम्हार, कश्यप, कुर्मी आदि में भी थी. सन् 2014 के आम चुनाव में उन्होंने अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
'कल्याण सिंह फार्मूले' के अंतर्गत गैर-यादव ओबीसी को भाजपा-संघ के झंडे तले लाया गया. इससे भाजपा को चुनावों में जबरदस्त लाभ हुआ.
कल्याण सिंह भाजपा में कैसे आगे बढ़े
आरएसएस की शाखाओं में प्रशिक्षित कल्याण सिंह पर पहले नानाजी देशमुख और फिर लालकृष्ण आडवाणी की नजर पड़ी और दोनों ने उन्हें महत्वपूर्ण जवाबदारियां दिलवाईं.
उनकी राजनीति का सुनहरा दौर राम रथ यात्राओं के साथ शुरू हुआ. मंडल आयोग की रपट लागू किए जाने के बाद राममंदिर अभियान में और तेजी आई. आरएसएस के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता बतौर कल्याण सिंह, मंडल आयोग की रपट लागू किए जाने के खिलाफ थे. परंतु चुनावी कारणों से संघ परिवार सार्वजनिक रूप से मंडल आयोग की खिलाफत नहीं कर सकता था. वे संघ के तत्कालीन सहसरकार्यवाह भाऊराव देवरस से मिले. देवरस ने उन्हें इस मुद्दे पर आरएसएस की सोच से अवगत कराया और उनसे कहा कि राममंदिर आंदोलन जितना मजबूत होता जाएगा मंडल आयोग की रपट लागू होने का प्रभाव उतना ही कम होगा. इसी बात को अटलबिहारी वाजपेयी ने इन प्रसिद्ध शब्दों में व्यक्त किया था "वे जब मंडल लाए तो हमें कमंडल लाना पड़ा."
संघ परिवार उच्च जाति के अपने समर्थकों को यह संदेश देना चाहता था कि हां, हम आरक्षण के खिलाफ हैं और हम राममंदिर आंदोलन और रथयात्राओं के जरिए इसका विरोध कर रहे हैं.
संघ केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं है
सतही तौर पर ऐसा लग सकता है कि संघ केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ है और सभी हिन्दुओं का हितरक्षण करना चाहता है. परंतु दरअसल ऐसा नहीं है. संघ हिन्दू धर्म के अंदर भी जन्म-आधारित जातिगत और लैंगिक पदक्रम बनाए रखना चाहता है. उसका जन्म ही उस दौर में हुआ था जब महिलाओं की शिक्षा की राह प्रशस्त होनी शुरू ही हुई थी और दलितों ने भी आंदोलन की राह पकड़ ली थी. जोतिराव फुले ने महिलाओं और दलितों को शिक्षित करने का अभियान शुरू किया था ताकि वे जमीन की बेड़ियों से मुक्त हो शहरों में जाकर अपनी रोजी-रोटी कमा सकें. विदर्भ क्षेत्र का गैर-ब्राम्हण आंदोलन, फुले और उनके बाद अम्बेडकर की शिक्षाओं से प्रेरित था. यह आंदोलन ब्राम्हण जमींदारां के वर्चस्व को समाप्त करने पर केन्द्रित था.
इस सब के बीच हेडगेवार ने संघ की स्थापना की ताकि हिन्दू धर्म के अतीत का महिमामंडन किया जा सके. दूसरे संघसरचालक गोलवलकर, मनु की शिक्षाओं के समर्थक थे जिनकी पुस्तक 'मनुस्मृति' लैंगिक और जातिगत पदक्रम को बनाए रखने का मेन्युअल है. संघ ने सबसे पहले स्वयंसेवकों और प्रचारकों का एक विशाल नेटवर्क खड़ा किया जो जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव को औचित्यपूर्ण, धर्मसम्मत और देश की प्रगति की आवश्यक शर्त सिद्ध करने के अभियान में जुट गया. हो सकता है कि भारत के अतीत में बहुत कुछ बहुत अच्छा रहा हो परंतु यह निश्चित है कि उस समय दलितों और महिलाओं की स्थिति कतई अच्छी नहीं थी. जो लेखक भारत के अतीत का महिमामंडन करते हैं वे दलितों और महिलाओं की स्थिति के बारे में चुप्पी साध लेते हैं. उनके लिए भगवान बुद्ध और भक्ति संतों द्वारा प्रतिपादित समानता का सिद्धांत 'महान भारतीय सभ्यता' के इतिहास में एक छोटा-सा फुटनोट मात्र है.
अपना रंग बदलने में माहिर है आरएसएस
संघ अपना रंग बदलने में माहिर है. आज वह गोलवलकर की भाषा नहीं बोलता. परंतु उसके मूल्यों में कोई परिवर्तन नहीं आया है. वह हिन्दुओं को एक तो करना चाहता है परंतु हिन्दू धर्म के आंतरिक पदक्रम को छेड़ना नहीं चाहता. सैद्धांतिक स्तर पर वह कहता है कि सभी जातियां बराबर हैं और सभी हिन्दू धर्म को ताकत देती हैं. परंतु उसे यह स्वीकार नहीं है कि कमजोर जातियों को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने के लिए सकारात्मक भेदभाव की नीति अपनाई जाए. इसलिए संघ परिवार को आरक्षण स्वीकार्य नहीं है. और इसी नीति के अंतर्गत कमजोर और पिछड़े समुदायों को हिन्दू राष्ट्रवादी समाज का हिस्सा बनाने के लिए विविध रणनीतियां अपनाई जाती हैं जिनमें समाज सेवा और हिन्दू भावना को प्रबल करने के प्रयास शामिल हैं.
इन समुदायों (अर्थात दलित व ओबीसी) के बीच संघ परिवार के प्रचारक बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं. कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि संघ से इन समुदायों के लोगों के जुड़ने से संघ का चरित्र भी बदल रहा है. ऐसा हो रहा है या नहीं यह कहना मुश्किल है परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इन समुदायों के बीच संघ के काम ने भाजपा को आशातीत सफलता दिलवाई है. सन् 2019 के आमचुनाव में जहां कांग्रेस को ओबीसी के 15 प्रतिशत वोट मिले थे वहीं 44 प्रतिशत ओबीसी ने भाजपा का समर्थन किया था.
संघ परिवार हाशियाकृत और सबाल्टर्न समुदायों के प्रतीकों पर कब्जा जमाता जा रहा है. जिस क्षेत्र में वह काम करता है उसकी प्रकृति के आधार पर वह यह तय करता है कि उसे ईसाईयों के खिलाफ बोलना है या मुसलमानों के. संघ परिवार आरक्षण पर चोट करने का कोई मौका नहीं छोड़ता. जहां अम्बेडकर जाति के उन्मूलन की बात करते थे वहीं संघ परिवार 'जहां है जैसा है' आधार पर जातियों के बीच समरसता का हामी है.
नरेन्द्र मोदी ने ओबीसी परिवार में जन्म लेने का भरपूर फायदा उठाया है परंतु उनकी राजनीति पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्रवादी है. कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे लोगों ने संघ परिवार के झंडे तले ओबीसी को कुछ स्थान देने की कवायद की है. आज संघ परिवार का ध्यान मुख्यतः इन्हीं वर्गों पर केन्द्रित है. कल्याण सिंह ने इस प्रक्रिया की शुरूआत की थी. भाजपा और उसके साथीगण इन समुदायों को केवल एक सम्मानपूर्ण पहचान देना चाहते हैं. उन्हें उनके अधिकार देना या उनके लिए सकारात्मक प्रावधान करना संघ के एजेंडे में नहीं है.
राम पुनियानी
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)