बड़े ही स्याह मंज़र हैं
उनके फेंके…
किसी रंग की रौशनी
यहाँ तक पहुँचती ही नहीं
मैं क्या करूँ..?
कैसे दिखाऊँ…?
यह मंज़र
क्या ले जाऊँ..
इन मासूमों को घसीट कर..
लाल क़िले की प्राचीर तक..
या फिर
एय लाल क़िले
तुझे उठा कर ले आऊँ
इस अंधे कुएँ की मुँडेर तलक
कैसे चीख़ूँ कि
तमाम ज़ख़्मी जिस्मों की चीख़
से थर्रा उठे तू
तू छोड़
चीन पाकिस्तान
एय बेशर्म
हुकूमत…
बंद कर …
सरहदों पर अपने
तीखे तेवरों की नुमाइश
अखबारों की काली स्याही में छपे
अपने शौर्य के शग़ल
तेरी संस्कृति के क़िस्से
मुझसे और नहीं बाले जाते
तुझसे दो कौड़ी के छोरे
तलक नहीं संभाले जाते…
डॉ. कविता अरोरा

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