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कोविड-19 महामारी के जारी प्रकोप के बीच मोदी सरकार ने विगत 17 अप्रैल 2020 को इलेक्ट्रिसिटी संशोधन बिल 2020 का ड्राफ्ट (Draft of Electricity Amendment Bill 2020) पब्लिक ओपिनियन के लिए पेश किया है। पावर सेक्टर में जारी सुधार की प्रक्रिया को गति प्रदान करना इसका प्रमुख उद्देश्य बताया जा रहा है।
इलेक्ट्रिसिटी संशोधन बिल 2020 के प्रमुख बिंदु | Key Points of Electricity Amendment Bill 2020
इस बिल में कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं : टैरिफ दर का युक्तिसंगत, उर्जा नवीनीकरण पर जोर, बिजली वितरण क्षेत्र में डिस्ट्रीब्यूशन सब-लाइसेंस और फ्रेंचाइजी, बिजली का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, सब्सिडी और क्रास सब्सिडी को खत्म करने जैसे हैं।
अगर इसे सामान्य भाषा में कहें तो इसका मतलब यह होगा कि यह बिल डिस्कॉम (बिजली वितरण कंपनी) के निजीकरण के लिए प्रक्रिया आसान करेगा। अभी जो डिस्कॉम में पब्लिक सेक्टर का एकाधिकार है वह खत्म हो जायेगा और कारपोरेट सेक्टर अहम हो जायेगा।
डिस्कॉम के निजीकरण की प्रक्रिया (privatization of discoms in india) पीपीपी मॉडल (Ppp model) के तहत अमल में पहले से ही लायी जा रही है, वह तेज होगी।
लिहाजा बिना किसी खास निवेश के इतने बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर को कारपोरेट सेक्टर के मुनाफाखोरी व लूट के लिए मुफ्त में देने की योजना है। आगरा के टोरेंट पावर के बिजली वितरण के निजीकरण के प्रयोग से न सिर्फ सरकार को भारी घाटा हुआ है बल्कि उपभोक्ताओं को भी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
सीएजी की रिपोर्ट में भी खुलासा हुआ है कि किस तरह टोरेंट पावर ने घोटाला को अंजाम दिया है। इसके अलावा सर्वाधिक असर टैरिफ युक्तिसंगत से सब्सिडी और क्रास सब्सिडी खत्म होने से घरेलू व कृषि क्षेत्र के उपभोक्ताओं के लिए बिजली की दरों में भारी ईजाफा होगा।
दरअसल इससे इंडस्ट्री को फायदा होगा और सभी प्रकार के उपभोक्ताओं को एक समान दर से बिजली की आपूर्ति होगी।
निजीकरण की प्रक्रिया को तेज करने और आम उपभोक्ताओं पर भार डालने के मकसद से लाये जा रहे इस बिजली संशोधन अधिनियम का पूरे देश के बिजली कर्मचारियों द्वारा विरोध किया जा रहा है।
दरअसल 1991 से ही उदार अर्थनीति को लागू करने के बाद से ही पावर सेक्टर में भी इसी के अनुरूप सुधार लाने की कवायद तेज हो गई थी और पावर सेक्टर में आमूल चूल बदलाव लाना कारपोरेट के पैरवीकारों के लिए जरूरी था। इसी उद्देश्य से इंडियन इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 1910 व इलेक्ट्रिसिटी (सप्लाई) एक्ट 1948 को बदलाव करना जरूरी हो गया था।
बेशक उदार अर्थनीति के समर्थकों द्वारा इन पुराने कानूनों में कोई जनपक्षीय बदलाव नहीं किया जाना था बल्कि भारत में पावर सेक्टर एक उभरता हुआ और मुनाफा कमाने के लिए मुफीद सेक्टर था। इसी के मद्देनजर इलेक्ट्रिसिटी नियंत्रिकरण आयोग एक्ट 1998 और इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 को बनाया गया। स्टेट इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड को भंग कर निगमीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया इन कानूनों के बनने के बाद से तेज हुई।
इन कानूनों और नियम उपनियम बना कर निजी क्षेत्र को सहभागिता बढ़ाने के नाम पर भारी रियायतें दी गई। उन्हें बैंकों द्वारा सस्ते दर से कर्ज से लेकर सस्ती जमीन आदि मुहैया करायी गई। राज्यों द्वारा इनसे बिजली खरीदने के इस तरह से एग्रीमेंट किये गए कि कारपोरेट सेक्टर की बिजली कंपनियों को भारी मुनाफा पहुंचाया गया, जिसका दुष्परिणाम पब्लिक सेक्टर के पावर भारी सेक्टर भारी घाटे में चले गए। यह समझने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त है, अनपरा के पब्लिक सेक्टर की A व B बिजली परियोजना से डेढ़ रूपये की लागत से उत्पादित होने वाली बिजली को थर्मल बैकिंग के द्वारा बिजली का उत्पादन रोक कर उसी वक्त रिलायंस और बजाज की बिजली कंपनियों से 7-18 रू तक में बिजली खरीद की गई है।
इस समय भारत दुनिया में चीन और अमरीका के बाद तीसरे स्थान पर बिजली उत्पादन में है। आज कुल उत्पादन क्षमता करीब 3 लाख सत्तर हजार मेगावाट है और करीब एक लाख सत्तर हजार मेगावाट से ज्यादा बिजली का उत्पादन होता है।
अभी तक कारपोरेट सेक्टर में करीब 40% बिजली का उत्पादन किया जा रहा है। कारपोरेट द्वारा पावर सेक्टर में नियंत्रण स्थापित करने के बाद इसमें मुनाफा की गुंजाइश अभी भी काफी ज्यादा है। इसीलिए पावर सेक्टर में कारपोरेट जगत इतनी दिलचस्पी दिखा रहा है। लेकिन कारपोरेट की ज्यादा दिलचस्पी पावर सेक्टर में उत्पादन में नया निवेश के बजाय मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर को अपने अधीन करना है, इसी के लिए जो नियम कानून बनाये जा रहे हैं उन्हें सुधार का नाम दिया जा रहा है।
यह कथित सुधार और कुछ नहीं बल्कि पावर सेक्टर को पूरी तरह से कारपोरेट के हवाले करने की नीति है। लेकिन पावर सेक्टर की निजीकरण की प्रक्रिया का शुरू से ही बिजली कर्मचारियों द्वारा प्रबल विरोध के बावजूद ट्रेड यूनियन आंदोलन को अर्थवादी दायरे में बनाये रखने के चलते कभी भी निर्णायक दबाव नहीं बनाया जा सका।
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कर्मचारी आंदोलन की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर मोदी सरकार महामारी के इस दौर में बिजली से लेकर डिफेंस, कोयला, एअरलाइंस आदि में निजीकरण की प्रक्रिया तेज कर रही है। जबकि महामारी के इस संकट में सरकारी स्वास्थ्य, बिजली, परिवहन, सफाई आदि क्षेत्रों में पब्लिक सेक्टर ने अपनी भूमिका अदा की है और इसके कर्मचारी जान जोखिम में डालकर महामारी से निपटने में सीमित संसाधनों के बावजूद लगे हुए हैं वहीं इस दौर में भी कारपोरेट और निजी क्षेत्र मुनाफाखोरी व लूट की जुगत में है।
बावजूद इसके इन बुनियादी और महत्वपूर्ण सेक्टर में निजीकरण की प्रक्रिया को तेज किया जा रहा है। इसलिए आज जरूरत है कि मजदूर और कर्मचारी जो चौतरफा हमले हो रहे हैं चाहे निजीकरण का हो और चाहे श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाने की कार्यवाही हो, इसके खिलाफ राजनीतिक राजनीतिक प्रतिवाद में मजदूरों और कर्मचारियों को उतरना होगा, अन्यथा इन हमलों का मुकाबला करना मुमकिन नहीं होगा ।
राजेश सचान, युवा मंच