खान अब्दुल गफ्फार खान : मुसलमान रहे हैं साँझा राष्ट्रवाद के हामी

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hastakshep
22 Jan 2021
खान अब्दुल गफ्फार खान : मुसलमान रहे हैं साँझा राष्ट्रवाद के हामी

Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved in human rights activities for the last three decades. He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD

Khan Abdul Gaffar Khan: Muslims for Composite Indian Nationalism

हाल में हरियाणा के मुख्यमंत्री एम.एल. खट्टर की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि हरियाणा सरकार ने फरीदाबाद के खान अब्दुल गफ्फार खान अस्पताल का नाम बदल कर अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर (Khan Abdul Ghaffar Khan Hospital in Faridabad to Atal Bihari Vajpayee Hospital) रखने का निर्णय लिया है.

वर्तमान शासक दल, शहरों और सड़कों के नाम बदलने का अभियान चला रही है. अधिकांशतः मुस्लिम शासकों के नाम से परहेज किया जा रहा है. औरंगजेब रोड का नाम बदलकर एपीजे अब्दुल कलम रोड किया गया, मुग़लसराय का पंडित दीनदयाल उपाध्याय और फैजाबाद का अयोध्या. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चाहते हैं कि हैदराबाद का नाम भाग्यनगर कर दिया जाए.

एक समय भाजपा की सहयोगी रही शिवसेना औरंगाबाद, अहमदनगर और पुणे को नए नाम देने की बात करती रही है. शिवसेना इस खेल में बाद में उतरी है. भाजपा यह काम काफी पहले से करती आ रही है.

भाजपा मुस्लिम बादशाहों पर मंदिर तोड़ने, हिन्दुओं को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने, हिन्दू महिलाओं की अस्मत से खेलने आदि के आरोप लगाती रही है. वह यह भी मानती है कि इन बादशाहों ने जो कुछ किया, उसके लिए आज के मुसलमान भी ज़िम्मेदार हैं.

खान अब्दुल गफ्फार खान : राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का अनन्य अनुयायी

हरियाणा सरकार का निर्णय इस मामले में भिन्न है कि जिस संस्थान का नाम बदला जा रहा है वह किसी मुस्लिम राजा या बादशाह के नाम पर नहीं है. इस संस्थान का नामकरण एक ऐसे व्यक्ति की याद में किया गया है जो एक महान भारतीय राष्ट्रवादी था, जिसने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लम्बी लड़ाई लड़ी, जो धर्म के आधार पर भारत के विभाजन का विरोधी था और जो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का अनन्य अनुयायी था. खान अब्दुल गफ्फार खान को स्नेह से बादशाह खान और बच्चा खान भी कहा जाता था.

सीमान्त गाँधी के नाम से भी जाने जाते थे खान अब्दुल गफ्फार खान

बादशाह खान उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त (एनडब्ल्यूएफपी) के प्रमुख नेता थे जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने के कारण अंग्रेजों ने जेल में डाला और बाद में बहुवादी, प्रजातान्त्रिक मूल्यों की हिमायत करने पर, पाकिस्तान की सरकार ने.

सीमान्त गाँधी खुदाई खिदमतगार नामक संगठन के संस्थापक थे.

खुदाई खिदमतगार नामक संगठन अहिंसा और शांति की राह पर चलते हुए ब्रिटिश शासन का विरोध करता था. खुदाई खिदमतगार कितनी प्रतिबद्धता से ब्रिटिश शासन का विरोध करता था यह किस्सा ख्वानी बाज़ार की घटना से जाहिर है. यह घटना 1930 में पेशावर में हुई थी जब ब्रिटिश बख्तरबंद गाड़ियों ने शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे लोगों को कुचला और उनपर गोलियां बरसाईं.  

भारत विभाजन की सोच के सख्त ख़िलाफ थे सीमांत गांधी

खान बाबा बंटवारे के ही नहीं उसके पीछे की सोच के भी सख्त खिलाफ थे. जब कांग्रेस के नेतृत्व को न चाहते हुए भी विभाजन को स्वीकार करना पड़ा और यह तय हो गया कि एनडब्ल्यूएफपी पाकिस्तान का हिस्सा होगा तब उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व को कहा कि "आपने हमें भेड़ियों के सामने फ़ेंक दिया है."

विभाजन के बाद उनके कई अनुयायी फरीदाबाद में बस गए और उन्होंने अपने प्रिय नेता की याद में यह अस्पताल बनवाया. उनमें से कुछ, जो अब भी जीवित हैं, को अस्पताल का नामकरण वाजपेयी के नाम पर करने में भी कोई आपत्ति नहीं है. उनका इतना भर कहना है कि खान बाबा के नाम पर एक नया अस्पताल बनवाया जा सकता है ताकि स्वाधीनता आन्दोलन के इस योद्धा, जो कभी अपने सिद्धांतों से डिगा नहीं, की स्मृतियों को चिरस्थाई बनाया जा सके.

आज के सत्ताधारी दल के राजनैतिक पूर्वजों ने स्वाधीनता संग्राम में कभी कोई हिस्सेदारी नहीं की. वे अब देश के निर्माण में इस्लाम और मुसलमानों की भूमिका की निशानियाँ मिटा देना चाहते हैं.

मध्यकालीन मुसलमान शासकों को हैवान सिद्ध करने के अपने अभियान के बाद अब भाजपा का ध्यान उन मुसलमानों पर केन्द्रित होता जा रहा है जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में महती भूमिका निभायी है. यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमान शुरू से ही पृथकतवादी थे और पाकिस्तान के निर्माण में उन्हीं की भूमिका है. यह सोच भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास की सतही समझ पर आधारित है.

मुस्लिम लीग, जिसके पीछे नवाब और जमींदार थे, अधिसंख्य आम मुसलमानों की प्रतिनिधि नहीं थी. निश्चय ही मुस्लिम लीग में कुछ मध्यमवर्गीय मुसलमान थे, परन्तु देश के बहुसंख्यक मुसलमानों ने कभी उसका समर्थन नहीं किया. उस समय मत देने का अधिकार केवल संपत्ति स्वामियों और डिग्रीधारियों को था और वे ही मुस्लिम लीग को वोट दिया करते थे. आम मुसलमान स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा थे.

मुस्लिम लीग ने हिन्दू महासभा के साथ मिलकर सिंध और बंगाल में अपनी सरकारें बनाने में भले की सफलता हासिल कर ली हो परन्तु औसत मुसलमान उसकी पृथकतवादी राजनीति से दूर ही रहे. भले ही जिन्ना को मुसलमानों का नेता माना जाता हो, परन्तु तथ्य यह है कि ऐसे कई मुसलमान नेता थे जो स्वाधीनता आन्दोलन के समर्थक थे और धर्म-आधारित द्विराष्ट्र सिद्धांत में विश्वास रखने वाले सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ थे.

शम्शुल इस्लाम ने अपनी पुस्तक 'मुस्लिम्स अगेंस्ट इंडियास पार्टीशन' में बहुत बेहतरीन तरीके से उन मुसलमानों की राजनीति की विवेचना की है जिन्हें वे राष्ट्रप्रेमी मुसलमान कहते हैं - अर्थात वे मुसलमान जो भारत की साँझा संस्कृति में विश्वास रखते थे.

पाकिस्तान के निर्माण की मांग को लेकर जिन्ना के प्रस्ताव के प्रतिउत्तर में अल्लाहबक्श, जो दो बार सिंध प्रान्त के प्रधानमंत्री रहे थे, ने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समर्थन में उन्हें दी गयी सभी उपाधियाँ लौटा दीं थीं. उसके पहले, उन्होंने भारत के विभाजन की मांग का विरोध करने के लिए 'आजाद मुस्लिम कांफ्रेंस' का आयोजन किया था. उनकी इस कांफ्रेंस को आम मुसलमानों का जबरदस्त समर्थन मिला. कांफ्रेंस में अपने भाषण में उन्होंने कहा कि भले ही हमारे धर्म अलग-अलग हों परन्तु हम भारतीय एक संयुक्त परिवार की तरह हैं जिसके सदस्य एक-दूसरे की राय और विचारों का सम्मान करते हैं. ऐसे कई अन्य मुस्लिम नेता थे जिनकी मुसलमानों में गहरी पैठ थी और जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते थे. उनमें से कुछ थे शिबली नोमानी, हसरत नोमानी, अशफाक़उल्ला खान, मुख़्तार अहमद अंसारी, शौकतउल्लाह अंसारी, सैयद अब्दुल्ला बरेलवी और अब्दुल मज़ीज़ ख्वाजा.

इसी तरह, मौलाना अबुल कलम आजाद का कद भी बहुत ऊंचा था और वे एक से अधिक बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. उनके अध्यक्षता काल में ही कांग्रेस ने 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन का सूत्रपात किया, जो कि देश का सबसे बड़ा ब्रिटिश-विरोधी आन्दोलन था. मुसलमानों के कई संगठन जैसे जमात-ए-उलेमा-हिन्द, मोमिन कांफ्रेंस, मजलिस-ए-अहरारे-इस्लाम, अहले हदीस और बरेलवी और देवबंद के मौलानाओं ने स्वाधीनता आन्दोलन को अपने संपूर्ण समर्थन दिया. मुस्लिम लीग इन राष्ट्रवादी मुसलमानों के खिलाफ थी.

बाबा खान की याद में बने अस्पताल का नाम बदलना, सांप्रदायिक राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं है.

शासक दल जनता के दिमाग से स्वाधीनता संग्राम सेनानी मुसलमानों की स्मृति मिटा देना चाहता है, जिन्होंने स्वाधीनता की लड़ाई में बेमिसाल भागीदारी की.

राम पुनियानी

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)





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