बहार
जब गुल बूटे पहनती
तो हर शाम
छतों पर मँडराता
पतंग का मौसम ....
चरखियों की डोर
कमर से बाँध
हवाओं पर
सरकती सरकती
फ़लक तक जा पहुँचती थी
लाल नीली पीली अद्धी पौनी
मंझोली, हर तरह की पतंग
तुक्कल, लुग्गो का
रक़्स होता था
बहारों के मौसम में
बसंत आते ही
पतंगें सरसराती
ठुमके लगातीं
दिल बहल जाया करता था
फ़लक का
दो बाँस के खपंचे पर नाचते
रंगीन काग़ज़ के टुकड़ों से,
धागे धागों में उलझते
तो चकरघिन्नी सी घूमा करती
अद्धी संग मंझोली,
मगर कुछ नाज़ुक सी
पतंगों को, चक्कर आते थे
लहरा के गिरती थीं
ज़मीं की तरफ़
तो गरदनें ऊँची किये हुए ही
बन्नियां टाप जाते थे
हवाओं में माँझे के
सिरे पकड़ने को
मुहल्ले भर के लड़के
गली भर में शोर होता था
लुग्गे लूटने वालों का
इक अरसा हुआ
नहीं खिला
फलक पर
पतंग का मौसम
जरा सी ज़र्ब से
टूटी जो डोरियां
उन पतंगों को
वक्त ले उड़ा
कुछ आवारा हवाओं के
हाथ लग गयीं
कुछ को बरगद की
ऊँची शाख़ों ने लपक लिया
वो जो ख़ुदमुख़्तार थीं,
जा उलझी खंभों की तारों में,
और तेज़ हवाओं ने उन पतंगों के
कपड़े चिथड़ दिये .....
डॉ कविता अरोरा
(डॉ कविता अरोरा के संकलन पैबंद की हँसी से)
दिल को छू गईं पैबंद की हंसी की कविताएँ : फहीम चौधरी (फिल्म निर्देशक) | hastakshep