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Know why it is important to find an alternative to BSP and SP!
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 (Uttar Pradesh Assembly Election 2022) में भाजपा के पुनः सत्ता में आने से बहुजन समाज के लोगों को जितना आघात लगा है, उससे कई गुणा आघात उस बहुजन समाज पार्टी की हैरतअंगेज पराजय (Surprising defeat of Bahujan Samaj Party in Uttar Pradesh Assembly Election 2022) से लगा है,जिससे लोग वर्षों से बहुजन मुक्ति की आस लगाए हुए थे.
बसपा के मतों और सीटों में लगातार होती रही है गिरावट
वैसे 2007 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने के बाद 2009 के लोकसभा चुनाव; 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव; 2014 के लोकसभा चुनाव; 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव तक जिस तरह चुनाव दर चुनाव बसपा के वोटों और सीटों में गिरावट दर्ज होती रही है, उससे लोग 2022 में किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद नहीं कर रहे थे. बावजूद इसके बसपा के दुश्मनों तक ने सपने में भी नहीं सोचे थे कि पार्टी एक सीट तक सिमट कर रह जाएगी, लेकिन अप्रिय सच्चाई है कि पार्टी विलुप्ति के कगार पर पहुँच गयी है.
2007 तक ऐसा होता था कि जब विपक्षी पार्टियों का चुनाव प्रचार शुरू होता था, तबतक मायावती अपना चुनाव प्रचार प्रायः मुकम्मल कर लेतीं रहीं. किन्तु रहस्यमय कारणों से 2007 के बाद मायावती की वह तत्परता गायब होती गयी. इसीलिए जब इस चुनाव में मायावती बहुत लेट से सक्रिय हुईं तथा सक्रिय होने बाद महज 26 मीटिंगे कीं, बसपा समर्थकों को लगने लगा कि पार्टी 2012 और 2017 की भांति फिर एक बार हारने जा रही है. ऐसा लगने के कारण बसपा के कोर वोटर भारी मात्रा में सपा की ओर चले गए. पर, पार्टी की तैयारियों में तमाम खामियों के बावजूद किसी को यकीन नहीं था कि यह एक सीट पर सिमट सकती है. किन्तु चार बार यूपी में सत्ता सँभालने वाली पार्टी के साथ यह हादसा हो चुका है.
हालांकि पार्टी 2014 में भी भी शून्य पर पहुंची थी, लेकिन वह लोकसभा चुनाव था, इसलिए लोग किसी तरह यह सोचकर 2014 की हार झेल लिए थे कि मायावती इसे एक सबक के रूप में लेते हुए ऐसा कुछ करेंगी कि जिससे इसकी भरपाई आने वाले विधानसभा चुनाव में हो सके. लेकिन मायावती जी ने न तो खुद की कार्यशैली में और न ही पार्टी में कोई ठोस सुधार किया, जिसके फलस्वरूप 2012 के 80 सीटों के मुकाबले 2017 में बसपा 19 सीटों पर सिमट कर रह गयी, अवश्य ही उन्होंने 2019 में सपा के साथ गठबंधन कर एक बड़े बदलाव का संकेत दिया. इस गठबंधन से भाजपा की बढ़त को तो खास नहीं रोका जा सका किन्तु, 2014 में शून्य पर पहुँचने वाली बसपा 10 सीटें जीतने में सफल रही. घाटे में रहे अखिलेश यादव जिन्होंने मायावती को मनचाही सीटें देकर अपनी स्थिति कमजोर कर लिया था. लेकिन बसपा की तुलना में आधी सीटें पाने के बावजूद अखिलेश यादव के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई. वह संतुष्ट दिखे.
कम सीटें पाने के बावजूद जिस तरह अखिलेश यादव गठबंधन को जारी रखने के लिए आग्रही दिखे, उससे यूपी के दलित-पिछड़ों और मुसलमानों में बहुत आश्वस्ति का भाव आया. लोग यह सपना देखने लगे कि जिस तरह कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के मिलने से कभी जय श्रीराम हवा में उड़ गए थे, वह इतिहास यूपी में 2022 में फिर दोहराया जा सकता है. इस कारण लोग लोकसभा 2019 के बुरे परिणाम को भूलकर 2022 के सपनों में विभोर होने लगे. लेकिन यूपी का बहुजन 2022 में भाजपा की विदाई का सपना ठीक से देखना भी शुरू नहीं किया ही था कि मायावती ने दुनिया को विस्मित करते हुए बिना किसी ठोस कारण के सपा से गठबंधन तोड़ दिया. उसी दिन बहुजनों को लग गया कि यह सब 2022 में भाजपा की राह आसान करने के मकसद से किया जा रहा है.
अखिलेश यादव की तरफ शिफ्ट हो गई दलित समाज की सहानुभूति
मायावती द्वारा अकारण गठबंधन तोड़ते ही पूरे दलित समाज की सहानुभूति (sympathy of dalit society) अखिलेश यादव की ओर शिफ्ट हो गयी.
मायावती के उस कदम ने अखिलेश यादव को रातों रात और मजबूत कर दिया. लोगों में यह सन्देश गया कि वही 2022 में भाजपा को रोक सकते हैं, इसलिए मुसलमान तो पहले से उनके साथ थे ही, भाजपा से त्रस्त दलित भी रातों रात उनकी ओर मुड़ गए. लगा अखिलेश दलितों में आये इस बदलाव का सद्व्यवहार कर खुद को और मजबूत करेंगे तथा यूपी में सामाजिक न्याय के सबसे बड़े चेहरे के रूप में खुद को स्थापित करेंगे. लेकिन यह भ्रम साबित हुआ. उन्होंने कुछेक दलित नेताओं को अपने खेमे में जरूर लाया, किन्तु मायावती से निराश उस दलित समाज को अपनी खींचने का वैसा बलिष्ठ प्रयास नहीं किया, जो दलित समाज भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए मायावती द्वारा गठबंधन तोड़ने के बाद सपा से जुड़ने का मन बना लिया था.
दलित समाज के जागरूक लोग यह चाहते थे कि चुनाव के दौरान अखिलेश यादव एक बार मायावती द्वारा शुरू किये गए ठेकों में आरक्षण के खात्मे तथा संसद में सपा के सांसद द्वारा प्रमोशन में आरक्षण का बिल फाड़ने के लिए खेद प्रकट कर संकेत दें कि वह सामाजिक न्याय की ओर वापसी कर चुके हैं, किन्तु अखिलेश यादव ने ऐसा नहीं किया. यदि ऐसा करते तो शर्तिया तौर पर और भारी संख्या में दलित तथा सामाजिक न्याय समर्थक और भारी संख्या में सपा की ओर मुड़ते और चुनाव परिणाम चौंकाने वाला होता, किन्तु उन्होंने जनवरी के तीसरे सप्ताह से सामाजिक से दूरी बना ली.
इसके पहले स्वामी प्रसाद मौर्य के सपा से जुड़ने के बाद तीन-चार दिनों तक लगा, वह इस चुनाव में भाजपा को सामाजिक न्याय के मुद्दे पर चुनौती (Challenge to BJP on the issue of social justice) देंगे. स्वामी प्रसाद मौर्य के सपा ज्वाइन करने का स्वागत करते हुए अखिलेश यादव ने ट्वीट कर कहा था, ’सामाजिक न्याय और समता- समानता की लड़ाई लड़ने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य जी एवं उनके साथ आने वाले अन्य सभी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों का सपा में ससम्मान हार्दिक स्वागत एवं अभिनंदन. सामाजिक न्याय का इन्कलाब होगा- बाइस में बदलाव होगा.’
स्वामी प्रसाद मौर्य के सपा से जुड़ने से उत्साहित अखिलेश यादव ने एक और एक और ट्वीट में कहा है,’ इस बार सभी शोषितों, वंचितों, उत्पीड़ितों, उपेक्षितों का ‘मेल होगा और भाजपा की बांटने व अपमान करने वाली राजनीति का इन्कलाब होगा. बाइस में सबके मेल मिलाप से सकारात्मक राजनीति का मेला होबे. भाजपा की ऐतिहासिक हार होगी.’
जमीन से जुड़े स्वामी प्रसाद जैसा नेता के भाजपा छोड़ने और सपा ज्वाइन करने से अचानक यूपी की चुनावी में फिजा में बड़ा बदलाव आ गया.
इसके पहले योगी सरकार के खिलाफ लोगों में जबरदस्त आक्रोश था,पर यह मौर्य के आने के बाद ही सपा के पक्ष में जाता हुआ दिखाई पड़ा. 11 जनवरी को स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा छोड़ सपा में शामिल होकर 85 बनाम 15 की हुंकार भरे. 85 बनाम 15 : यह वह मुद्दा था जिसे सुनने के लिए यूपी ही नहीं : पूरे भारत का दलित, आदिवासी, पिछड़ा और मुस्लिम समुदाय वर्षों से तरस रहा था.
स्वामी प्रसाद मौर्य द्वारा पच्चासी बनाम पंद्रह का मुद्दा उठाते ही पूरे भारत का जन्मजात वंचित तबका रातों रात सपा की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखने लगा. और यह उम्मीद तब एवरेस्ट शिखर से मुकाबला करने लगी जब स्वामी के 85 बनाम 15 के हुंकार का समर्थन करते हुए अखिलेश यादव ने यह कह दिया था, ’सपा सत्ता में आने के तीन महीने के अन्दर जातीय जनगणना शुरू कराएगी और उन आकड़ों के आधार पर सभी समाजों के लिए समानुपातिक भागीदारी अर्थात जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी की नीति लागू करेगी.’
बहुत से राजनीतिक पंडितों के मुताबिक योगी के खिलाफ पनपे जनाक्रोश के बावजूद जो भाजपा मोदी- शाह जैसे अपने स्टार प्रचारकों, साधु -संतों और संघ के आनुषांगिक संगठनों के जोर से यूपी चुनाव में 80 प्रतिशत के करीब जीत की सम्भावना बनाये हुए थी, वह स्वामी और अखिलेश के सामाजिक न्यायवादी बयानों के चलते महज दो-तीन दिन में 80 से घटकर 50 से भी नीचे आ गयी. उसके बाद जिस तरह अखिलेश यादव कई मंचों से समानुपातिक भागीदारी की बात उठाये, आश्चर्यजनक रूप से सपा विजेता के रूप में नजर आने लगी और अखिलेश यादव में लोग भावी प्रधानमंत्री तक की छवि देखने लगे. किन्तु अखिलेश यादव सपा के पक्ष में आकस्मिक रूप से आये सुखद बदलाव का आकलन न कर सके और धीरे-धीरे वह घिसे-पिटे मुद्दों पर लौटने लगे. हद तो हो गयी जब जनवरी बीतते-बीतते वह सत्ता में आने पर मंदिरों में नियुक्त ब्राह्मण पुजारियों को मानदेय देने तथा ब्राह्मणों पर दायर मुकदमे वापस लेने की घोषणा करने लगे. इन घोषणाओं से जनवरी के तीसरे सप्ताह से समानुपातिक भागीदारी के मुद्दे से दूरी बनाते- बनाते फ़रवरी में ब्राह्मणों के हित में पहले जैसा सदय होकर अखिलेश यादव 11 जनवरी के पहले वाले स्थिति में पहुँच गए हैं.
दूसरी ओर भाजपा योगी के 80 बनाम 20 को को निरंतर नयी –नयी ऊंचाई देते हुए एक बार फिर विजेता के रूप में उभर आई. और बाद में फ़रवरी के दूसरे सप्ताह में जब सपा का घोषणा पत्र जारी हुआ, उसमें सामाजिक न्याय से जुड़ा एक भी पैरा न देखकर लोग अनुमान लगा लिए कि सपा 2014, 2017 और 2019 की भांति फिर एक बार चुनावों में सामाजिक न्याय से दूरी बनाने जा रही है.
सपा के घोषणापत्र को सामाजिक न्याय के मुद्दे से शून्य देखते हुए मैंने 10 फ़रवरी को प्रकाशित अपने एक लेख में निष्कर्ष दिया था, ’अखिलेश यादव ने एक ऐसा घोषणापत्र जारी किया है, जिसे देखकर लगता है मानों उन्होंने भाजपा को जिताने की सुपारी ले रखी है!’
चुनाव में सामाजिक न्याय की बात न उठाना भाजपा को ‘जीत थाली में सजाकर देना’ है, इस परीक्षित सच्चाई को जानते हुए भी यूपी विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और मायावती बड़ी सफाई से सामाजिक न्याय से दूरी बनाये रखे. यही कारण है मशहूर पत्रकार दिलीप मंडल चुनाव परिणाम आने के बाद टिप्पणी कर दिए, ‘अभी संपन्न हुए यूपी विधानसभा चुनाव में सामाजिक न्याय मुद्दा ही नहीं था. लोगों के पास सामाजिक न्याय के आधार पर वोट डालने का विकल्प नहीं था. किसी भी राजनीतिक पार्टी ने सामाजिक न्याय को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया. सपा और बसपा मुख्य रूप से दो आधार पर चुनाव लड़ रही थी. दोनों पार्टियां दावा कर रही थीं कि वे बीजेपी को रोकने में ज्यादा सक्षम हैं, इसलिए मुसलमान उन्हें वोट दें. सपा विकास के आधार पर जबकि बसपा कानून व्यवस्था के नाम पर वोट मांग रही थी.’
वास्तव में कुछ अज्ञात कारणों से सपा – बसपा ने विधानसभा चुनाव- 2022 जीतने में आतंरिक प्रयास ही नहीं किया, चुनाव परिणाम आने के बाद ढेरों लोगों की यही राय रही! इस विषय में प्राख्यात बहुजन पत्रकार उर्मिलेश की यह राय काफी महत्त्वपूर्ण है. चुनाव परिणाम आने के बाद उन्होंने एक लेख में कहा है, ’बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के कुछ 'बौद्धिक समर्थकों' को अब भी लग रहा है कि उन दोनों की पार्टियों को ईवीएम के जरिये हराया गया है. ऐसे भ्रांत सोच से इन दोनों पार्टियों के कथित बौद्धिक-समर्थक या मित्र सपा और बसपा की चुनावी हार के असल राजनीतिक कारणों को कभी ठीक समझ नहीं पायेंगे! सबसे पहले, बसपा के बौद्धिक समर्थकों से एक सवाल : उन्होंने कभी यह जानने की ईमानदार कोशिश की है कि बीते सात-आठ साल से बसपा का नेतृत्व क्या चुनाव जीतने के लिए लड़ता है या किसी को हराने-जिताने और अपने को बचाने के लिए लड़ता है?
सपा के बौद्धिक समर्थकों से एक सवाल : चुनाव से पहले पूरे पौने पांच साल आप की पसंदीदा पार्टी जनता के बीच कुछ करती क्यों नहीं? हाल के दो विधानसभा चुनावों के दौरान उसकी क्या रणनीति रही है : चुनाव जीतना या नंबर दो बने रहना?... यूपी के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी, ये दोनों पार्टियां अब भारतीय जनता पार्टी-आरएसएस की चुनौती का सामना करने में अक्षम हो चुकी हैं. उसकी सबसे बड़ी वजह है कि इन दोनों पार्टियों के पास भाजपा-आरएसएस का राजनीतिक मुकाबला करने के लिए जरूरी न ठोस विचारदृष्टि है और न तो समर्थ संगठन है. अपने-अपने समर्थकों की कम या अधिक भीड़ से ये दोनों पार्टियां सांगठनिक और वित्तीय रूप से एक मजबूत शक्ति- भाजपा (जो राज्य और केंद्र की सत्ता में भी है) का कैसे मुक़ाबला कर सकती हैं? आज के दौर में सिर्फ विचार और संगठन आधारित कोई राजनीतिक दल ही भाजपा-आरएसएस की चुनौती का कारगर ढंग से मुकाबला कर सकता है! इसलिए बसपा और सपा अगर अपने को नये विचार और मजबूत कार्यकर्ता-आधारित संगठन से लैस नहीं करते तो वे यूपी की राजनीति में क्रमशः अप्रासंगिक होते जाने के लिए अभिशप्त होंगे!’.
इससे पहले उन्होंने लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का चाल-चलन देखते हुए लिखा था, ‘सपा-बसपा नेतृत्व ने चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत तब की, जब मोदी-शाह यूपी में लगभग नब्बे फीसदी हिस्सा कवर कर चुके थे. दोनों दलों के चालीस फीसदी से अधिक उम्मीदवारों की घोषणा नामांकन की आखिरी तारीख के कुछ ही दिनों पहले हुई. क्या लोकसभा चुनाव में भी सपा-बसपा को चलाने वाले दोनों परिवार कहीं न कहीं केंद्र के निजाम और सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व से डरे- सहमे थे? राजनीति शास्त्र के किसी मर्मज्ञ को छोड़िये, राजनीति का एक अदना जमीनी कार्यकर्त्ता भी बता देगा कि यूपी में सपा-बसपा लोकसभा चुनाव मानों हारने के लिए ही लड़ रही थीं.’
बहरहाल यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम आये एक माह होने को चले हैं, लेकिन सपा- बसपा की तरफ से ऐसा कुछ बदलाव होते नहीं दिख रहा है, जिससे लगे कि 2014,2017 और 2019 के बाद 2022 की विफलता से कोई सबक लिया है. इसे लेकर दोनों दलों के समर्थकों में काफी बेचैनी है. बसपा के समर्थक तो पार्टी के ढांचे और एजेंडे में आवश्यक बदलाव के लिए धरना – प्रदर्शन तक की तैयारी कर लिए थे. इस विषय में बसपा समर्थकों के कई वीडियो वायरल हुए हैं. लेकिन बसपा नेतृत्व पर इसका कोई असर होता नहीं दिख रहा है. मायावती जी ने अपने भतीजे आकाश आनंद को नेशनल कोर्डिनेटर बनाकर पार्टी को परिवारवादी रूप देने का स्थायी बंदोबस्त कर दिया है. किसी पार्टी का परिवारवादी होना भाजपा को कितना मुफीद होता है, इसका अनुमान इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान भाजपा के 42 वें स्थापना दिवस पर दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान से लगाया जा सकता है. उन्होंने परिवारवादी पार्टियों को लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हुए कहा है, ’उनके यहाँ परिवार के सदस्यों का स्थानीय निकाय से लेकर सांसद तक दबदबा रहता है. ये परिवारवादी पार्टियाँ भले ही अलग-अलग राज्यों में सक्रीय हों, लेकिन उनके तार एक दूसरे से जुड़े रहते हैं. इन पार्टियों ने युवाओं को बढ़ने नहीं दिया और देश का बहुत बड़ा नुकसान किया. इनके खिलाफ पहली बार आवाज उठाने और मुद्दा बनाने का श्रेय भाजपा को जाता है.’
ऐसे में जो परिवारवाद भाजपा की विजय का एक बड़ा फैक्टर है, उसे मायावती जी ने अपने दुर्दिन में आकाश आनंद को राष्ट्रीय कोर्डिनेटर बनाकर शत्रु भाजपा को एक बड़ा हथियार सुलभ करा दिया है.
अब जहाँ तक सपा का सवाल है उस पर तो बहुत पहले से परिवारवादी होने का आरोप लगता रहा है. लेकिन बड़ी त्रासदी यह है कि अखिलेश यादव अपने परिवार तक को संभल नहीं पाए. उनके परिवार की बहू अपर्णा यादव तो विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले ही भाजपा में शामिल हो गयी. चुनाव बाद अखिलेश यादव की बेरुखी से शिवपाल यादव भी भाजपा के निकट हो गए हैं. ऐसे में यादव परिवार की भाजपा विरोधी छवि अब पहले जैसी चटखदार नहीं रही.
मायावती जी के साथ अखिलेश यादव को भी सामाजिक न्याय के ट्रैक पर लाना असंभव है, इसकी सत्योपलब्धि बहुजन बुद्धिजीवी व एक्टिविस्ट जितनी जल्दी कर लें, देश और वंचित बहुजन समाज के हित में उतना ही बेहतर होगा. इनकी कमियों के कारण आज भाजपा 2025 में हिन्दू राष्ट्र की घोषणा करने की स्थिति में आ गयी है. अब समय आ गया है कि यूपी के बहुजन मायावती और अखिलेश का विकल्प ढूंढने में लग जाएं ! हालांकि विकल्प खड़ा करना बहुत, बहुत और बहुत ही कठिन है, पर नामुमकिन तो नहीं है!
विकल्प खड़ा करने का एक यह सुफल हो सकता कि अपना सही विकल्प उभरते देख खुद का वजूद बचाने के लिए ये सामाजिक न्याय के ट्रैक पर वापस आ जाएं. अभी कोई विकल्प नहीं होने के वजह से सवर्णों को खुश करने के लिए सपा-बसपा सामाजिक न्याय से दूरी बनाएं हुए हैं। लेकिन सॉलिड विकल्प मिलने पर ये बहुजन हित को तरजीह देने के लिए बाध्य होंगी. ऐसे में इनका विकल्प ढूंढना, खुद इनके हित में भी बेहतर होगा !
अब जहाँ तक विकल्प का सवाल है, आज भी कई बहुजनवादी पार्टियाँ खुद को इनका विकल्प बनाने में लगी हुई हैं. किन्तु विकल्प के रूप में उभरने का प्रयास कर रही पार्टियों में शायद ऐसा कुछ नहीं जो इन्हें बदलने के लिए मजबूर कर दे. इसलिए ऐसी किसी पार्टी को सामने आना होगा जिसका एजेंडा उग्र सामाजिक न्याय हो, जो इन्हें बदलने के लिए मजबूर कर दे. सपा- बसपा के पास आज भी विशाल मतदाता वर्ग है, जो भाजपा को उखाड़ने में प्रभावी रोल अदा कर सकता है. लेकिन मतदाता वर्ग तभी प्रभावी भूमिका अदा करने का मन बनाएगा जब ये शक्ति के समस्त स्रोतों में भागीदारी दिलाने का सपना दे. लेकिन सामाजिक न्याय से दूरी बना चुकी सपा – बसपा तभी ऐसे एजेंडे पर वापसी का मन बनायेंगी, जब कोई पार्टी शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी दिलाने का सॉलिड नक्शा पेश कर इनके वोटरों को अपनी ओर खींचने लगे. ऐसे में सपा- बसपा के सच्चे हितैषियों के लिए जरूरी है कि एक ठोस विकल्प वाली पार्टी खड़ा करने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करें !
एच.एल .दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)