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लद्दाख डिसइंगेजमेंट - 'पीछे लौटो' होगा या 'जैसे थे' ? लद्दाख में इतनी बड़ी शहादत के बाद हमने अब तक क्या पाया ?

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hastakshep
15 Feb 2021
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Ladakh Disengagement - Will 'Return Back' or 'As It Were'? What have we found so far after such a great martyrdom in Ladakh?

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अप्रैल 2020 से चल रहा, भारत चीन का लद्दाख सीमा विवाद अब सुलझ गया है। डिसइंगेजमेंट की लंबी वार्ता के बाद, चीन और भारत अपनी अपनी सेनाएं पीछे हटाएंगे। यह सरकार का अधिकृत बयान है। पर सुलझाव वाले इस अधिकृत बयान ने इस गुत्थी को और उलझा कर रख दिया है। कुछ बेहद तीखे और असहज करने वाले सवाल, सरकार से पूछे जा रहे हैं। न सिर्फ विरोधी दल के नेताओं ने बल्कि, सत्तारूढ़ दल के कुछ नेताओं ने अनेक शंकाएं इस समाधान पर उठायी हैं। साथ ही रक्षा मामलों के विशेषज्ञ, ब्रह्म चेलानी और पूर्व कर्नल अजय शुक्ल ने भी समझौते पर सवाल उठाए हैं। सबकी एक प्रमुख शंका है कि, इस 'पीछे लौटो' कमांड के बजाय 'जैसे थे' कमांड क्यों नहीं बोला गया ?

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Meaning to return

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पीछे लौटने का अर्थ है कि फिलहाल ट्रंप जहां हैं, वहां से पीछे लौटें। यानी दोनों ही सेनाओं ने एक दूसरे की सीमा में घुसपैठ किया था, अब वे अपनी अपनी सीमा में घुसपैठ कर के पीछे लौटेंगे। जबकि जैसे थे का अर्थ होता है कि अप्रैल 2020 के पहले की स्थिति को बहाल किया जाय। जिस सेना ने घुसपैठ की पहल की, और अपनी सीमा को तोड़ कर पड़ोसी देश की सीमा में घुसपैठ किया है वह, जैसे घुसपैठ के पहले जिस स्थिति में थी, उसी स्थिति में वापस चली जाय। यानी जैसे थे, वैसे हो जाय। जैसे थे एक फौजी वर्ड ऑफ कमांड है, जिसका अर्थ है, जैसे पहले की फॉर्मेशन में थे, वैसे हो जाएं।

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जैसे थे, था क्या ?

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अब जरा इसे अतीत में जा कर देखते हैं। 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तब गलवान घाटी और पैंगोंग झील (Galvan Valley and Pangong Lake) के आगे 8 पहाड़ियों वाले घाटी का इलाका जिसे फिंगर्स कहते हैं, एक अनौपचारिक रूप से तय की हुयी सीमा रेखा बन गयी, जिसे एलएसी ( लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल - Line of actual control ) कहा गया। वास्तविक सीमा के निर्धारण और भौगोलिक जटिलता के कारण कभी हम उनके तो कभी वे हमारे क्षेत्र में चले आते थे। सच तो यह है कि इस दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में ज़मीन पर सीमा निर्धारण का कोई काम गम्भीरता से कभी हुआ ही नहीं। न तो ब्रिटिश काल मे और न ही उसके बाद।

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दुर्गमता, विपरीत मौसम के कष्ट, निर्जनता और उक्त भूमि की उपयोगिता के अभाव के कारण सीमा निर्धारण पर किसी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। जब 1962 ई में चीन ने घुसकर हमला किया और तब वह जहां रुका वही सीमा अस्थायी रूप से बन गयी।

अगर पूर्व सेनाध्यक्ष और अब केंद्रीय मंत्री जनरल बीके सिंह के हालिया बयान का संदर्भ लें तो, उससे यह पता चलता है कि इस तरह की घुसपैठ आम थी और एलएसी का उल्लंघन दोनों ही सेनाएं करती रहती थीं। इसी के कारण 1993 ई में भारत चीन के बीच एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ, जिसमें कुछ शर्तें तय हुयीं।

1993 में हुए एक भारत चीन समझौते (India China Agreement signed in 1993) के अंतर्गत यह तय किया गया, कि उभय पक्ष हथियार का प्रयोग नहीं करेंगे। लेकिन अचानक, 15 जून हमारे एक कर्नल संतोष बाबू सहित 20 सैनिक चीनी हमले में शहीद हो गए।

15 जून 2021 को बेहद गम्भीर और व्यथित कर देने वाली यह खबर, भारत चीन विवाद के इतिहास में 1962 ई. के बाद की सबसे बड़ी घटना थी, जिसकी व्यापक प्रतिक्रिया देश भर में हुयी थी।

15 जून की हृदयविदारक घटना और चीन के धोखे के बाद पूरा देश उद्वेलित था, और इसी की कड़ी में 19 जून को प्रधानमंत्री द्वारा सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी, और उस सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री जी ने कहा,

"न तो हमारी सीमा में कोई घुसा था, और न ही हमारी चौकी पर किसी ने कब्जा किया था। हमारे 20 जवान शहीद हो गए। जिन्होंने, भारत माता के प्रति ऐसा दुस्साहस किया है, उन्हें सबक सिखाया जाएगा।"

प्रधानमंत्री के इस यह बयान से, भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गयी और तत्काल निम्न सवाल उठ खड़े हो गए -

● जब कोई अंदर घुसा ही नहीं था और किसी चौकी पर कब्जा तक नहीं किया गया था, तो फिर विवाद किस बात का था ?

● जब विवाद नहीं था तो फिर 6 जून 2020 को जनरल स्तर की फ्लैग मीटिंग क्यों तय की गयी थी ?

● जब कोई घुसा ही नहीं था तो हमारे अफसर और जवान क्या करने चीन के क्षेत्र में गए थे जहाँ 20 जवान और एक कर्नल संतोष बाबू शहीद हो गए ?

हालांकि, प्रधानमंत्री के पहले, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री ने चीनी घुसपैठ की बात स्वीकार की थी। इसी सम्बंध में दो जून को रक्षामंत्री ने कहा था,

"महत्वपूर्ण संख्या ( साइज़ेबल नम्बर ) में चीनी सेनाओं में लदाख में घुसपैठ की है, और अपने इलाके में होने का दावा किया है।"

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि, चीन की पीएलए हमारे इलाके में घुस कर बंकर बना रही है।

13 जून को, थल सेनाध्यक्ष जनरल प्रमोद नरवणे ने कहा था,

"चीन से लगने वाली हमारी सीमा पर स्थिति नियंत्रण में है, दोनों पक्ष, चरणों में अलग हो रहे हैं। हमलोगों ने उत्तर में गलवान नदी क्षेत्र से शुरुआत की है।"

यह सवाल आज तक पूछा जा रहा है कि, लद्दाख में इतनी बड़ी शहादत के बाद हमने अब तक क्या पाया ?

अभी छः फरवरी 2021 को ही विदेश मंत्री ने बताया कि,

"पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर दस महीनों से चले आ रहे सैन्य गतिरोध को दूर करने के लिए चीन से अब तक हुए सैन्य कमांडर स्तर की वार्ता के नौ दौरों का जमीन पर कोई असर नहीं हुआ है। हमें लगता है कि कुछ प्रगति हुई है, लेकिन उसे समाधान के तौर पर नहीं देखा जा सकता।"

लेकिन रक्षामंत्री ने संसद में इसी विषय मे फरवरी में ही बताया कि

"उक्त गतिरोध दूर करने के प्रयासों में ‘एक बड़ी सफलता’ मिल गई है। वह यह कि, भारत व चीन दोनों पैगोंग झील के दक्षिणी व उत्तरी किनारों पर स्थित क्षेत्रों से अपनी सेनाएं पीछे हटाने पर सहमत हो गये हैं।"

लेकिन रक्षामंत्री के इस बयान पर अनेक सन्देह उठ खड़े हुए, विशेषकर तब, जब उन्होंने कहा कि, दोनों ही सेनाएं पीछे होंगी। यानी पीछे लौटेंगी। जैसे थे, नहीं।

रक्षा मामलों के विशेषज्ञ, ब्रह्मा चेलानी ने कई ट्वीट कर के सरकार से इस समझौते पर कई सवाल पूछे और अपनी शंकाएं जताईं। सरकार द्वारा संसद में दिए गए बयान पर विशेषज्ञों का कहना है कि इस समझौते के तहत चीन को फिंगर-4 तक बफर जोन बनाने की बात की गयी है। यानी हम अपने ही इलाके में पीछे लौटे हैं न कि घुसपैठ पूर्व की स्थिति बहाल की गयी है। हमारी ही सीमा में बफर जोन बना कर हमें और पीछे धकेल दिया गया है।

अगर गंभीरता से घुसपैठ पूर्व की स्थिति, घुसपैठ के दौरान दोनों सेनाओं की सीमा पर ज़मीनी कैम्पिंग और अब लम्बे दौर की वार्ता के बाद डिसइंगेजमेंट की कथित 'सफलता' का मूल्यांकन करें तो एक बात तो तय है कि, अप्रैल, 2020 के पूर्व की स्थिति की बहाली यह नहीं है, जिसकी भारत की ओर से लगातार मांग की जाती रही है। अब जो स्थिति उभर कर सामने आ रही है, उसके अनुसार,

● भारत के जवान फिगर-3 के अपने बेस में रहेंगे,

● चीन फिंगर-8 के पूर्व में और परम्परागत स्थलों की, जिनमें फिंगर-8 भी शामिल है रहेगा और गश्त स्थगित रहेगी, जब तक कि इस विषय में सैन्य या राजनयिक वार्ता में समझौता नहीं हो जाता।

● डेप्सोंग और अन्य क्षेत्रों में चीनी अतिक्रमणों को लेकर क्या तय हुआ है, यह स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है। जबकि चीनी सेना का असल मकसद डेप्सोंग पर कब्जा करना रहा है।

● चीनी सेना के बयान में अप्रैल, 2020 से पहले की स्थिति की बहाली का कोई जिक्र फिलहाल नहीं है।

चीनी घुसपैठ को लेकर सरकार के अंदर से विरोधाभासी बयान न केवल 19 जून 2020 को आए थे, बल्कि वे बयान आज जब डिसइंगेजमेंट हो रहा है तब भी आ रहे हैं। या तो पीछे लौटो की शर्तें अभी तय नहीं हैं या तय हैं तो उन्हें लेकर सरकार में कहीं न कही संशय का भाव है।

There is a phonetic difference between the statement of the Foreign Minister on 6 February and the Defense Minister's statement of solutions.

विदेशमंत्री के 6 फरवरी के बयान और रक्षामंत्री के समाधान के बयान में ध्वन्यात्मक अंतर है। एक बात और महत्वपूर्ण है कि चीन का अतिक्रमण सिर्फ लद्दाख तक सीमित नहीं है। उसने हमारे अरुणाचल प्रदेश में सुबनसिरी जिले के त्सारी चू नदी के किनारे एक गांव बसा लिया है,जिसमें चीनी नागरिक रह रहे हैं औऱ यह भारतीय सीमा के साढ़े चार किलोमीटर अंदर है। 2017 में डोकलाम में भारतीय सेना के हाथों मात मिलने के बाद ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बत में ‘बॉर्डर डिफेंस विलेज’ बनाने की शुरुआत कर दी थी। अरुणाचल प्रदेश में बसाया गया चीनी गांव भी इसी एजेंडे का हिस्सा बताया जाता है।

सरकार जिस समझौते को समाधान बता रही है, उसे यह भी याद रखना होगा कि, भारत और चीन के बीच 3,488 किलोमीटर लंबी एलएसी को लेकर विवाद है और यह केवल लद्दाख या तक ही सीमित नहीं है। देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मसलों को राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये से ही देखना और उसका समाधान ढूंढना उचित नहीं होगा।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, रक्षामंत्री ने सदन में कहा कि,

● दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाओं की गतिविधियों को स्थगित रखेंगे।

● पिछले साल के गतिरोध से पहले वाली स्थिति बहाल हो जाएगी।

● चीन के साथ कई दौर की वार्ता के बाद भारत ने कुछ नहीं खोया है।

● दोनों पक्ष सैनिकों को हटाने पर सहमत हैं। कई मुद्दों पर वार्ता बाक़ी है।

● पैंगोग लेक से सेना हटने के 48 घंटों के भीतर सीनियर कमांडर्स की बैठक।

● दोनों देश फ़ॉरवर्ड डिप्लायमेंट को हटाएँगे।

● अप्रैल, 2020 के बाद से पैंगोंग त्सो के नॉर्थ और साउथ ब्लॉक में निर्माण को हटाया जाएगा।

इस बयान पर विपक्ष विशेषकर कांग्रेस और कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने, निम्न संदेहों को उठाया,

● चीन की सेना डेप्सोंग, गोगरा और हॉट स्प्रिंग से बाहर क्यों नहीं गई?

● हमारी ज़मीन फ़िंगर 4 तक है और सेना फ़िंगर 3 पर आ जाएगी। फिर 3 से फिंगर 4 तक की भारत की ज़मीन क्या चीन के पास नहीं चली जाएगी ?

● भारतीय सेना अब फिंगर 3 तक सीमित हो जाएगी। क्या यह सीधे-सीधे भारत के हितों पर कुठाराघात करने का काम नहीं है?

● डेप्सोंग में चीन अंदर तक आया है, गोगरा और हॉट स्प्रिंग की ज़मीन के बारे में क्या स्थिति है ?

● सरकार केवल पैंगोंग त्सो लेक इलाके से ही ‘डिसइंगेज़मेंट’ का समझौता क्यों कर रही है और वह भी एलएसी की रूपरेखा बदलकर ?

●‘कैलाश रेंजेस’ पर अपनी प्रभावी व सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मौजूदगी से वापसी का समझौता क्यों किया जा रहा है ?

● चीन ने एलएसी के 18 किमी अंदर तक (वाई जंक्शन तक) घुसपैठ की हुई है और भारत की सेना को अपने ही पेट्रोलिंग प्वाइंट्स में पेट्रोलिंग करने से रोक रखा है।

● गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स में चीनी घुसपैठ के बारे में चुप्पी क्यों है ?

● चीनी सेना चुमुर, दक्षिणी लद्दाख तक पेट्रोलिंग कर रही है। इसका क्या कारण और निदान है ?

इस डिसइंगेजमेंट पर इतने सवाल खड़े हुए कि, अब रक्षा मंत्रालय को, भ्रम दूर करने के लिये बयान जारी करना पड़ा। रक्षा मंत्रालय ने अपने बयान में निम्न बाते कहीं -

"पैंगोंग त्सो में वर्तमान में जारी डिसइंगेजमेंट के संबंध में कुछ ग़लत और भ्रामक टिप्पणियाँ मीडिया और सोशल मीडिया पर की जा रही हैं। संसद के दोनों सदनों को अपने बयानों में रक्षा मंत्री द्वारा पहले ही स्पष्ट रूप से स्थिति साफ़ कर दी गई है। हालाँकि, मीडिया और सोशल मीडिया में ग़लत तरीक़े से समझी जा रही जानकारी के कुछ मामलों को सीधे काउंटर करना ज़रूरी है।

● यह दावा कि भारतीय क्षेत्र फिंगर 4 तक है, स्पष्ट रूप से ग़लत है। भारत के क्षेत्र को भारत के नक्शे द्वारा दर्शाया गया है और इसमें 1962 से चीन के अवैध कब्जे में वर्तमान में 43,000 वर्ग किमी से अधिक शामिल हैं। यहाँ तक ​​कि भारतीय धारणा के अनुसार, वास्तविक नियंत्रण रेखा फिंगर 8 पर है, फिंगर 4 पर नहीं। यही कारण है कि भारत ने चीन के साथ वर्तमान हालात में भी फिंगर 8 तक गश्त का अधिकार बनाए रखा है।

● पैंगोंग त्सो के उत्तरी तट पर दोनों पक्षों के स्थायी पोस्ट पहले से ही हैं। भारतीय पक्ष में, यह फिंगर 3 के पास धन सिंह थापा पोस्ट है और फिंगर 8 के पूर्व में चीनी है। वर्तमान समझौते में दोनों पक्षों द्वारा फॉरवार्ड की तैनाती को रोकने और इन स्थायी पोस्टों पर तैनाती जारी रखने का प्रावधान है।

● भारत ने इस समझौते के परिणामस्वरूप किसी भी क्षेत्र को नहीं खोया है। इसके विपरीत इसने यथास्थिति में किसी भी एकतरफ़ा बदलाव को रोका है।

● रक्षा मंत्री के बयान ने यह भी साफ़ किया है कि हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा और देपसांग सहित कई मुद्दों का समाधान किया जाना बाक़ी है। पैंगोंग त्सो के डिसइंगेजमेंट के पूरा होने के 48 घंटे के भीतर बकाया मुद्दों को उठाया जाना है।

● पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में हमारे राष्ट्रीय हित और क्षेत्र की प्रभावी सुरक्षा हो गई है क्योंकि सरकार ने सशस्त्र बलों की क्षमताओं पर पूरा विश्वास किया है। जो लोग हमारे सैन्य कर्मियों के बलिदान से संभव हुई उपलब्धियों पर संदेह करते हैं वे वास्तव में उनका अपमान कर रहे हैं।

डिसइंगेजमेंट के बारे में रक्षा विशेषज्ञों का क्या कहना है ? | What do defense experts say about disengagement?

अभी जिस डिसइंगेजमेंट की बात की जा रही है, उसके बारे में रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि, डेप्सोंग से चीन को पीछे हटने के लिये बाध्य न करना एक बडी भूल साबित हो सकती है। क्योंकि चीन हमारी सीमा में 18 किमी तक अंदर आ गया है और इस समझौते के बाद भी उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। पिछली गर्मियों में भी, जब भारत गलवा घाटी में कुछ पीछे हटने को राजी होने की बात सोच रहा था, तब भी सरकार के इस कदम से कुछ रक्षा विशेषज्ञ हैरान थे कि, हम अपनी ही ज़मीन में हैं तो पीछे क्यों हटें और हमारी अपनी ज़मीन में कोई बफर जोन क्यों बने ?

बफर जोन क्या होता है ? What is a buffer zone?

बफर जोन वह अनिश्चित ज़ोन होता है जहां यह किसी एक पक्ष की नहीं होती है, और वह किसी भी देश की भूमि नहीं होती है। पहले फिंगर 4 तक हमारी कैम्पिंग साइट थी और गश्त हम फिंगर 8 तक करते थे। अब हम फिंगर 3 पर आ गए हैं। चीन की यह पुरानी विस्तारवादी नीति है कि वह पहले सीमा के अंदर अधिक घुसता है और फिर जब बातचीत होती है तो वह थोड़ा पीछे चला जाता है। ऐसा करने में वह कुछ न कुछ अपनी सीमा या तो बढ़ा लेता है या फिर उसे बफर जोन में बदलवा कर के विवादित बनाये रखता है। उसकी यह रणनीति माओ की तिब्बत और उसकी पांच अंगुलियों के सिद्धांत पर आधारित है।

द टेलीग्राफ में छपी एक खबर में एक रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल के हवाले से यह कहा गया है कि,

"भारत द्वारा पैंगोंग झील क्षेत्र से पीछे हटना और अपने ही नियंत्रण वाले इलाके के कुछ भाग को बफर जोन में बदल देने पर सहमति व्यक्त करना, इसका आगे चल कर एक घातक परिणाम हो सकता है। यह एक बड़ी भूल है कि, बिना अप्रैल 2020 की स्थिति में वापस लौटे इस प्रकार के बफर जोन पर राजी हो जाया जाय। क्या हम पैंगोंग झील के उस हिस्से को छोड़ दे रहे हैं जो हमारे अधिकार में था, और चीन के दावे को स्वीकार कर ले रहे हैं कि यह उसका है और हम आगे बढ़ आए थे ?"

रिटायर्ड कर्नल अजय शुक्ल जिन्होंने अप्रैल 2020 में हुयी घुसपैठ और 20 सैनिकों की शहादत और फिर उसके बाद लगातार होने वाली कोर कमांडर स्तर की वार्ता पर लेख लिखते रहे हैं, का यह ट्वीट पढ़ें,

भारतीय और चीनी सेनाएं, अब पैंगोंग झील से डिसइंगेज होना शुरू हो गयी हैं। फिंगर 3 से फिंगर 8 तक 10 किमी लम्बे टुकड़े में एक बफर जोन अब बन जायेगा। 1962 के भारत चीन युद्ध के समय से ही, भारतीय सेना इस इलाके में फिंगर 8 तक गश्त करती रही है, लेकिन अब वह फिंगर 8 तक गश्त नहीं कर सकेगी।"

इस प्रकार, भारत का दावा फिंगर 8 उत्तरी किनारे के क्षेत्र तक था, लेकिन अब चीन बढ़ कर फिंगर 4 तक आ गया है। जबकि वह फिंगर 8 तक था। अभी जो डिसइंगेजमेंट का समझौता हुआ है उसके अनुसार, चीन फिंगर 8 के पूर्व में रहेगा और भारत फिंगर 3 पर स्थित अपने स्थायी आधार पर आ जायेगा। कोई भी देश बफर जोन में गश्त नहीं कर सकता जो अब फिंगर 3 से 8 तक हो गया है, जब तक कि यह सीमा विवाद, उभय देशों द्वारा सुलझा न लिया जाय। यह कहा जा सकता है कि यह अस्थायी व्यवस्था है। पर इस अस्थायी व्यवस्था में भी हमे अपनी ही भूमि और फिंगर 8 तक के गश्त की अधिकारिता छोड़नी पड़ रही है।

सितंबर में सेना ने कैलाश रेंज की ऊंचाइयों पर कब्ज़ा किया था। यह ऊंचाइयां सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। डिसइंगेजमेंट में यह स्पष्ट नहीं है कि उनसे भी हम पीछे हटेंगे या वहां भारत का कब्ज़ा बरकरार रहेगा। समझौते में कैलाश रेंज को बनाये रखने का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, इसलिए रक्षा विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने एक ट्वीट कर के कहा है कि

"हम कैलाश रेंज से क्यों हट रहे हैं ? समझौते में वहां से कब्जा न छोड़ने का उल्लेख होना चाहिए।"

द टेलीग्राफ ने सूत्रो के हवाले से यह भी खबर छापी है कि, नौ दौर की बातचीत में चीन इस बात पर अड़ा था कि, भारत कैलाश हिल की ऊंचाइयों पर से भी अपना कब्जा हटाये, इसीलिए दोनों देशों में समझौता होने में गतिरोध था। अभी यह पूरी तरह से निश्चित नहीं है कि, कैलाश हिल के मुद्दे पर सरकार ने क्या तय किया है। इसी प्रकार, यह भी अभी स्पष्ट नहीं है कि, डेप्सोंग मैदान, गोगरा और हॉट स्प्रिंग जहां चीन घुस कर बैठा है, उसे खाली करेगा या नहीं। अजय शुक्ल कहते है कि

"सियाचिन के बारे में हम पाकिस्तान के समक्ष जितने दृढ़ होते हैं उतने चीन के संबंध में मज़बूत स्टैंड नहीं ले पा रहे हैं। जब पाकिस्तान कहता है कि सियाचिन का विसैन्यीकरण करना चाहिए तब भारत का स्टैंड रहता है कि नहीं, सियाचिन कश्मीर समस्या का ही एक हिस्सा है। "

सियाचिन भी अपनी ऊंचाई और सामरिक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण विंदु है, जिसे कब्जे में लेने के लिये कारगिल की बड़ी घुसपैठ पाकिस्तान द्वारा की गयी और फिर पाकिस्तान को वहां से खदेड़ दिया गया। ऐसा ही सामरिक महत्व, कैलाश रेंज की ऊंचाइयों का भी है।

भारत चीन के बीच इस समझौते को लेकर संशय के अनेक कारण है। सबसे पहला और प्रमुख कारण है चीन की नीयत कभी भी भारत के साथ उसके संबंधों को लेकर स्पष्ट और दुर्भावना रहित नहीं रही। चाहे चाउ एन लाई का भारत के साथ पंचशील समझौता हो, या 1959 ई में हॉट स्प्रिंग में घात लगा कर सीआरपीएफ जवानों की, हमारे इलाके में घुसकर उनकी हत्या करनी हो, या अरुणाचल में उसकी लगातार बढ़ती दिलचस्पी और दखल हो, या भारत द्वारा नरेंद्र मोदी सरकार के समय, चीन से बेहतर सम्बंध बनाने की कोशिशें रही हो, चीन ने भारतीय सदाशयता की बराबर उपेक्षा की है और हर कदम पर हमें धोखा दिया है। जब परस्पर भरोसे में इतना अधिक क्षरण हो गया हो, और परस्पर विश्वास बार बार टूटा हो तब हर समझौते पर सन्देह का उठना स्वाभाविक है।

दूसरा कारण है, सरकार के मंत्रियों और प्रधानमंत्री के इस घुसपैठ को लेकर परस्पर विरोधी बयान। 19 जून 2020 को न तो कोई घुसा था और न कोई घुसा है का पीएम द्वारा कहा गया वाक्य न केवल चीन की घुसपैठ को ही नकार देता है बल्कि उसके बाद की होने वाली समस्त वार्ताओं और समझौतों पर संशय खड़ा कर देता है। हालांकि सरकार का, दृष्टिकोण, पीएम के उक्त बयान से अलग शुरू से ही रहा है।

तीसरा, कारण है, मंत्री बीके सिंह का बयान, जिसमें वे कहते हैं कि दस बार चीन घुसता है तो पचास बार हम भी घुसते हैं। यह खुद को आक्रामक और निर्भीक दिखाने के लिये कहा गया बयान हो सकता है पर अंतरराष्ट्रीय राजनय में सीमा शुचिता के उल्लंघन के रूप में भी व्याख्यायित किया जा सकता है।

उपरोक्त तमाम संशय के बीच अगर इस समझौते पर अविश्वास भरी टीका टिप्पणियां की जा रही है, तो इसका पर्याप्त आधार भी है। पर समझौते पर सवाल उठाने वालों से असहमत होते हुए पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने ट्वीट कर के खहा है कि,

'यह समझौता उचित है और इससे दोनों देशों के बीच आगे भी सैन्य तनाव घटेंगे। जो इसकी आलोचना कर रहे हैं वे या तो ज़मीनी हक़ीक़त से वाकिफ नहीं हैं या इसे समझ नहीं पा रहे हैं।'

आलोचकों का मुख्य विंदु डेप्सोंग मैदान से चीन का पीछे न हटना और कैलाश ऊंचाइयों से भारत के पीछे हटने की संभावनाओं को लेकर है। लेकिन सरकार का कहना है कि पैंगोंग झील से दोनों पक्षो को हट जाने के 48 घन्टे के अंदर अन्य मुद्दों पर बात होगी।

भारत के लिए दौलत बेग ओल्डी सड़क का महत्व | Importance of Daulat Beg Oldie Road for India | Darbuk-Shyok-Daulat Beg Oldie Road: All you need to know.

डेप्सोंग मैदान से चीन का पीछा लौटना ज़रूरी है, क्योंकि यदि यहाँ पर चीन की मौजूदगी बनी रहती है तो, वह हमारी सामरिक महत्व की हवाई पट्टी दौलत बेग ओल्डी के लिये बराबर खतरा बना रहेगा जो 16000 फिट की ऊंचाई पर है। यह हवाई पट्टी 1962 में चीनी हमले के समय बनायी गयी थी। यह सड़क हाल ही में बनाई गयी सामरिक महत्व की दर्बुक - श्योक - डीबीओ ( दौलत बेग ओल्डी ) सड़क जो एलएसी के समानांतर जाती है, को जोड़ती है। यह 14000 फिट से 16000 फिट की ऊंचाई पर स्थित है। आगे जाकर यह सड़क, लेह को डीबीओ से जहां काराकोरम दर्रा चीन के स्वायत्त प्रदेश जिनजियांग को अलग करता है, जोड़ती है। यह सड़क हमारी सप्लाई लाइन के लिये बहुत ज़रूरी है, जिसके महत्व से चीन भी अनजान नहीं है। इसीलिए रक्षा विशेषज्ञ डेप्सोंग मैदान से चीन के पीछे हटने को महत्वपूर्ण मान रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि इस समझौते से एलएसी की अप्रैल 20 की स्थिति क्या बहाल हो जाएगी यानी भारत और चीन 'जैसे थे' की स्थिति में आ जाएंगे या हम अपनी ज़मीन कुछ खो देंगे ?

विजय शंकर सिंह





विजय शंकर सिंह (Vijay Shanker Singh) लेखक अवकाशप्राप्त आईपीएस अफसर हैं

विजय शंकर सिंह (Vijay Shanker Singh) लेखक अवकाशप्राप्त आईपीएस अफसर हैं

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