/hastakshep-prod/media/post_banners/3zGv1ZIZ65B8ydbbAftK.jpg)
योगी का सीएम बनना संयोग था, जो भाजपा की भारी भूल है
कानून व्यवस्था की खराबी, प्रशासन पर योगी को घेरते विपक्षी दल
उत्तर प्रदेश इन दिनों सुर्खियों में है। राष्ट्रीय स्तर पर बेंगलुरु की घटना से निपटने में योगी मॉडल (Yogi model to deal with Bengaluru incident) की चर्चा है। 20 अगस्त से विधानसभा सत्र भी तीन दिनों के लिए शुरू हो रहा है। प्रदेश में चर्चा यहां की बदहाल होती कानून व्यवस्था को लेकर भी है। इसकी गूंज विधानसभा में सुनाई देने के आसार है। विपक्षी दल जहां इसे लेकर हमलावर हैं वहीं, आम जनता और सोशल मीडिया पर इसे लेकर तमाम बातें की जा रही हैं। अलीगढ़ में विधायक के साथ बदसलूकी से पहले भी खुद भाजपा के नेता, विधायक, सासंद कहते रहे हैं कि उनकी बात सरकारी अफसर नहीं सुन रहे। हालात यहां तक आ चुके हैं कि अब जनप्रतिनिधि पीट दिये जा रहे हैं। ये सारे संकेत प्रदेश सरकार के लिए ठीक नहीं हैं। क्योंकि बेहतर प्रशासन के नाम पर ही भाजपा को जनता ने यहां चुना था।
भाजपा ने भी सूबे की कमान इसीलिए योगी को सौंपी थी कि उनकी एक अपनी हनक है। प्रशासनिक स्तर पर देखें तो मनोज (सिन्हा) राय का पलड़ा भारी था। मगर भाजपा आलाकमान ने सूबे की बागडोर बहुत कुछ सोच समझ कर इन्हें दी। इसे कुछ लोग संयोग मानते हैं, जो भारी भूल है। भाजपा ही नहीं हर राजनैतिक दल को पता है कि यूपी में राज करना इतना आसान नहीं जितना सत्ता पाना। यहां जंगलराज और अव्यवस्था को लेकर ही पिछले पंद्रह सालों से चुनाव होते रहे है। सूबे के चुनाव अभी दो साल दूर है ,फिर भी मुख्य विपक्षी दल योगी को घेरते नजर आ रहे है। सपा जहां परशुराम जी की मूर्ति के जरिये ब्राह्मणों को साधने की कोशिश में है। वही बसपा सुप्रीमो प्रेस कांफ्रेस कर अपनी सरकार में 80 विधायकों तक की गिनती याद कराकर ब्राह्मणों को फिर से अपने पाले में करने की जुगत लगा रही है। कानपुर के माफिया विकास दुबे के काउटंर को किसी ने सही नहीं ठहराया। उसके बाद प्रदेश में घटी इस बिरादरी के साथ कुछ सिलसिलेवार घटनाओं ने इस धारणा को बल प्रदान किया कि सरकारी तौर पर इसका उत्पीड़न हो रहा है। राकेश पांडे उर्फ हनुमान पांडे के एनकाउंटर के साथ पं. हरिशंकर तिवारी के यहां छापे की घटनाएं सोशल मीडिया पर खूब तैर रही है। यहां पर ब्राह्मण लगभग चौदह से सोलह फीसद वोटर है। जिसने 2017 के चुनावों में भाजपा को थोक में वोट किया था। सपा, बसपा काउटंर पर पहले से ही सवाल उठा रहे थे।
इसी सब सियासी नोंक झोंक के बीच मंगलवार की रात यूपी पुलिस ने मारे गए अपराधियों की जातिगत लिस्ट जारी की है, जिससे इस जातिगत एनकाउंटर के प्रश्न पर विराम लगने की संभावना है। फिर भी यूपी शासन प्रशासन को लेकर आम जनता के बीच उसकी साख पिछले तीन सालों में सबसे कम होती दिख रही है।
कानपुर में बिकरू कांड के बाद लैब तकनीशियन की पहले अपहरण फिर हत्या ने प्रदेश को झकझोर दिया। इसमें पुलिस प्रशासन की बहुत किरकिरी हुई। बसपा पहले से ही अपने बिदके परंपरागत वोटों के चलते चिंता में है। आगामी विधानसभा चुनावों में अपने को बेहतर करने का उसे ये अच्छा मौका लग रहा है। लिहाजा दोनों दल एक मुश्त वोट बैंक हासिल करने की जुगत में है।
2017 से योगी सरकार ने दो साल तक अपनी साख जनता के बीच बनायी रखी थी। संयोग से कोरोना काल में सत्ता पूरी तरह प्रशासन के हाथ आ गयी। लाकडाउन के चलते मुख्यमंत्री पूरी तरह से अपनी गठित विशेष टीम पर निर्भर हो गए। टीम, जिला मुख्यालय पर तैनात अफसरों पर। इसके चलते राजनैतिक रूप से सरकार का जनता से सीधा संबध कट गया। इसी खाई का फायदा नौकरशाही ने उठाया।
सरकार की नीतियों को लागू करना नौकरशाही की जिम्मेदारी है। प्रशासनिक स्तर पर कहा भी जाता है कि- नौकरशाही घोड़ा है और जनप्रतिनिधि घुड़सवार। अगर घुड़सवार की टांगों में दम न हो तब घोड़ा उसे कभी भी गिरा सकता है। सरकार ने शुरूआती सालों में पूर्ववर्ती सपा सरकार के निर्माण कार्यों को भ्रष्टाचार का स्रोत बताते हुए तमाम जांचे बैठायी। जिसका एक सकारात्मक संदेश जनता के बीच गया था। अपराध नियंत्रण के लिए काउंटर भी किये गये। जिसकी विपक्षी आलोचना के बाद भी जनता, सरकार के पक्ष में खड़ी दिखी। पिछले तीन सालों में 20 मार्च 17 से 10 जुलाई 20 तक प्रदेश पुलिस ने 6126 एनकाउंटर किये। 13361 अपराधी जेल गये, 122 मारे गये। इनके साथ 13 पुलिसकर्मी भी शहीद हो गये।
इन सारी घटनाओं में जहां 894 पुलिसकर्मियों को गोली लगी वहीं 2293 अपराधी भी इसके शिकार हुए।
/hastakshep-prod/media/post_attachments/tRMScxSaLQ5jLdgSxyNa.jpg)
जब सब कुछ ठीक था फिर गड़बड़ी हुई कहां ? ये ऐसा प्रश्न है जिसका जबाब उतना आसान नहीं जितना प्रश्न पूछना। दरअसल नौकरशाही में तीन तरह के लोग पाये जाते हैं। एक, जो किसी भी सरकार के साथ अपने को सहज कर लेते हैं। इन्हें आप यस मैन भी कह सकते हैं। दूसरे वो जो प्रायः तटस्थ होते हैं। ये अक्सर कम होते हैं। तीसरे, वो होते हैं। जो बीच का रास्ता चुनते हैं। नौकरशाह इतने जानकार होते हैं कि इन्हें पता चल जाता है कि सरकार की मंशा क्या है ? अब सवाल है कि आखिर इनको काबू में कैसे रखा जा सकता है ? ये बहुत बड़ा कार्य नहीं है। बस, जरा राजनैतिक और प्रशासनिक स्तर पर सरकार को चौंकन्ना होना पड़ता है। खुद, योगी सरकार ने अभी साल भर पूर्व तक जहां ये स्थिति बनायी रखी वहीं इनके पूर्ववर्ती मायावती, कल्याण सिंह के प्रशासन की चर्चा आज तक जनता के जेहन में है। कल्याण सिंह के नकल अध्यादेश का क्रियान्यवन हो या माफियाओं के विरूद्ध कार्यवाही। सब जगह उनके कार्यों की चर्चा रही। ये पहले मुख्यमंत्री रहे जिनके हत्या की सुपारी श्रीप्रकाश शुक्ला माफिया डान ने ली। जिसे यूपी एसटीएफ ने मार डाला था।
इसी क्रम में मायावती का भी नाम शुमार है, जिनके कार्यकाल में ये कहावत चल निकली थी कि डीएम, एसपी सहित सारे बड़े अफसर जिला मुख्यालय पर एक बेडरोल बांध कर तैयार रखते है। न जाने कब उन्हें कहीं और जाना पड़ जाय।
दरअसल, प्रशासन जनता के बीच सरकार का मंतव्य प्रस्तुत करते हैं। अब अगर ये लुंज पुंज या ढीले पड़ते दिखते हैं तब यही छवि सरकार की बनती है। अभी भी समय है कि योगी सरकार अपने साफ सुथरे और स्पष्ट नजरिये वाले अफसरों को जिला मुख्यालय पर तैनात करे जिनकी रिपोर्टिंग वहां के जनप्रतिनिधि करें। चाहें वो पक्ष के हो या विपक्ष के। यसमैनों को कत्तई मुख्यालय पर तैनाती न दी जाय। ये जहां राज्य मुख्यालय पर जिले की बेहतर स्थिति की रिपोर्ट पेश कर रहे वहीं इनके जनपदों पर इनकी छवि काफी नकारात्मक है। पूर्वांचल के कई जिला मुख्यालय में कोरोना काल में इस तरह के मामलें देखने को मिले है। सरकारी प्रयासों को जहां ये डुबो रहे हैं, वहीं सरकार की छवि भी नकारात्मक प्रस्तुत कर रहे हैं। जिन पर लगाम लगाना जहां जरूरी है वहीं हर बेहतर राज्य विधायिका की जिम्मेदारी है।
संजय दुबे