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वकील : न्याय के प्रहरी

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hastakshep
04 Dec 2020
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Lawyer: Sentinels of Justice

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किसी बड़े कवि ने कहा था – ‘Lawyers are perilous mouth’. यह भी एक संयोग ही है कि ब्यूरोक्रेट्स के बारे में कहा गया कि – ‘ब्यूरोक्रेट्स के लिए दुनिया महज एक उलट-फेर की वस्तु है.

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ब्यूरोक्रेसी और वकालत की संरचना में फर्क | Difference in bureaucracy and advocacy structure

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दोनों में मूल अंतर संस्थागत है. ब्यूरोक्रेसी और वकालत की संरचना में जब हम फ़र्क करते हैं तो यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि व्यावहारिक लोकतंत्र की कसौटी पर जो स्पेस लोकतांत्रिक होने के लिए वकालत के पेशे में है वह ब्यूरोक्रेसी में नहीं है. हालांकि शोषण तंत्र का संपूर्ण अध्ययन यह भी दर्शाता है कि शोषण के बड़े से बड़े किले के भीतर शोषितों के पक्ष की संवेदना आंशिक रूप में ही सही लेकिन उसकी मौजूदगी जरूर होती है. हमारे समाज में भी ऐसे अपवाद मौजूद हैं जो ब्यूरोक्रेट्स की अवधारण को खंडित करते हुए सामाजिक सरोकार के प्रति आस्था रखते हैं और समय समय पर इसकी कीमत भी अदा करते हैं.

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वकालत की दुनिया इस अर्थ में अधिक प्रभावशाली भी है और वर्तमान में समाज की ओर अधिक मुखर भी. जबकि वकालत का सामाजिक संबंध अपनी प्रक्रिया में अधिक जटिल और गंभीर होता है.

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वकालत का संबंध संविधान और न्याय से होता है.

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न्याय या जस्टिस एक ऐसी अवधारणा है जिसे सामाजिक अधिकार और स्वतंत्रता के आधार पर समझना बेहद आवश्यक है. इस गंभीर विषय पर अध्ययन की दुनियाँ में गंभीरता के साथ विचार विमर्श किया जाता रहा है.

प्लेटो ने इस संदर्भ में ‘संतुलन’ की बात की तो अरस्तु ने समानता की बात करते हुए इसे ‘परिवर्तनधर्मी संतुलन’ के रूप में इसे देखा. इसी तरह ‘Moderate View’ में ‘व्यक्तिगत अधिकार’ और ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ पर जोर दिया गया. ‘A Theory of Justice’ में RAWS ‘Liberty principle’ and ‘Difference principle’ की बात करते हैं.

मार्क्सवादी विचार में न्यायपूर्ण समाज के लिए समानता की बात है. जस्टिस कृष्णा इसे स्थायी अवधारणा के रूप में नहीं देख पाते हैं. इसी संदर्भ में गाँधी, अंबेडकर, लॉक, स्टुअर्ट मिल जैसे अनेकों विद्वानों ने इस विषय पर गंभीरता से विचार किया है.

समानता और स्वतंत्रता के आधार पर यदि हम न्याय की अवधारणा को समझने का यदि प्रयास करते हैं तो निश्चित रूप से इन विद्वानों में हमें लगभग एकरूपता भी दिखती है. यहाँ पर समानता की पृष्ठभूमि में अरस्तु के विचार ‘परिवर्तनधर्मी संतुलन’ पर विचार करना आवश्यक हो जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि न्याय भले अपने आप में पूरी अवधारणा न हो लेकिन इससे यह तो प्रमाणित हो ही जाता है कि यह आंदोलन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो सामाजिक समानता के लिए निहायत ही आवश्यक है. इस प्रसंग को जब हम अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद की दृष्टि से जोड़कर देखते हैं तब सामूहिक प्रयास, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक समानता के अर्थ में ‘न्याय’ की अवधारणा ‘सामाजिक न्याय’ के रूप में स्पष्ट होने लगती है.

Discrepancies between social justice and personal justice

सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत न्याय के बीच जो विसंगतियां या अंतर है उसे भी हमें ठीक से समझने की जरुरत है. पूंजीवादी राजनीति व्यक्तिगत न्याय के महिमामंडन के पक्ष में होता है जबकि सामाजिक न्याय के ठीक विरुद्ध. इस आधार पर न्याय के अर्थ में भ्रम को स्थापित कर दिया जाता है. पूंजीवादी राजनीति जिसे न्याय कहती है दरअसल वह व्यक्तिगत स्तर पर भरपाई भर होता है, जिसका सांस्थानिक आधार पर कोई अर्थ नहीं होता. ब्यूरोक्रेट्स इसी उलझन को बरकरार रखने में राज्य की सहायता करता है.

वकालत के पेशे से जुड़े वकील ऐसे समय में जब समाज के साथ सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता से संबंधित आंदोलनों के पक्ष में अपनी भूमिका अदा करते हैं तब यह उम्मीद मजबूत होती है कि अभी भी हमारा संघर्ष कमजोर नहीं हुआ है और अभी भी शोषकों के लिए राह आसान नहीं है.

आइये अपने उन वकीलों का सम्मान करें जिन्होंने बाबा साहब आंबेडकर की परंपरा को निभाते हुए अपने पेशे को निभाते हुए सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका तय कर हमारे संवैधानिक अधिकारों के प्रति सचेत और संघर्षरत हैं.     

डॉ. संजीव कुमार

HAPPY ADVOCATE’S DAY. (December 3, 2020).  

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