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चुनाव नतीजों के सबक और कॉरपोरेट चीयरलीडर्स का कोहराम

काशी तमिल संगमम : गंगा किनारे हिलोरें लेता तमिल प्रेम का पाखंड

badal saroj बादल सरोज सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

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यह मार्केटिंग और चीयर लीडर्स - चीखाओं - का काल है। उन्हीं के हाथ में तूती है और गजब की ही बोलती है। इसे बार-बार बजाकर वे इतिहास बदलने की कोशिश तो कर ही रहे हैं, दिनदहाड़े आँखों के सामने घटी घटनाओं को, ताजे घटित हो रहे वर्तमान को भी बदल रहे हैं। वे रात को दिन और दिन को रात साबित करने से भी आगे बढ़ चुके हैं। इसकी ताजातरीन मिसाल दो प्रदेशों गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं और दिल्ली की मुनिसिपैलिटी -एमसीडी - के चुनाव नतीजे हैं।

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चुनाव परिणामों के बाद भाजपा के चीयर लीडर मीडिया ने सिर्फ गुजरात की जीत का तूमार खड़ा कर कुल मिलाकर सामने आये उस रुझान को लोगों की निगाह से दूर रखने की कोशिश की है, जो न सिर्फ इन चुनावों के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं बल्कि 2023 के कुछ विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनावों के हिसाब से भी ध्यान देने के लायक हैं। इन दिनों तो इन चीयर लीडर्स की हालत यह हो गयी है कि यदि भाजपा हिमाचल की तरह गुजरात भी हार जाती और 2-4 सीटों से दिल्ली की म्युनिसिपेलिटी जीत जाती तो वे सिर्फ दिल्ली के नतीजों का ही ढोल बजाते।

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हिमाचली रिवाज कहकर भाजपा की हार को टरकाया नहीं जा सकता

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हिमाचल प्रदेश में जनता ने भाजपा को सत्ता से बेदखल किया है। इसे सिर्फ हर 5 वर्ष में बदलाव करने के तथाकथित हिमाचली रिवाज के आधार पर टरकाया नहीं जा सकता। यहां भाजपा की निर्णायक हार हुई है। इसकी सरकार के 10 में से 8 मंत्री चुनाव हार गए हैं।

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केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के घर हमीरपुर में भाजपा सभी सीटें हारी हैं और कुल सीटों के मामले में भी यह पहले की तुलना में लगभग आधी रह गयी है। इससे भी ज्यादा बड़ा पहलू यह है कि हिमाचल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा का गृहप्रदेश है। इस चुनाव की कमान खुद उनके हाथों में थी - सिर्फ उम्मीदवार तय करने तक ही नहीं, नीचे से नीचे तक, पंचायतों और मतदान केंद्रों तक, अभियान और प्रबंधन की माइक्रो प्लानिंग वे खुद कर रहे थे।

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भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व की हार है हिमाचल में भाजपा की हार

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मोदी-शाह की जोड़ी ने भी इस छोटे से राज की पहाड़ियां चढ़ने उतरने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इस तरह यह भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व की हार है। मगर चीयर लीडर्स गुजरात से बाहर निकलने को ही तैयार नहीं है। हिमाचल आते भी हैं तो जीतकर आयी कांग्रेस में फूट-बिखराव-विघटन-शोक और संताप की ब्रेकिंग न्यूज़ और यहां भी मध्यप्रदेश जैसी खरीदफरोख्त दोहराने की "थैलीधारी फर्जी चाणक्य" की योग्यता से जल्द ही छींका टूटने की संभावनाओं की अटकलें और पहेलियाँ बुझाते हैं।

यही रवैया दिल्ली की एमसीडी के नतीजों को लेकर है। चीयर लीडर्स या तो चुप्प मारकर बैठे हैं या फिर इसे एक स्थानीय नगरपालिका चुनाव की तरह बस छू भरकर छोड़ रहे हैं, जबकि ठीक दो साल पहले दिसंबर में हुए हैदराबाद के म्युनिसिपल चुनाव के वक़्त इतना शोर मचाया गया था कि जैसे किसी राज्य को जीत लिया हो। पहले नंबर पर रहने वाली टीआरएस का जिक्र तक नहीं था; खबर दूसरे तीसरे नंबर पर रहने वालों की थी। बैनर हैडलाइन ओवैसी बनाम नड्डा की थी।

दिल्ली के चुनावों को लेकर खबर यह नहीं है कि कौन जीता है, असली खबर यह है कि दिल्ली की जनता ने 15 वर्ष से एमसीडी में सत्तासीन भाजपा को हराया है। वह भी तब जब 24 घंटा 365 दिन चुनावी मोड रहने वाली भाजपा ने अपने अभियान से दिल्ली को रौंद कर रख दिया था। अपने ठेठ संविधान विरोधी, आपराधिक और जहरीले बयानों से दिल्ली को विषाक्त बनाने की कोशिश करने वाले असम के मुख्यमत्री सहित भाजपा शासित 7 प्रदेशों के मुख्यमंत्री, एक उपमुख्यमंत्री, 17 केंद्रीय मंत्री, प्रदेश सरकारों के 40 मंत्री और बिहार झारखण्ड सहित कुछ राज्यों के अपने पूर्व-भूतपूर्व मंत्रियों से दिल्ली को पाट कर रख दिया था। अकेले प्रचार बंद होने वाले दिन ही भाजपा ने 210 आमसभाएँ की थीं। इतने सब के बावजूद दिल्ली की जनता ने मोदी शाह की भाजपा का टाट उलट दिया - और यह अच्छी बात है।

गुजरात पर आने से पहले इन दोनों चुनाव परिणामों की वजहों पर सरसरी नज़र डालना ठीक होगा।

हिमाचल के चुनाव अभियान की धुरी भाजपा को हराकर कांग्रेस को जिताने की नहीं थी। आम आदमी पार्टी यहां गुजरात से भी ज्यादा जोशोखरोश से उतरी थी। इसके बाद भी भाजपा विरोधी मतों का एकजाई ध्रुवीकरण किसी नेता या पार्टी के लिए नहीं, जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दों को लेकर था। पुरानी पेंशन योजना की बहाली और किसानों की स्थानीय उपज - सेब - की बदहाली सबसे बड़ा मुद्दा था। (सेब उत्पादन वाले क्षेत्र की 17 में से 14 सीटों पर भाजपा हारी है) इसी के साथ सेना में भर्ती खत्म कर देने वाली अग्निवीर योजना के खिलाफ हिमाचली जनता का गुस्सा मुखर था। महंगाई, खासकर रसोई गैस और पेट्रोलियम पदार्थों की आकाश छूती कीमतें आक्रोश का कारण थीं। मतदाताओं का बड़ा हिस्सा इन मांगों पर ठोस कार्यवाही सुनिश्चित कर सकने वाला राज चाहता था। इस तरह यह भाजपा की चुनावी हार भर नहीं है - उसकी नीतियों के विरुद्ध जनादेश है, इस तरह उसकी राजनीतिक पराजय है। कारपोरेटी मीडिया के लिए इन नतीजों को ठीक तरह से पढ़ना घाटे का सौदा होगा इसलिए उनके जिक्र में हिमाचल की जनता का मिजाज नहीं है। इसी तरह दिल्ली में भी पानी, बिजली, साफ-सफाई, पढ़ाई और दवाई वोट का का मुख्य आधार बने - चीयर लीडर्स ने बजाय इस पहलू को पकड़ने के भाजपा को वोट न देने वालों को "अनपढ़, जाहिल गरीबों" की भीड़ तक बता मारा।

हिमाचल और दिल्ली दोनों ही जगहों पर पाकिस्तान, समान आचार संहिता से लेकर उन्मादी सवाल खड़े किये गए मगर चले नहीं।

गुजरात में तस्वीर इस आम रुझान से अलग रही। यहां नरेंद्र मोदी, और उनके अमित शाह, सिर्फ घर घर जाकर पर्चे ही नहीं बाँट रहे थे - हर सीट पर खुद ही उम्मीदवार भी थे। बड़ी तादाद में वर्तमान विधायकों को बदलने के बाद भी मुख्य नारा "फलाना तो मजबूरी है - मोदी बहुत जरूरी है" का था। चुनाव अभियान का स्तर इस कदर निर्लज्ज था कि खुद गृहमंत्री अमित शाह 2002 के दंगों, जो दरअसल नरसंहार था, का श्रेय ले रहे थे। अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलते हुए नफरती उन्माद को उकसा रहे थे। एम्बुलेंस तक को चुनाव प्रचार का जरिया बनाया जा रहा था। जी-20 की बारी-बारी से मिलने वाली अध्यक्षी को बाकी भारत में राष्ट्रगौरव बताने वाली भाजपा इसे गुजरात में गुजरात का गौरव बता रही थी। चीयर लीडर्स ने, आप को छोड़, बाकी पार्टियों का नाम ही लेना बंद कर दिया था। निर्विकल्पता के प्रायोजित प्रचार और गुजराती प्रधानमंत्री के मोदी फैक्टर को उभारकर लड़े जाने वाला यह चुनाव इस प्रदेश का पहला त्रिकोणीय चुनाव था। नतीजे में भाजपा ने न केवल बड़ी जीत हासिल की है बल्कि मोरबी हादसे वाली सीट जीतकर और बिलकिस बानो के हत्यारों को सदाचारी बताने वाले विधायक को भी जितवाकर एक खराब मिसाल भी प्रस्तुत की है।

रामपुर विधानसभा सीट पर उपचुनाव : भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक संदेश

यही पैटर्न - इससे कहीं ज्यादा खतरनाक तरीके से - उत्तर प्रदेश की रामपुर विधानसभा सीट पर आजमाया गया। यहां जो हुआ वह भविष्य में भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए एक अत्यंत चिंताजनक घटना है। यहां मतदाताओं को उनके धर्म के आधार पर वोट डालने से रोका गया। खुद पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने मुस्लिम मतदाताओं को पोलिंग बूथ्स से खदेड़ा। उनकी इस मुजरिमाना हरकत को कवर कर रहे पत्रकारों के साथ भी पुलिसियों ने मारपीट की। दो पत्रकारों को तो गिरफ्तार भी कर लिया गया। यह बात अलग है कि मैनपुरी में वे यह सब नहीं कर पाए - उत्तर प्रदेश की अपनी जीती हुई खतौली सीट को भी नहीं बचा पाए।

क्या भाजपा को हराया जा सकता है?

कुल मिलाकर यदि गुजरात और रामपुर आशंका हैं तो हिमाचल से दिल्ली होते हुए खतौली संभावनाएं हैं। इन परिणामों के तीन जाहिर उजागर सबक हैं और वे ये; कि भाजपा को हराया जा सकता है, कि अगर जनता के वास्तविक मुद्दों को उभार कर सामने लाया जाए तो उन्मादी घटाटोप छँट सकता है और यह भी कि यह अपने आप नहीं होगा। इसे साहस और जिद के साथ करना होगा - यदि गुजरात में ऐसा किया जाता तो वहां का नतीजा भी कुछ और हो सकता।

बादल सरोज

सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

गुजरात की जीत का जश्न या हार पर भ्रमजाल

Lessons from the election results and the hue and cry of corporate cheerleaders

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