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भारतीय जीवन बीमा निगम के शेयरों को बेचने का अर्थ (Meaning of sale of shares of Life Insurance Corporation of India) इसके बीमा धारकों को भविष्य में होने वाली आय को बेचना है...
एलआईसी में अपने शेयरों को बेचकर, सरकार वास्तव में, पॉलिसी-धारकों को भविष्य में होने वाली आय को सस्ती कीमत पर अमीर, कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी को बेच रही है।
देश 4 मई को देश की उस सबसे बड़े वित्तीय फेरबदल की शुरुआत देख रहा है जिसे वित्तमंत्री होते हुए और बाद में प्रधानमंत्री रहते हुए भी नहीं कर पाने का अफसोस शायद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अब भी अवश्य होता होगा। यह शायद जुलाई 2012 की बात है जब ब्रिटिश अखबार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का पूडल कहा था। मैंने तब अपने लेख ‘मनमोहन सिंह पूडल तो हैं पर किसके’ में यहीं पर कहा था कि;
“यदि मनमोहन सिंह पूडल हैं तो सोनिया के नहीं अमेरिका, वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के पूडल हैं और पिछले दो दशकों में सत्ता का सुख प्राप्त कर चुके सभी दल इनके पूडल रह चुके हैं, यहाँ तक कि देश का मीडिया भी, विशेषकर टीवी मीडिया और बड़े अंग्रेजी दां अखबार भी इनके पूडल हैं।“
देश के आर्थिक परिदृश्य में सिर्फ इतना परिवर्तन आया है कि वह मनमोहन सिंह युग से और भी बद्तर हुआ है। पर, अब कोइ पूडल नहीं कहलायेगा, क्योंकि अब वर्ल्डबैंक, आईएएफ और डब्लयूटीओ को इशारे करने की जरूरत नहीं पड़ती है। आपदा से अवसर निकालकर हम आत्मनिर्भर हो गए हैं, पर कैसे, यह विचारणीय है?
भारत के जीवन बीमा क्षेत्र को, जो 1956 से पूरी तरह सरकारी संरक्षण में था, 1991 में विश्वबैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के तहत अपनाई गयी उदारवादी वित्त व्यवस्था के अनुरूप ढालने की सिफारिशें प्राप्त करने के लिए 1993 में आर ऍन मल्होत्रा कमेटी का गठन किया गया था, जिसकी रिपोर्ट 1994 में भारत सरकार को प्राप्त हो गयी थी और कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी रिपोर्ट ठीक वैसी ही थी जैसी विश्वबैंक और मुद्राकोष के साथ साथ देशी विदेशी पूंजी चाहती थी याने जीवन बीमा के क्षेत्र में भाजीबीनि का एकाधिकार समाप्त करके न केवल विदेशी-देशी पूंजी को इसमें खेलने की अनुमति दी जाए बल्कि एलआईसी के स्वामित्व से भी भारत सरकार हटे और इसमें देशी-विदेशी पूंजी को घुसने का मौक़ा दिया जाए। रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद लगभग दो वर्ष मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 1995 तक कांग्रेस की सरकार रही पर वह उन सिफारिशों को दो वजह से लागू नहीं कर पाई।
प्रथम तो भारतीय जीवन बीमा निगम की भारत की अर्थव्यवस्था में जो रणनीतिक भूमिका थी और देश के सामाजिक जीवन के उत्थान तथा प्रगति में जो योगदान था, उसमें एकदम और अचानक अवरोध से जो समस्याएँ खड़ी होतीं, उन्हें समझने की क्षमता तत्कालीन सरकार और कांग्रेस पार्टी में थी, जिसने मनमोहन सिंह को तमाम वैश्विक दबावों के बावजूद इस कार्य को करने से रोका। दूसरा महत्वपूर्ण कारण था एलआईसी कर्मचारियों का आन्दोलन और उस आंदोलन के साथ जुड़ी भाजीबीनि के बीमा धारकों और आम लोगों की एकजुटता। पर, जो कार्य तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बावजूद 1995 तक कांग्रेस नीत सरकार और उसके बाद आईं मिली-जुली सरकारें नहीं कर पाईं, वह दिसंबर 1999 में भाजपा के नेतृत्व में बनी अटल वाजपाई सरकार ने कर दिया और जीवन बीमा का बाजार विदेशी-देशी पूंजी के लिए खोल दिया गया। पर, एल आई सी को हाथ लगाने की जुर्रत उसके बाद भी पूरे 21 साल कोई सरकार नहीं कर पाई।
आज सरकार अपने 3.5% शेयर बाजार के हवाले कर रही है और उसे पूरी उम्मीद है कि वह इससे वर्ष 2023 के लिए निर्धारित अपने विनिवेश के 78 हजार करोड़ के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगी।
भारतीय जीवन बीमा निगम में राष्ट्रीयकरण के समय सरकार ने कितनी पूंजी लगाई?
भारतीय जीवन बीमा निगम में राष्ट्रीयकरण के समय सरकार ने मात्र 5 करोड़ की पूंजी लगाई थी। उस प्रारंभिक निवेश के बाद व्यवसाय के विस्तार के लिए सरकार ने कभी कोई अतिरिक्त पूंजी का योगदान नहीं किया है। एलआईसी की पूरी उन्नति और विस्तार एलआईसी द्वारा पॉलिसीधारकों से एकत्रित बीमा के लिए प्रदत्त धन से ही हुआ है। यहां तक कि नियमों के अनुसार आवश्यक सॉल्वेंसी मार्जिन भी पॉलिसीधारकों से एकत्रित फंड के द्वारा ही हुआ है।
यह कहा जा सकता है कि एलआईसी एक अनोखी ट्रस्ट या म्यूचुअल बेनिफिट सोसाइटी जैसी है, जो “लोगों के धन से, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा”, शुद्ध लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलाई जाती है। पिछले कई दशकों में निर्मित एलआईसी के सरप्लस फंड, इसकी 38 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति, इसके पॉलिसीधारकों की है, इसलिए वे ही एलआईसी के वास्तविक मालिक हैं। सरकार अपने 5 करोड़ के एवज में 28 हजार करोड़ से ज्यादा का लाभांश और लगभग इतने का ही निवेश जनकल्याणकारी योजनाओं में एलआईसी से प्राप्त कर चुकी है। बीमा धारक ही इसके 100% इक्विटी शेयर धारक हैं। इसीलिए, एलआईसी का स्लोगन भी रहा है ‘पॉलिसीधारक हमारे स्वामी हैं’।
यह हास्यास्पद सा लगता है कि इसके सच्चे स्वामियों को आज सरकार उपकृत सा करते हुए उन्हें आईपीओ में 10% निवेश की जगह देने का झुनझुना पकड़ा रही है।
भारतीय जीवन बीमा निगम का निजीकरण (Privatization of Life Insurance Corporation of India) मोदी सरकार के निजीकरण के अभियान के सबसे बुरे निर्णयों में से एक प्रमुख निर्णय होने जा रहा है। 1956 से विकास के झंडे को देश के दूरदराज के आदिवासी तबकों से लेकर सम्पूर्ण ग्रामीण भारत के कोने कोने तक पहुंचाने वाली संस्था, जिसके पीछे चलकर ही बाकी तमाम वित्तीय योजनाएं और संस्थाएं उन इलाकों तक पहुँची, स्वतंत्रता पश्चात आत्मनिर्भर भारत के जिस स्वप्न को देखा गया और जिसे अमली जामा पहनाने निगम के लाखों कर्मचारियों, अधिकारियों और एजेंटों ने अपना खून पसीना दिया, उस ट्रस्ट को तोड़कर आज एलआईसी को पॉलिसीधारकों के ट्रस्ट से बदलकर शेयरहोल्डर्स के लिए मुनाफे अर्जित करने वाली कंपनी में बदला जा रहा है। इसे करने के लिए इंश्योरेंस रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (IRDA) दो बदलाव पहले ही कर चुकी है। पहला कि, नॉन-सेविंग लिंक्ड पॉलिसी एक अलग लाइफ फंड होगी जिसका रिटर्न पॉलिसीधारकों को नहीं बल्कि शेयरधारकों को जाएगा। दूसरा, पॉलिसी-धारकों को वितरित किए जाने वाले शुद्ध रिटर्न के अनुपात को 95 प्रतिशत से घटाकर 90 प्रतिशत कर दिया गया है। जैसे-जैसे निजी शेयरधारक बढ़ेंगे, यह अनुपात निश्चित रूप से और घटेगा।
सरकार एलआईसी में विदेशी पूंजी की भी अनुमति दे रही है। इससे निश्चित रूप से विदेशी पूंजी को घरेलू बचत पर और अधिक पहुंच और नियंत्रण हासिल करने में मदद मिलेगी, जिससे राष्ट्रीय विकास परियोजनाओं के लिए धन-संग्रह में रुकावट पहुंचेगी। आत्मनिर्भर भारत की रट लगाने वाली सरकार यह समझ भी रही है या नहीं, किसे पता?
एलआईसी में आम लोगों का अटूट विश्वास क्यों कायम हुआ?
एलआईसी के निजीकरण का निस्संदेह रूप से सरकार की तरफ से पॉलिसीधारकों को दी जाने वाली सॉवरेन गारंटी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
भारतीय जीवन बीमा निगम में आम लोगों के अटूट विश्वास के पीछे यह सॉवरेन गारंटी एक महत्वपूर्ण कारक थी। भारत के अधिकांश हिस्सों में, गरीबों को शायद ही कोई सामाजिक सुरक्षा सुरक्षा प्राप्त है। एलआईसी उन्हें कम प्रीमियम पर कई सामाजिक सुरक्षा बीमा कार्यक्रम, आकर्षक सावधि जमा योजनाएं और स्वयं सहायता समूहों के लिए विशेष योजनाएं प्रदान करती रही है और कर रही है। यदि क्रॉस-सब्सिडी समाप्त हो जाती है, तो ऐसी योजनाएं संकट में पड़ जाएंगी।
पॉलिसीधारकों और कर्मचारियों को शेयरों की पेशकश एक छलावे के अतिरिक्त कुछ नहीं है। शेयर मार्केट में आईपीओ आने के बाद एलआईसी का नियंत्रण किस और कैसे निवेशक समूह में स्थानांतरित होगा और वे इसके लाखों के असेट्स का तथा लाईफ और सरप्लस फंड का कैसा क्या उपयोग-गोलमाल करेंगे, इसे जानने के लिए राष्ट्रीयकरण के पहले का निजी बीमा कंपनियों इतिहास उपलब्ध है।
सरकार का एलआईसी का आईपीओ लाये जाने के पक्ष में दिये जा रहे तर्क कि इससे एलआईसी में और अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित होगी, बोगस है, क्योंकि सरकार स्वयं साल दर साल संसद में एलआईसी का पॉलिसीधारकों के हितों की रक्षा करने के बेदाग रिकॉर्ड पेश करती रही है। क्योंकि एलआईसी हर साल भारी निवेश योग्य सरप्लस देती है, इसलिए इस तर्क का कोई मतलब नहीं है कि इससे अधिक पूंजी एकत्रीकरण में मदद मिलेगी।
यह तर्क तो और भी हास्यास्पद है कि एलआईसी का आईपीओ लाने से भारतीय जनता को लाभ होगा, क्योंकि शेयर बाजार में खुदरा निवेशक आबादी का लगभग 3% ही हैं। वास्तव में एलआईसी में अपने स्वामित्व के हिस्से के शेयरों को बाजार में बेचने का मतलब केवल और केवल अमीर, कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी को सस्ती कीमत पर एकत्रित सार्वजनिक संपत्ति-धन को उपलब्ध कराना ही है। सरकार एलआईसी में अपने शेयरों को बेचकर, वास्तव में, पॉलिसी-धारकों को भविष्य में होने वाली आय को अमीर, कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी को सस्ती कीमत पर बेच रही है।
अरुण कान्त शुक्ला
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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