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ये हैं संशोधित नागरिकता क़ानून के पक्ष में गृह-मंत्री अमितशाह के सफ़ेद झूठ

अमित शाह की ज़ुबान से निकले शब्द गाली क्यों बन जाते हैं

These are the lies of Home Minister Amit Shah in favor of revised citizenship law

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नागरिकता (संशोधन) क़ानून, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019) के जरिए उन हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों और पारसियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने का रास्ता प्रशस्त किया जा रहा है, जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न (Religious persecution) से त्रस्त होकर 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले, भारत आ चुके हैं। इस विधेयक को देश के गृह मंत्री अमितशाह ने 9 दिसंबर, 2019 को लोकसभा में पेश किया है।

यह विधेयक लोकसभा में आरएसएस/भाजपा को हासिल विशाल बहुमत की बदौलत बिना किसी परेशानी के, फ़कत आठ घंटे से भी कम समय में पारित हो गया। 2 दिन बाद, 11 दिसम्बर को राज्य सभा ने केवल 6 घंटों में इस बिल को मंज़ूरी देकर क़ानून बनाने का रास्ता साफ़ कर दिया। इस तरह आरएसएस/भाजपा शासकों ने संविधान की मूल-आत्मा, देश की लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष चरित्र और उसकी बुनियाद पर गहरा आघात किया है। अधिक अफसोस जनक है कि अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस - International Human Rights Day (10 दिसंबर) के आसपास इस कुकृत्य को अंजाम दिया गया। नागरिकता क़ानून, 1955 में नागरिकता (Citizenship in Citizenship Act 1955,) के लिए धार्मिक आधार जैसा भेदभाव-पूर्ण कोर्इ प्रावधान नहीं था अब निरस्त हो गया है।

यह समझना ज़रा भी मुश्किल नहीं है कि यह तो अभी शुरुआत है। देश में मौजूद नागरिकों की नागरिता की जाँच के लिए और और भी भयानक क़ानून कानून जल्द ही आने वाले हैं। भारतीय राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर - National register of citizens, (NRC)के लिए जारी कवायद के तहत करोड़ों भारतीय, विशेष रूप से दलित, वंचित समाज और मुस्लिम अवाम पर जुल्मो-कहर ढहाने की तैयारियां हैं।

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गृह मंत्री अमित शाह इस विधेयक के बचाव में संसद के भीतर और संसद बाहर जिन दलीलों को पेश कर हैं आइए जरा उन तर्कों की जांच की जाए।

(1) नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2019 भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान को दफनाने की एक कोशिश है

इस विधेयक को लोकसभा में पेश करते समय शाह ने पक्ष में जो तर्क चीख-चीख कर पेश किए, उस में से एक था, "संविधान हमारा धर्म है" और यह विधेयक भारतीय संविधान के अनुरूप है। झारखंड विधान सभा चुनाव को ज्यादा वरीयता देते हुए वहां चुनाव में व्यस्तता के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस मौके पर संसद में उपस्थित नहीं थे, तदापि उन्हों ने अमितशाह पर पूरा विश्वास जाहिर करते हुए घोषित किया, "यह विधेयक भारत की सदियों से चली आ रही समावेशी परंपरा और मानवीय मूल्यों में विश्वास के अनुरूप है"।

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यह पूरी तौर पर निर्ल्लज झूठ हैं। स्वतंत्र भारत में, इससे पहले इस तरह का कोर्इ अन्य विधान नहीं रहा है। संविधान के अनुच्छेद 15 के में कहा गया है, "धर्म, जाति, वंश, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी के साथ कोर्इ भेदभाव नहीं किया जाएगा"। यह विधेयक इस प्रावधान का जघन्य उल्लंघन करता है।

दावा किया गया है कि मौजूदा नागरिक कानून, 1955 का यह संशोधित रूप है। जबकि, यह अभी तक लागू कानून के खिलाफ है क्योंकि नागरिक कानून, 1955 अधिनियम के अनुसार जन्म, अवजनन, पंजीकरण, देशीयकरण या राज्यक्षेत्र के समावेश द्वारा भारतीय नागरिकता प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार प्रस्तुत विधेयक भारतीय संविधान के, देश की सर्वोच अदालत दुवारा घोषित चार बुनियादी स्तंभों में से एक-इसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र का अतिक्रमण है।

(2) यह विधेयक आरएसएस के मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण के वैश्विक एजेंडे का हिस्सा है

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अमित शाह ने सदन में इस विधेयक को पेश करते हुए यह भी ऐलान किया है कि यह अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं है। शाह के अनुसार, "पीएम नरेंद्र मोदी के तहत किसी अल्पसंख्यक को डरने की जरूरत नहीं है"।

यहाँ शाह बड़े उदार और विशाल ह्रदय गृह मंत्री नज़र आते हैं, जो उन सभी लोगों का भारत में बतौर नागरिक स्वागत के लिए तत्पर हैं "जो उत्पीड़न...अपने धर्म और अपने परिवार की महिलाओं के सम्मान को बचाने के खातिर स्वदेश छोड़ करके भारत आते हैं"

'मानवतावादी' अमित शाह की दलील थी:

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"यदि पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों को सताया जा रहा है, तो हम मूक दर्शक नहीं रह सकते। हमें उनकी हिफाजत और उनके सम्मान व गरिमा की सुनिश्चितता को आश्वस्त करना होगा।"

पर विधेयक पर नजर डालते ही शाह के ये सब दावे हवा हो जाते हैं। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में सताए गए हिंदुओं ,सिखों, बौद्धों, ईसाइयों और पारसियों से ही सहानुभूति है और देश में उनका स्वागत है, परंतु शियाओं, अहमदियों और सूफियों जैसे अन्य सताए गए मुसलमान इसके पात्र नहीं माने गए हैं। आरएसएस/भाजपा के हुक्मरानों के अनुसार सताए गए मुसलमानों पर इसलिए विचार नहीं किया गया क्योंकि वे अल्पसंख्यक नहीं हैं, बल्कि मुसलमान होने के कारण बहुसंख्यक हैं। एक निपढ़-निरक्षर भी बखूबी जानता है कि इन तीनों देशों में उपर्युक्त संप्रदायों से संबंधित लोग वहां घोषित तौर पर मुसलमान नहीं माने जाते हैं।

अमित शाह तीन मुस्लिम देशों में हिंदुओं ,सिखों, बौद्धों, ईसाइयों और पारसियों के धार्मिक उत्पीड़न पर तो बेहद चिंतित हैं, परंतु इन देशों में धर्मांध कट्टरपंथी इस्लामी समूहों द्वारा तर्कवादियों, उदारवादियों, नास्तिक लेखकों, कवियों, ब्लॉगरों और धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं की सैकड़ों की तादाद हत्या और उत्पीड़न से शाह को जरा भी परेशानी नहीं हैं । पाकिस्तान में बलूच राष्ट्रवादियों की हत्याएं, जातीय आधार पर उनका अस्तित्व नेस्तनाबूत करने की मुहिम जारी है, भारत लंबे समय से इसकी भर्त्सना करता रहा है। हजारों बलूच पाकिस्तानियों को पाकिस्तान के सशस्त्र सैन्य बलों ने मौत के हवाले कर दिया है, सैकड़ों ऐसे हैं जिनका कोर्इ अता-पता नहीं है। नस्लीय आधार पर उनका सफाया किए जाने के बावजूद, प्रस्तुत विधेयक में उनके लिए कोर्इ गुंजाइश नहीं है कि वे भारत में शरण ले सके, क्योंकि वे मुसलमान हैं, अल्पसंख्यक नहीं हैं!

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और, चीन में उइग़ुर मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर हो रहे उत्पीड़न का क्या? संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने जांच में पाया हैं कि चीन के पश्चिमी शिनजियांग क्षेत्र में एक लाख से अधिक उइग़ुर मुसलमान और अन्य मुस्लिम समूहों को बाड़बंदी करके शिविरों में अवरूद्घ रखा गया। उनके बारे में चीन की सरकार का कहना था कि उन्हें "फिर से शिक्षित करने के "कार्यक्रम के तहत वहां रखा गया है।"

हाल ही में, अमेरिकी कांग्रेस ने चीन पर दबाव डालने के उद्देश्य से एक विधेयक पारित किया है जिसका मकसद चीन के सुदूर पश्चिम क्षेत्र में इस उपजातीय मुस्लिम समूह पर सामूहिक क्रूर दमन को रोकना है। < https://www.cbsnews.com/news/congress-approves-bill-condemning-china-for-persecution-of-ethnic-muslims/ >

पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान में उत्पीड़ित मुसलमान जो भारत में आ-बस गए हैं उन्हें स्वीकार करने के लिए अमितशाह तैयार नहीं हैं। उनका तर्क है कि इन देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं। लेकिन चीन में उत्पीड़न के शिकार मुसलमान तो वहां धार्मिक अल्पसंख्यक हैं! नए नागरिकता क़ानून के तहत उन्हें शरणार्थी का दर्जा देने से इंकार करना न केवल मुसलमानों के ही प्रति नफरत जाहिर करता है, यह चीनी शासकों की चापलूसी और फरमाबरदारी को भी जाहिर करता है।

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इसी प्रकार, अफ़गानिस्तान में तालिबान की ज्यादतियों के शिकार होकर सैकड़ों की तादाद में अफ़गान भारत आ चुके हैं जिन में बड़ी तादाद औरतों की है, उनके समक्ष जल्द ही भारी आफत आने वाली है। इनमें अनेक महिलाएं भी हैं। नए नागरिकता क़ानून के तहत ये सभी अफगान शरणार्थी अफ़गानिस्तान लौटने के लिए विवश होंगे जिस का एक बड़ा हिस्सा इस समय भी तालिबान का नियंत्रण है।

ईसाईयों के प्रति प्रेम का ढकोसला

पड़ोसी देशों में ईसाइयों के प्रति जिस कदर प्यार उड़ेला जा रहा है यह भी कम हैरतअंगेज नहीं है क्योंकि आरएसएस के गुंडों द्वारा हिंसा का सामना मुसलमानों के बाद इस समुदाय के लोगों को ही सबसे अधिक करना पड़ा है। आरएसएस के सबसे प्रमुख विचारक ने मुसलमानों को 'आंतरिक खतरा नंबर 1' और उनके बाद भारतीय ईसाइयों को 'आंतरिक खतरे नंबर 2' बता रखा है।

ईसाइयों के प्रति अमित शाह की यह मुहब्बत बहुत जल्द बेनकाब होने वाली है। अगले कुछ दिनों के भीतर संसद में संविधान (126 वां संशोधन) विधेयक पारित हो जाएगा। इस संशोधन के बाद 25 जनवरी, 2020 से लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-भारतीय सदस्यों के नामांकन की व्यवस्था खत्म हो जाएगी। र्इसाइयों के इस समुदाय से प्रतिनिधि मनोनीत किए जाने का प्रावधान इसलिए किया गया था कि देश की आबादी में अत्यल्प होने की वजह से इस समुदाय के प्रतिनिधि चुनाव जीत कर सदन में आ सके, मुश्किल है। एक हकीकत यह भी है कि बावजूद संवैधानिक प्रावधानों के मोदी सरकार ने17 वीं लोकसभा के गठन के बाद (छह महीने से अधिक समय तक)सदन में एंग्लो-भारतीय समुदाय से किसी भी सदस्य को नामित नहीं किया है। < https://www.telegraphindia.com/india/anglo-indian-appeal-on-nominated-members/cid/1725605?ref=top-stories_home-template > वह सरकार जो देश की सीमाओं के पार ईसाइयों के उत्पीड़न को लेकर व्यथित है, देश के भीतर उनके लिए सुनिश्चत तमाम संवैधानिक अधिकारों के बावजूद, उन्हें उन अधिकारों से वंचित किए जाने में लगी हुर्इ है।

प्रसंगवश, इस संशोधित क़ानून के बाद, तस्लीमा नसरीन (Taslima Nasreen) को बांग्लादेश भेज दिया जाएगा।

(3) सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के प्रति अमित शाह का प्रेम जिन्हें आरएसएस भारत में स्वतंत्र धर्म ही नहीं मानती है!

पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान के हिंदुओं, सिखों, जैनियों और बौद्धों के प्रति अमितशाह जो मुहब्बत जाहिर कर रहे हैं यह भी ख़ासा दिलचस्प है। बहैसियत आरएसएस के मार्ग-दर्शक, अमितशाह को हिंदू धर्म से स्वतंत्र इन धर्मों की हैसियत मंजूर नहीं हैं। उनके गुरु गोलवलकर की शिक्षा यही है कि हिंदुओं को सिखों, बौद्धों और जैनियों में विभाजित नहीं किया जाना चाहिए, "बौद्ध, जैन, सिख सभी के लिए एक ही व्यापक शब्द 'हिंदू' है।"

(4) अंतिम तारीख का रहस्य

इन उत्पीड़ित समुदायों द्वारा भारत में शरण लेने के लिए अंतिम तारीख 31 दिसंबर 2014 या उससे पहले तय की गई है। इसका अर्थ यह है कि 31 दिसंबर, 2014 के बाद इन तीनों देशों में हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों और पारसियों का उत्पीड़न नहीं हो रहा है। भारत के पड़ोस की मौजूदा हकीकत इसके एकदम विपरीत है। असम में विदेशी घोषित किए गए पंद्रह लाख से अधिक हिंदुओं के बढ़ते गुस्से को देखते हुए यह अंतिम तारीख तय की गर्इ है। लेकिन, इसने असम के पुराने जख्मों को ताजा कर दिया है। असम की पहचान के लिए संघर्षरत संगठन, इस नागरिकता संशोधन अधिनियम का मुखर विद्रोह कर रहे हैं। इस क़ानून ने असम के हिन्दुओं को ही आपस में ही लड़वा दिया है।

(5) श्री लंका के उत्पीड़ित हिन्दुओं को अधरझूल में छोड़ दिया गया है

नागरिकता संशोधन विधेयक (CAD)श्री लंका के बारे में खामोश है। वहां हिंदू तमिलों का बड़े स्तर पर नरसंहार हो चुका है। श्रीलंका में फासीवादी बौद्ध संगठन का कहना है, श्रीलंका केवल सिंहलियों के लिए है। अमित शाह और उनकी हिंदुत्ववादी सरकार ने श्रीलंका में घनघोर उत्पीड़न से त्रस्त उन हिंदू तमिलों के साथ विश्वासघात किया है जिन्हें गृहयुद्ध के दौरान श्रीलंका से पलायन करके भारत में आना पड़ा था। श्रीलंका में इस समय रह रहे हिन्दुओं को अब भी उत्पीड़न झेलना पड़ रहा है। सबसे खराब बात यह है कि इस विधेयक में इस पड़ोसी देश में हिंदुओं के उत्पीड़न की चिंता के विषय को ही छोड़ दिया गया है।

(6) 'एक राष्ट्र, एक विधान'को लेकर अमित शाह का पाखंड

सत्ताधारी आरएसएस/भाजपा सक्रिय रूप से यह वकालत करते रहे हैं कि भारत एक राष्ट्र है और प्रत्येक मामले में संपूर्ण देश और देशवासियों के लिए एक ही कानून होना चाहिए। रोचक स्थिति यह है कि भारत में अब तक नागरिकता के संबंध में सभी के लिए एक ही नागरिकता कानून रहा है, लेकिन प्रस्तुत संशोधन के बाद, देश में नागरिकता के लिए विभिन्न कानून होंगे। वर्तमान विधेयक संपूर्ण अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, लगभग पूरे मेघालय और असम और त्रिपुरा के कुछ हिस्सों को इस कानून से बहार रखता है, फिलहाल मणिपुर इसके दायरे में आता है लेकिन इसे भी इस क़ानून की प्राधी से बहार कर दिए जाने की सम्भावना है । इस प्रकार नागरिकता को लेकर विभिन्न कानून होंगे, 'एक राष्ट्र, एक कानून' का नारा तो अब पूरे तौर पर खोख्ला साबित हो गया है ।

(7) नागरिकता में संशोधन से संबंधित इस कानून की पटकथा नफरत के गुरू-घंटाल गोलवलकर ने 1939में ही रच दी थी

आरएसएस के सबसे महत्वपूर्ण विचारक, गोलवलकर ने 1939 में अपनी पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड में भारतीय राष्ट्र के चरित्र के बारे में जो कुछ कहा है, प्रस्तुत नागरिकता (संशोधन) 2019 उसकी पुनरावृति है। उक्त पुस्तक में गोलवलकर ने कहा था कि भारत एक अनन्य हिंदू राष्ट्र रहेगा। अमित शाह ने इस बिल को पेश करते हुए घोषणा की है कि यह विधेयक अल्पसंख्यक के खिलाफ नहीं है। वास्तविकता यह है कि यह केवल अल्पसंख्यकों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान के भी खिलाफ है। आरएसएस को 1925 में, अपने जन्म से ही सर्व-समावेशी भारत के विचार से नफरत है।

गोलवरकर ने ऐलानिया कह दिया था,

"हिन्दुओं की धरती हिन्दुस्थान में हिन्दू राष्ट्र रहता है और रहना ही चाहिये…फलतः केवल वही आंदोलन सच्चे अर्थों में ‘राष्ट्रीय’ हैं जो हिन्दू राष्ट्र के पुनर्निर्माण, पुनरोद्भव तथा वर्तमान स्थिति से इसकी मुक्ति का उद्देश्य लेकर चलते हैं। केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू नस्ल और राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्धत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये संघर्ष करते हैं।

उसने यहां तक कह दिया था कि वे सभी लोग, जिनकी हिंदू राष्ट्र कायम करने के प्रति आस्था नहीं है "देशद्रोही हैं और देश के दुश्मन हैं, या फिर नरम शब्दों में कहा जाए तो मूर्ख हैं"।

आरएसएस के अन्य नेताओं की तरह गोलवलकर भी हिटलर और मुसोलिनी के बहुत बड़े प्रशंसक थे। नाजियों द्वारा यहूदियों के नरसंहार का यशगान करते हुए उसने लिखा है:

"जर्मन नस्ल के गौरव की चर्चा आज हर जगह है। अपनी संस्कृति और नस्ल की शुद्धता को बनाये रखने के लिये उसने अपने देश को सेमिटिक (सामी) नस्ल के लोगों यानि यहूदियों से स्वच्छ कर पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। वहां नस्लीय गौरव के उच्चतम रूप की अभिव्यक्ति हुई है। जर्मन ने यह भी सिखाया है कि कैसे जड़ तक विभिन्नता वाली नस्लों और संस्कृतियों को एक एकीकृत समग्रता में समाहित करना बिल्कुल असंभव है। यह हिंदुस्थान के संदर्भ में हमारे लिये सीखने और लाभ उठाने के लिये अच्छा अध्याय है।"

हिटलरी अधिनायकवाद और फासीवादी नमूने का भारत बनाए जाने की अपनी ख्वाहिश निस्संकोच व्यक्त करते हुए गोलवलकर ने इसी पुस्तक में साफ-साफ कहा :

"चतुर प्राचीन राष्ट्रों के अनुभव से अनुमोदित इस दृष्टिकोण से हिंदुस्थान की विदेशी नस्लों को या तो निश्चित तौर पर हिन्दू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिये, हिन्दू धर्म का सम्मान तथा उस पर श्रद्धा रखना सीखना चाहिये, हिन्दू नस्ल और संस्कृति यानि हिन्दू राष्ट्र के गौरवगान के अलावा किसी और विचार को मन में नहीं लाना चाहिये और हिन्दू नस्ल में समाहित हो जाने के लिये अपनी पृथक पहचान त्याग देनी चाहिये या फिर वे इसे देश में पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र के अधीन बिना किसी दावे के, बिना किसी भी विशेषाधिकार के और उससे भी आगे बिना किसी भी वरीयतापूर्ण व्यवहार के, यहां तक कि बिना किसी नागरिक अधिकार के रह सकते हैं’ उनके लिये कोई और रास्ता अपनाने की छूट तो कम से कम नहीं ही होनी चाहिये। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं, हमें उन विदेशी नस्लों से, जिन्होंने रहने के लिये हमारे देश को चुना है, ऐसे ही निपटना चाहिये जैसे प्राचीन राष्ट्र निपटते हैं।"

{Dr. Shamsul Islam, Political Science professor at Delhi University (retired).} {Dr. Shamsul Islam, Political Science professor at Delhi University (retired).}

हैरानी की बात है कि गोलवलकर की घोर अल्पसंख्यक विरोधी और नाज़ीवाद/फासीवाद समर्थक पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड, का प्राक्कथन लिखना मंजूर किया, लोकनायक नाम से विख्यात कांग्रेसी नेता एम. एस. अणे ने। पुस्तक की भूमिका इनसे लिखवाने के विषय में गोलवलकर की पसंद को समझा जा सकता है, क्योंकि कांग्रेस के नेता होने के बावजूद, अणे के जरिए हिंदुओं के एक अलग राष्ट्र होने के विचार और इसका लाजिमी नतीजा एक हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत इस विचार का समर्थन होता है।

तदापि, हिंदू राष्ट्र के विचार के प्रति सहानुभूति के बावजूद, अणे जैसे नेता को गोलवलकर द्वारा पुस्तक में प्रतिपादित अल्पसंख्यकों की पूर्ण पराधीनता और उनका सफाया किए जाने जैसे प्रतिचरमपंथी विचार रास नहीं आए। अणे ने सही रेखंकित किया कि गोलवलकर के लिए 'अल्पसंख्यक' या 'विदेशी जाति' का तात्पर्य सिर्फ मुसलमानों से ही था। गोलवलकर द्वारा बताए गए अधिनायवादी समाधानों से अणे स्वयं को पृथक रखने का प्रयास करते नजर आते हैं। प्राक्कथन में उन्होंने लिखा था :

"‘मैने पाया कि मुसलमानों की समस्या से गुज़रते हुए लेखक हिन्दू राष्ट्रीयता और हिन्दू संप्रभुतासंपन्न राज्य के बीच का अंतर हमेशा दिमाग़ में नहीं रख पाये हैं। एक संप्रभु राज्य के रूप में हिन्दू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में हिन्दू राष्ट्र से पूरी तरह भिन्न चीज़ है। किसी भी आधुनिक राज्य ने एक बार अपने-आप या फिर किसी क़ानूनी नियम के चलते घुलमिल जाने के बाद अपने यहां रहने वाले विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाले अल्पसंख्यकों को नागरिक अधिकारों से वंचित नहीं किया है।"

यह जानना और भी दिलचस्प है, पुस्तक के अगले संस्करणों में अणे की इन आलोचनात्मक टिप्पणियों को हटा दिया गया था।

हिंदू राष्ट्रवादियों की रहनुमार्इ में लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदुत्ववादी धर्मतांत्रिक देश में बदलने के लिए सत्तारूढ़ आरएसएस/भाजपा के मोदी और अमित शाह जैसे नेता दिन-रात जुटे हुए हैं (उनका दावा है कि वे दिन में 18 घंटे काम कर रहे हैं!)। संसद और न्यायपालिका द्वारा हथियार डालने के बाद एकमात्र आशा है कि भारत की आम जनता लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को खतम करने का विरोध करने के लिए पूरी ताकत के साथ एकजुट होगी।

शम्सुल इस्लाम

13-12-2019

अनुवाद : कमलसिंह

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