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पहचान के संघर्ष की दास्ताँ : पोकर टेबल

Review of the story 'Poker Table' published in Hans magazine पोकर टेबल कहानी का सबसे अस्वाभाविक और बाद में स्वाभाविक प्रसंग है – देह व्यापार से जुड़ी स्त्री का कहानी में आरंभिक प्रवेश.

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Guest writer
03 Jun 2023
literature, review, criticism, Book review

पहचान के संघर्ष की दास्ताँ : पोकर टेबल

हंस पत्रिका में प्रकाशित कहानी 'पोकर टेबल' की समीक्षा

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सुषमा गुप्ता की कहानी है ‘पोकर टेबल’ 

Sushma Gupta

सुषमा गुप्ता की कहानी – ‘पोकर टेबल’ को समझने के लिए मुख्य रूप से तीन बिन्दुओं को ध्यान में रखने की आवश्यकता है. पहला राष्ट्र, जेंडर और यौनिकता का प्रश्न, दूसरा एंथनी गिडेंस का ‘द ट्रांसफार्मेशन ऑफ़ इंटिमेसी’ और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग है – जेंडर समस्या (चुनौती) बनाम देह – व्यापार संस्था. यहाँ बनाम का अर्थ विरोध के रूप में न होकर भिन्नता के रूप में है, अर्थात इसका संबंध तुलनात्मक स्वरूप से है.

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बोल्ड’ संवाद करती है ‘पोकर टेबल’ कहानी की नायिका

कहानी की नायिका की पहचान ‘लेस्बियन’ के रूप में है, जिसकी सामाजिक स्वीकृति नहीं है. उसके सामने इस सामाजिक स्वीकृति का प्रश्न इतना बड़ा हो जाता है कि उसे अपनी स्वाभाविक पहचान के इतर दूसरी पहचान (बाई-सेक्सुअल) में न ढल पाने पर क्षोभ भी होता है. किसी भी वास्तविक पहचान की यह स्थिति किसी बड़ी त्रासदी से कम नहीं है. बावजूद इसके कहानी की संरचना में वह ‘बोल्ड’ संवाद करती नजर आती है. आरंभिक संवाद का यह स्वरूप स्वाभाविक रूप से प्रतिभा रॉय की कहानी – ‘ट्रॉली वाली’ की नायिका की याद को ताजा कर देती है. लेकिन यहाँ फ़र्क है. एक में बोल्डनेस आरंभिक संवाद के स्तर पर है तो दूसरे में जीवन-निर्णय के स्तर पर. इसी बिंदु पर यदि जरा गहराई से विचार करें तो ‘अलीगढ’ (सिनेमा) का प्रो. जिसकी पहचान एक ‘गे’ के रूप में है, उसका स्मरण भी स्वाभाविक रूप से हो जाता है. 

प्रो. आत्महत्या से पूर्व कहता है कि – ‘सोचता हूँ अमेरिका चला जाऊं, मेरे जैसे लोग वहां इज्जत से रह सकते हैं’. यहाँ भी नायिका की दोस्त मधुरिमा, जो नायिका जैसी ही पहचान (लेस्बियन) रखती है, वह लंदन चली जाती है और नायिका से कहती है – “वहां पर हम जैसों को कोई ताने नहीं मारता. वहां हम जैसे सब आजाद खुशनुमा जिंदगी जी पाते हैं.” 

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यहाँ दो अलग-अलग सामाजिक संरचना का प्रश्न खड़ा हो जाता है जिसके मूल में स्वीकृति और अस्वीकृति का संदर्भ महत्वपूर्ण है. यहाँ संरचना का देश-कालगत भिन्नता भी विचारणीय हो जाता है. लेकिन ध्यान से देखें तो इस कहानी की नायिका और उसकी दोस्त मधुरिमा की दृष्टि का द्वंद्व भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है. मधुरिमा अपनी पहचान के साथ जीती है, लेकिन उसकी दोस्त (नायिका) इस पहचान को समाज के सामने उजागर हो जाने से डरती है. इस प्रसंग को भी कहानी में स्वाभाविकता के आधार पर विचार करना जरुरी हो जाता है. 

राष्ट्र की संरचना ही विषमलैंगिक संरचना के रूप में है. ‘विमेन-नेशन-जेंडर’, ग्रीक – साइप्रियाट नेशनलिज्म पर एन्थियाज और तुर्की नेशनलिज्म पर कॉनडियाटी के विचार के आधार पर देखें तो इस संरचना का गहरा संबंध पितृसत्तात्मक दर्जाबंदियों और सामाजिक मानदंडों से जुड़ा होता है. इसकी अंतिम परिणति राष्ट्र, जेंडर और यौनिकता के बीच एक ऐसे ‘मोरल कोड’ की निर्मिति है, जो पुरुषों को रक्षक के रूप में तथा औरतों को जैविक पुनरुत्पादक के रूप में विकसित करता है. कहानी में अकारण ही नहीं है कि नायिका अपने प्रेमी डॉक्टर निशांत के साथ ‘बेहद महफ़ूज’ महसूस करती है. यहाँ सुरक्षा का भाव का सीधा संबंध ‘रक्षक’ पुरुष से जुड़ता है. 

‘रोमानी’ और ‘संगमी’ (गिडेंस) प्रेम के आधार पर देखें तो यह कहानी इन सिद्धांतों में प्रतिपादित विचारों से आगे की कहानी है. फिर भी इन सिद्धांतों के आधार पर इस कहानी को इसलिए भी देखा जाना जरुरी है क्योंकि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कहानी किस तरह अपने पूर्व की कहानियों से अलग महत्व रखती है.

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लेकिन ‘मोरल कोड’(नैतिक संहिता) के प्रश्नों के आलोक में इस पर विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है. कहानी में ‘धोखा’ और ‘प्रतिबद्धता’ का प्रश्न इसी संदर्भ से जुड़ा हुआ है. नायिका एक तरफ़ जहाँ मधुरिमा के साथ शारीरिक संबध को परिवार के कारण अर्थात सामाजिक अस्वीकृति के भय से छोड़ती है, वहीं दूसरी ओर वह मधुरिमा को धोखेबाज भी समझती है. क्योंकि मधुरिमा का दैहिक संबंध नायिका के अतिरिक्त अन्य लड़कियों के साथ भी जुड़ा हुआ है. अब प्रश्न उठता है कि आखिर मधुरिमा नायिका को कैसे धोखा दे रही थी? 

अपनी पहचान के साथ अपनी इच्छाओं को जीकर? या इच्छाओं पर सामाजिक पाबंदियों के कारण अपनी जरूरत को नायिका के अलावा कहीं दूसरे से पाकर? यहाँ नैतिकता और प्रतिबद्धता का जो प्रश्न है, उसी आलोक में नायिका और मधुरिमा संरचनात्मक रूप से दो अलग-अलग मान्यताओं के साथ पात्रों का स्वरूप ग्रहण करती है. यहाँ पूर्व की नारीवादी कहानियों में ‘गुड गर्ल’ बनाम ‘बैड गर्ल’ की स्थितियों के आधार पर भी विचार किया जा सकता है. लेकिन इन तमाम प्रश्नों के बावजूद इन सभी धारणाओं को कहानी का अंत खंडित कर देता है. 

कहानी का सबसे अस्वाभाविक और बाद में स्वाभाविक प्रसंग है – देह व्यापार से जुड़ी स्त्री का कहानी में आरंभिक प्रवेश.
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यहाँ यह देखना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि किसी भी कथानक में अस्वाभाविकता का स्वरूप कैसे सहजता से स्वाभाविकता को प्राप्त कर लेता है. यही वो बिंदु है, जो इस कहानी को एक अलग कहानी बनाता है. अस्वाभाविकता है - नायिका का उस स्त्री से मिलने जाना, जिसका आरंभ ही इस रूप में अंत बन जाता है कि दोनों की चुनौतियां अलग-अलग हैं और एक का समाधान दूसरे के लिए असफल प्रयास भर है. फिर यह सवाल उठता है कि कहानी में इस पात्र की आवश्यकता क्यों थी? 

गहराई से विचार करें तो इस कहानी के तीनों पात्रों का सामाजिक मान्यताओं के साथ संघर्ष है. एक में आंतरिक रूप में, दूसरे में अधखुले रूप में और तीसरे पात्र में पूर्ण रूप में. लेखिका के लिए इस पूर्ण रूप के संघर्ष का महत्व अधिक है. यहाँ इसे जेंडर और देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों के संघर्ष को रूपक के रूप में समझने की आवश्यकता है. क्योंकि इस कहानी में संघर्ष का जो स्वरूप नैतिकता को खंडित कर सकता था उसके लिए देह व्यापार से संबंधित इस स्त्री-पात्र का होना बेहद आवश्यक था. क्योंकि एक तरफ जहाँ सामाजिक स्वीकृति का प्रश्न महत्वपूर्ण है तो दूसरी ओर तिरस्कार करने वाली सभी संस्थाओं (परिवार, समाज) का ही तिरस्कार है. और यही कारण है कि आरंभ में जो पात्र अस्वाभाविक जान पड़ता है, वह विचार करने पर स्वाभाविक रूप से एक जरुरी और अनिवार्य पात्र बन जाता है. 

नारीवाद के संदर्भ में अभय कुमार दुबे ने कहा था कि – ‘हिंदी का नारीवाद सैद्धान्तिक डिस्कोर्स के जरिये कम उभरा है और रचनाशीलता में अधिक’. यह कहानी इस मान्यता को कई रूप में ख़ारिज करती है. एक तरफ जहाँ रचनाशीलता में आदर्श रूप को ख़ारिज करते हुए आगे निकल जाती है वहीं दूसरी ओर सैद्धांतिक तत्वों के आधार पर भी इसे जांचने परखने पर यह कहानी बेहतरीन साबित होती है. स्वाभाविक रूप से यह कहानी ‘पहचान’ की समस्या के संदर्भ में होमोसेक्सुअल, लेस्बियन, गे, हेट्रोसेक्सुअल, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, कोथी, ट्रांससेक्सुअल, क्वीयर, हिजड़ा तथा देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों के साथ सामाजिक विषमता पर विचार करने के लिए मजबूर करती है. 

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व्यावहारिक पक्ष और सैद्धांतिक पक्ष के बेजोड़ संतुलन के रूप में तथा ‘पहचान’ की समस्या के रूप में यह कहानी ‘पोकर टेबल’ अविस्मरणीय है. 

संजीव ‘मजदूर’ झा 

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Review of the story 'Poker Table' published in Hans magazine

 

 

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