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भारतीय परंपरा में सौत अथवा सौत की परंपरा

जानिए क्या औरतें भारतीय परंपरा में सौत बर्दाश्त कर लेती हैं? सौतिया डाह क्या होता है? वैदिक साहित्य में सौत की परंपरा का वर्णन. Saut or Saut's tradition in Indian tradition by DrRaju Ranjan Prasad

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hastakshep
28 Mar 2023
भारतीय परंपरा में सौत अथवा सौत की परंपरा

Saut or Saut's tradition in Indian tradition by Dr Raju Ranjan Prasad

क्या औरतें भारतीय परंपरा में सौत बर्दाश्त कर लेती हैं? सौतिया डाह क्या होता है?

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औरतों के बारे में कहा जाता है कि वे सब कुछ बर्दाश्त कर लेती हैं, किंतु सौतें नहीं। एक कहावत भी है कि 'सौतिन काठो के न अच्छा।' इसी को 'सौतिया डाह' कहा गया है। 

वैदिक साहित्य में सौत

हमारे प्राचीनतम लिखित साक्ष्य वैदिक साहित्य के दिनों से ही हमें स्त्री-मन में सौतों से डर तथा घृणा के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है क़ि ऋग्वैदिक काल के अंत तक एकपत्नीत्व की प्रथा जड़ जमा चुकी थी। दशम् मंडल की सूक्त संख्या 33 में इंद्र को संबोधित मन्त्र में कहा गया है कि 'सपत्नियों की तरह मेरे पार्श्व पीड़ा देते है।' 

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दिलचस्प बात है क़ि इसी दशम् मंडल का सूक्त 145 सपत्नी बाधन अथवा उत्पीड़न के भाव से भरा है। इस सूक्त की ऋषिका इन्द्राणी हैं। इन्हें शची भी कहते हैं। देवता हैं सपत्नी बाधन। सूक्त के प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि इस लता रूपिणी बलवती औषधि को हम खोदकर निकालते हैं, इससे सपत्नी को पीड़ित किया जाता है। 

दूसरे मन्त्र में कहा गया है कि आप मेरी सपत्नी को दूर करें तथा मेरे स्वामी को मात्र मेरे लिए प्रीतियुक्त करें। 

तीसरे मन्त्र में है कि हमारी सपत्नी निकृष्टों में भी अति निकृष्ट स्थिति को प्राप्त करें। 

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चौथे मन्त्र में है कि मैं इन्द्राणी, सपत्नी का नाम तक लेना उचित नहीं समझती हूँ। सपत्नी सभी के लिए अप्रिय होती है। सपत्नी को मैं दूर से भी अति दूर देश में भेज देना चाहती हूँ। 

5वें मन्त्र में, 'हे औषधे! मैं आपके सहयोग से सपत्नी को पराजित करनेवाली हूँ। आप भी इस कार्य में समर्थ हैं। हम दोनों शक्ति संपन्न बनकर सपत्नी को शक्तिहीन करें।' 

और अंत में, मन्त्र संख्या 6 में पति से प्रार्थना है क़ि मैं आपके सिर के स्थान सिरहाने के समीप सपत्नी को पराभूत करनेवाली इस औषधि को स्थापित करती हूँ।

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यह डर लोक और लोकगीतों में भी मुखर है। कई दफा इस डर को हथियार बनाकर परिवार के सदस्यों, खासकर ननद और पति के द्वारा स्त्री को काबू में करने की कोशिश की गई है। अंगिका में इस आशय का एक गीत है। पति अपनी पत्नी के लिए कंगन खरीदकर लाता है। उसकी ननद उसे पहने हुए देख लेती है और वह निश्चय कर लेती है कि भाभी के पुत्र होने पर मैं यह कंगन ही बधाई में लूँगी। 'कँगना पहिर भौजो ठाढ़ भेलै, अँगनमा से ठाढ़ भेलै हे। ललना रे, परि गेल ननदो मुँह दीठ, कँगनमा भौजो पहिरल हे।। तोहें ननदो मनाव$ गोसाईं, औरू भगमानजी सें हे। ललना रे, जौं घर बबुआ जनम लेल, कँगनमा पहिराई देब हे।।' 

भाभी पुत्रवती होती है और ननद उससे बधाई में कँगन की माँग करती है। भाभी सौरगृह से कँगन की चोरी हो जाने का बहाना बनाती है। ननद माता-पिता तथा भाई से कँगन दिलवाने का अनुरोध करती है। सब से वही चोरी का बहाना। अंत में भाई अपनी बहन से कहता है कि जाने दो, मैं दूसरा विवाह कर लूंगा और तुम्हारी नई भाभी से तुम्हें कँगन दिलवा दूंगा। इस खबर को पाकर जच्चे का सारा गर्व टूट जाता है और वह कँगन अपनी ननद को दे देती है तथा अपने पति से दूसरा विवाह न करने की प्रार्थना करने लगती है। 

'चुप रहु चुप रहु बहनियां कि बहिनियां, से अरज करियो हे। ललना रे, करबौ में दोसरो बिअहबा, कि कँगनमां तोरा पेन्हाइ देबौ हे।। गोड़ लागियों पैयाँ परियो परभुजी, अब अरजिया करियो हे। ललना रे, जनि करिहो दोसरो बिआह, कँगनमां ननदो देइ देब न हे।।'

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एक अन्य गीत में वर्णन है कि पुत्रोत्पत्ति की ख़ुशी में जच्चे के नैहर से 'पियरी' में जड़ीदार साड़ी आई है। ननद बधावे में 'पियरी' ही की मांग करती है। ननद अपने माता-पिता और अपने प्यारे भाई से पियरी दिलाने का अनुरोध करती है, लेकिन जच्चा सबके अनुरोध को ठुकरा देती है। अंत में भाई अपने बहन को सांत्वना देते हुए कहता है- 'बहन, अधीर मत हो। मैं दूसरी शादी करूँगा, तो उससे पुत्र होने पर मैं उसकी पियरी तुम्हें दिला दूंगा। पति की इस बात से मानिनी जच्चे का गर्व चूर हो जाता है और वह सौत के डर से अपनी पिटारी से पियरी निकालकर ननद के आगे फेंक देती है। 'चुप रहु, चुप रहु बहिनी, त बहिनी सें अरज करी हे। ए बहिनी, करबै हम दोसर बियाह, पियरिया तू बधावा लिहें हे।। एतना बचनिया जब सुनल, त सुनहु न पाओल हे। ए ललना, झाँपी से काढ़ली पियरिया, अँगनमा धय बजारी देल हे। ए ननदो, लेहो छिनरिया पियरिया, त सौतिन मंगाबे लागल हे।।'

शिव द्वारा अपनी साली से ही दूसरा विवाह कर लेने पर गौरी रुष्ट होकर शाप देती है। 'मरियो गे संझा भाइ रे भतिजबा, आरो होइहो कोखिया बिनास हे। तीनि भुवन बर कतहुँ न मिललौ, भै गेलै सौतनी हमार हे।' संध्या, जो सौत बनकर आयी है, बड़े ही मार्मिक शब्दों में कहती है, बहन, भला-बुरा क्यों कहती हो तथा शाप क्यों देती हो? मेरे लिए तो कार्तिकेय और गणपति दो बालक हैं, उनको मैं खेलाऊँगी। 'मतु पढ़अ गारी गौरा, भाइ रे भतीजा लाइ, जनि करिह कोखिया बिनास हे। कारतिक गनपति, दोइ रे बालक, गोदी के खेलाइबअ होइबअ में दासी तोहार हे।।'

डॉ राजू रंजन प्रसाद

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लेखक इतिहासकार, कवि व स्तंभकार हैं। उनका शोध है -“प्राचीन भारत में प्रभुत्व की खोज : ब्राह्मण -क्षत्रिय संघर्ष के विशेष सन्दर्भ में (१००० इस्वी पूर्व से २०० इस्वी )”।

(डॉ राजू रंजन प्रसाद की एफबी पोस्ट का किंचित् संपादित रूप साभार)

Saut or Saut's tradition in Indian tradition by DrRaju Ranjan Prasad

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