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हम मिडिल क्लास घर में बैठ कर पर्यावरण का आनंद ले रहे लेकिन लॉकडाउन ने करोड़ों मज़दूरों की आजीविका को संकट में डाल दिया है

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hastakshep
10 Apr 2020
हम मिडिल क्लास घर में बैठ कर पर्यावरण का आनंद ले रहे लेकिन लॉकडाउन ने करोड़ों मज़दूरों की आजीविका को संकट में डाल दिया है

लॉकडाउन, पलायन और पर्यावरण | Lockdown, migration and environment

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बीते दिनों दो तस्वीरें सबसे ज़्यादा सोशल मीडिया के माध्यम से सरकुलेट हुई थी दोनों तस्वीरें नदी और पहाड़ से जुड़ी हुई थी।

पहली तस्वीर में जालंधर शहर के बाहरी इलाकों से हिमाचल प्रदेश के धौलाधार पहाड़ दिखने लगे हैं। और दूसरी तस्वीर में दिल्ली से बहने वाली यमुना नदी को नोएडा के किनारे से ली गयी तस्वीर में साफ़ - सुथरी और नीला रंगी दिखाया गया।

उससे पहले की कुछ तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई थी जो तस्वीरें लॉकडाउन की थी, लॉकडाउन के एक दिन के बाद की थी, जो देश के मेहनतकश मज़दूरों की बेचैनी की तस्वीर थी।

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इन तस्वीरों में लॉकडाउन की घोषणा के बाद देश भर के शहरों-महानगरों से लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूरों का पलायन देखा गया।

देश में लॉकडाउन के दौरान कई पर्यावरण स्टडी (Environmental study during lockdown) भी आ रहे हैं, सारे संगठन इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि लॉकडाउन के बाद देश की नदियाँ और हवा साफ़ हुई, आँकड़े भी शायद यही कह रही है।

ये लॉकडाउन और पर्यावरण का साफ़ होना हम सब के लिए शायद एक अच्छी घटना हो, मगर उन मेहनतकश मज़दूरों के लिए ये लॉकडाउन से बढ़ी बेरोज़गारी किसी पीड़ा की तरह ही है, जिन्हें प्रकृति के साफ़ होने से ज़्यादा रोज़गार के ख़त्म होने का डर मार रहा है।

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लॉकडाउन ने देश के करोड़ों मज़दूर लोगों की आजीविका को संकट में डाल दिया है, हम मिडिल क्लास लोग घर में बैठ कर पर्यावरण का आनंद तो ले रहे हैं क्योंकि हमारी सैलरी आ रही है या देर सवेर आ ही जाएगी ? मगर उनका क्या होगा ? जिसे लॉकडाउन के बाद साफ़ हवा और साफ़ यमुना की जगह रोज़ी और रोटी का जुगाड़ करना है, उन्हें लौटना है उन कारख़ानों में जहां दिहाड़ी मज़दूरी करना है, अपना और अपने परिवार का पेट भी भरना है?

गंगा मैया की ये वो करोड़ों अभागी संतान हैं जिन्हें पर्यावरण नहीं रोटी चाहिए, इन्हें मालूम है कि देश के लाखों कारख़ानों के करोड़ों चिमनियों से निकलने वाला धुआँ ज़हर बनकर इनके सीने में दौड़ेगा पर इसके बावजूद भी लॉकडाउन के बाद इनको कारख़ानों के चलने की आस होगी, वहाँ लौटने के लिए कुछ पैसे बचा कर, न होने पर गाँव से उधार माँग कर वापस आएँगे ताकि पेट के अंदर का भूख मेहनत मज़दूरी करके मिटाया जाए ?

-- मुन्ना झा

(लेखक पर्यावरण कार्यकर्ता हैं। )

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