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एक माँ जो नहीं पहुँची बेटे के मरने पर
1977 में मैग्सेसे, 1986 में पद्मश्री, 1996 में ज्ञानपीठ, 2006 में पद्मभूषण सहित दर्जनों देशी-विदेशी पुरस्कार प्राप्त करने वाली कालजयी लेखिका, जिनके लेखन पर 1968 में संघर्ष, 1993 में रूदाली, 1998 में हजार चौरासी की माँ (Hazaar Chaurasi Ki Maa) और 2000में माटी माई जैसी शानदार फिल्में बन चुकी हैं, महान शख्सियत महाश्वेता देवी को कौन नहीं जानता! मैंने समय-समय पर उन्हें पढ़ा। आज की पीढ़ी के जो नौजवान इन्हें नहीं जानते हैं, उन्हें हर हाल में महाश्वेता देवी को जानना, समझना और पढ़ना चाहिए।
महाश्वेता देवी बायोग्राफी | Mahashweta Devi Biography in Hindi
14 जनवरी 1926 में ढाका, बांग्लादेश में जन्मी महाश्वेता देवी का निधन 28 जुलाई 2016 को कोलकाता में हुआ। इनके विविध जीवन आयामों को जाना है, लेकिन बहुत कुछ जानना बाकी है।
पलाश विश्वास जी ने इनके साथ लगभग ढाई दशक तक संपादन और लेखन काम किया। उनके पास बहुत से किस्से कहानी हैं महाश्वेता देवी के। आज जो जानकारी उन्होंने दी, वो अब तक मेरे पास नहीं थी। बिजोन भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी के बीच प्रेम विवाह हुआ था।
पलाश जी ने बताया,
"एक बार दोनों काम से थक कर घर आये। इतने में कुछ लोग पहुंच गये। बिजोन ने महाश्वेता को चाय बनाने के लिए कहा, उन्होंने बिजोन से चाय खुद बनाने को कहा। एक दूसरे पर टालते रहे। और दोनों में झगड़ा हो गया।"
कुछ माह बाद दोनों के बीच संबंध विच्छेद हो गये। बेटा नवारूण पिता के पास रहने लगे।
पलाश जी ने बताया,
"नवारूण ने जिस प्रोफेसर से शादी की वो महाश्वेता देवी की जूनियर थीं। उम्र में नवारूण से काफी बड़ी थी। इससे महाश्वेता जी काफी आहत हुईं। बाद में नवारूण कैंसर से पीड़ित हो गये और उनकी मृत्यु हो गयी। एक ही मोहल्ले में होने के बावजूद महाश्वेता देवी बेटे की लाश पर मातम करने नहीं गयीं।"
इसके अलावा आज बहुत से अनसुने किस्से सामने आये। रेनू के रूम पर किताबें दुरूस्त की। रूपा, अजीत, रेनू, पलाश जी और मैंने एक साथ पूरा दिन बिताया।
शुगर के मरीज होने पर भी पलाश जी ने चोरी छुपे अजीत से मांग कर दो आलू के परांठे खाये। मुझे बहुत बाद में पता चला। मैं सामने आया तो मंद-मंद हंसने लगे। खैर, फिर क्या कहना था। ऐसी चोरियां पलाश जी मेरे घर पर भी करने की कोशिश करते हैं, लेकिन उत्कर्ष, छन-छन, श्रेया उन्हें मेरे से शिकायत करने की बात कहकर खूब मजे लेते हैं। स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होने पर मैं कई बार नाराज भी हो जाता हूँ और सख्त भी। रूपा की तमाम आशंकाओं का जवाब दिया। बकौल रेनू,
"आज पहली बार मेरे रूम पर पलाश अंकल आए। वे बुद्धिजीवी व्यक्ति हैं। उनके पास देश-दुनिया की ढेरों बातें और जानकारी हैं, जिसको वह जब भी मिलते हैं, हमें बताते हैं, सुनाते हैं और उनसे मिलकर उत्साह से मन भर जाता है। काश, हम भी चीजों को इतनी बारीकी से समझ व देख पाते और उसे कलम के माध्यम से उतार पाते।"
कल से प्रेरणा-अंशु के मई अंक का काम शुरू होगा। 18 मई तक अंक निकालने की कोशिश रहेगी। शाम सात बजे मैं स्कूटी से पलाश जी को बसंतीपुर उनके घर छोड़कर आया। उनके घर पर किताब रखने की लकड़ी की अलमारी ध्वस्त हो गयी है। एक नयी अलमारी की व्यवस्था करनी है। ताकि महत्वपूर्ण किताबें यूँ ही नष्ट न हो जायें। यह कब तक होगा पता नहीं, मैं वायदा तो कर आया हूँ।
आजकल पैसे का बहुत लोचा है। देखते हैं। आज तीन जगह मास्साब की बुक गाँव और किसान किताब देने जाना था, लेकिन बातचीत सिरे लगने का नाम ही नहीं ले रही थी। गदरपुर से सतपाल भाई कल किताबें लेंने आयेंगे, उनका फोन आया है। मैं आज बाहर और भीतर से काफी शान्त महसूस कर रहा हूँ।
महाश्वेता देवी पलाश विश्वास के जरिए | Mahashweta Devi via Palash Biswas
महाश्वेता देवी ने दूसरा विवाह किया था और कोलकाता में बालीगंज रेलवे स्टेशन के पास रहती थीं। दूसरे विवाह के बाद नबारून दा अपने रंगकर्मी पिता के साथ पले बढ़े। बिजन भट्टाचार्य बहुत बड़े अभिनेता थे।
ऋत्विक घटक की फ़िल्म मेघे ढका तारा में वे संघर्ष कर रही शरणार्थी बेटी के पिता बने थे। ssubrnrekha की शूटिंग के संस्मरण नबारून दा ने लिखे हैं ।
1980 में धनबाद में जब दीदी से पहली मुलाकात हुई, तब वे बालीगंज में रहती थीँ। विवाह के तुरन्त बाद सविता जी को मिलाने उसी घर में हम गए थे वे तबसे बंगला बर्तिका पत्रिका का सम्पादन कर रही थीं, जो आदिवासियों पर केंद्रित थी।
कोलकाता में पहुंचने पर दीदी गोल्फ ग्रीन में रहती थीं। उनसे करीब दो फर्लांग दूरी पर नबारून द रहते थे।
अपने बेटे से दीदी को बहुत प्यार था। हजार चौरासी की मां में यह प्यार अभिव्यक्त हुआ है। नबारून दा और सत्तर के दशक के उनके मित्रों की कथा है यह।
उन्होंने भारतीय भाषाओं के साहित्य पर बंगला में भाषा बन्धन पत्रिका शुरू किया तो पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल के साथ मुझे भी कृपा शंकर चौबे और अरविंदजी के साथ सम्पदकीय में रखा। दीदी प्रधान संपादक थीं। नबारून सम्पादक। नबारून के घर सम्पादकीय बैठक में हम रोज़ हाज़िर होते थे। दीदी भी वर्तनी और भाषा में एक भी गलती होने पर वे हम सबकी क्लास लेती थीं।
नबारून के लिखे के बारे में बहुत ऊंची राय थी उनकी। कहती थीं कि नबारून बहुत खच्चर लेखक है। एक अक्षर भी फालतू नहीं लिखता।
दरअसल ममता के समर्थन में दीदी के दक्षिणपंथी विचलन पर उनसे नबारूण दा और हम सबके सम्बन्ध टूटे।
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बिजन भट्टाचार्य के बारे में उनकी बहुत ऊंची राय थी। उनके निर्देशित नाटक नबान्न के गीत खैनी खाकर बीड़ी सुलगाकर जब वे सुनाती थीं, अहसास होता था कि दोनों में कितना गहन प्यार था।
महाश्वेता दी ने दैनिक हिन्दुस्तान में मुझ पर एक लेख लिखा। वे हमारी बहुत परवाह करती थीं, लेकिन वैचारिक दूरी इतनी ज्यादा हो गयी थी, खासकर नबारून के असमय मौत के बाद कि हम उनकी मौत के बाद भी उन्हें देखने नहीं गए।
सविता जी बहुत दुखी थीं और बार बार कहती रही कि दीदी 50 साल से इन्सुलिन पर हैं, उन्हें अकेले मत छोड़ो। पर ममता के साथ खड़ी दीदी से मिलने न नबारून जा पाए और न हम।
यह विडंबना है कि हमारी वैचारिक पृष्ठभूमि एक थी, सरोकार एक थे और रिश्ते प्यार से लबालब। फिर भी हमे उन्हें अकेले छोड़ना पड़ा।
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समाजोत्थान संस्थान
दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर
नबारून और विजन भट्टाचार्य से उनके सम्बन्ध वैचारिक कारण से ही टूटे। हम सभी से भी।
लेकिन उनके रचनाकर्म की प्रासंगिकता हमेशा बनी रही और रहेगी।
हम एक दूसरे से बेहद प्यार करते थे, लेकिन विचारों के स्तर पर हममें से कोई समझौता नहीं कर पाया। न महाश्वेता खुद। न उनका इकलौता बेटा हमारे प्रिय मित्र और उससे कहीं ज्यादा बड़े लेखक, न विजन भट्टाचार्य और न हम।
पलाश विश्वास ने बताया।
रूपेश कुमार सिंह
समाजोत्थान संस्थान
दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड
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