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महात्मा फुले जयंती | Mahatma Phule Jayanti
छोटी जातियों को उच्च वर्ण हिन्दुओं की गुलामी से जाग्रत करने वाले महामना फुले
Mahamana Phule, who awakened lower castes from the slavery of upper caste Hindus
‘जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति उनकी गुलामी के सम्बन्ध में जागृत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी सामाजिक लोकतंत्र (की स्थापना) अधिक महत्वपूर्ण है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया, उस आधुनिक भारत के महानतम शूद्र महात्मा फुले को सादर समर्पित’.
यह पंक्तियां उन डॉ.आंबेडकर की हैं, जिनका मानना था-‘अगर इस धरती पर महात्मा फुले जन्म नहीं लेते तो आंबेडकर का भी निर्माण नहीं होता.’
उसी डॉ.आंबेडकर ने 10 अक्तूबर,1946 को अपनी चर्चित रचना-‘शूद्र कौन थे?’- को महात्मा फुले के नाम समर्पित करते हुए उपरोक्त पंक्तियां लिखी थीं.
बहरहाल जिस महामानव के बिना भारत के सर्वकाल के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी का निर्माण नहीं होता, उस जोतीराव फुले का जन्म 11 अप्रैल,1827 को महाराष्ट्र के पुणे में एक ऐसे माली परिवार में हुआ था जिसे पेशवा ने प्रसन्न होकर 36 एकड़ जमीन दान दी थी. अतः अपेक्षाकृत संपन्न पिता की संतान होने के कारण उन्हें बेहतर शिक्षा मिली. लेकिन एक घटना ने उनके जीवन की धारा ही बदल दी.
युवक जोती एक ब्राह्मण की बारात में गए थे, जहाँ उन्हें किसी ने पहचान लिया. ‘एक शूद्र होते हुए भी तुमने हम लोगों के साथ चलने की कैसे हिमाकत की’, कहकर ब्राह्मणों ने न सिर्फ जमकर उनकी पिटाई कर दी बल्कि बुरी तरह अपमानित कर बारात से भगा दिया. अपमान से जर्जरित युवक जोती ने उसी क्षण ब्राह्मणशाही से टकराने का संकल्प ले लिया जिसके लिए उसने शिक्षा को ही हथियार बनाने की परिकल्पना की.
ब्राह्मणशाही से टकराने के लिए : शिक्षा को बनाया हथियार!
ब्राह्मणशाही से टकराने का मतलब ब्राह्मणों द्वारा फैलाये गए आडम्बर, अन्धविश्वास, अशिक्षा, अस्पृश्यता इत्यादि से लड़ना. इसके लिए ज्ञानपिपासु जोती ने तमाम उपलब्ध ग्रंथों का अध्ययन किया, किन्तु टॉमस पेन की ‘मनुष्य के अधिकार’ नामक ग्रन्थ ने उन्हें नई प्रेरणा दी. ब्राह्मणों एवं ब्राह्मणवाद से टकराने के लिए उन्होंने शिक्षा के महत्व का नए सिरे से उपलब्धि किया. शिक्षा प्रसार से ब्राह्मणों द्वारा फैलाये गए अन्धविश्वास, अज्ञानता से शुद्रातिशुद्रों तथा नारी जाति को मुक्ति दिलायी जा सकती है, यह उपलब्धि कर उन्होंने अपने घर से ही इसका अभियान शुरू किया.
13 वर्ष की उम्र में जोतीराव का विवाह 3 जनवरी,1831 को जन्मीं नौ वर्षीय सावित्रीबाई से हुआ था. उन्होंने अपनी पत्नी और दूर के रिश्ते की बुआ सगुणाबाई क्षीरसागर, जिन्होंने उनकी मां के मरने के बाद उनकी देखभाल की थी, को खुद पढ़ाना शुरू किया. दोनों ने मराठी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया. उन दिनों पुणे में मिशेल नामक एक ब्रिटिश मिशनरी महिला नॉर्मल स्कूल चलाती थी. जोतीराव ने वहीँ दोनों का तीसरी कक्षा में दाखिला करवा दिया, जहाँ से उन्होंने अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण भी लिया. फिर तो शुरू हुआ ब्राह्मणवाद के खिलाफ अभूतपूर्व विद्रोह!
ब्राह्मणवाद का अन्यतम वैशिष्ट्य ज्ञान संकोचन रहा है, जिसका सदियों से शिकार भारतीय नारी और शुद्रातिशुद्र रहे . इन्हें ज्ञान क्षेत्र से इसलिए दूर रखा गया ताकि वे दैविक –गुलामी (डिवाइन-स्लेवरी) से मुक्त न हो सकें. क्योंकि, डिवाइन-स्लेवरी से मुक्त होने का मतलब शोषक समाज के चंगुल से मुक्ति! किन्तु, जोतीराव तो यही चाहते थे. लिहाजा उन्होंने 1 जनवरी, 1848 को पुणे में एक बालिका विद्यालय की स्थापना कर दी, जो किसी भी भारतीय द्वारा स्थापित बौद्धोत्तर भारत में पहला विद्यालय था.
सावित्रीबाई फुले ने इस विद्यालय में शिक्षिका बनकर आधुनिक भारत में पहली अध्यापिका बनने का कीर्तिमान स्थापित किया. इस सफलता से उत्साहित होकर फुले दंपति ने 15 मई,1848 को पुणे की अछूत बस्ती में अस्पृश्य लड़के-लड़कियों के लिए भारत के इतिहास में पहली बार विद्यालय की स्थापना की. थोड़े ही अन्तराल में उन्होंने पुणे और उसके पार्श्ववर्ती इलाकों में 18 स्कूल स्थापित कर डाले.
चूँकि हिन्दू धर्मशास्त्रों में शुद्रातिशूद्रों और नारियों का शिक्षा-ग्रहण व शिक्षा-दान धर्मविरोधी आचरण के रूप में चिन्हित रहा है, इसलिए फुले दंपति को शैक्षणिक गतिविधियों से दूर करने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने जोरदार अभियान चलाया.
जब सावित्रीबाई स्कूल जाने के लिए निकलतीं, वे लोग उनपर गोबर-पत्थर फेंकते और गालियाँ देते. लेकिन, लम्बे समय तक उन्हें उत्पीड़ित करके भी जब वे अपने इरादे में कामयाब नहीं हुए, तब उन्होंने शिकायत फुले के पिता तक पहुंचाई.
पुणे के धर्माधिकारियों का विरोध इतना प्रबल था कि उनके पिता को स्पष्ट शब्दों में कहना पड़ा, ’या तो अपना स्कूल चलाओ या मेरा घर छोड़ो!’
फुले ने गृह निष्कासन का विकल्प चुना. निराश्रित फुले दंपति को पनाह दिया उस्मान शेख ने. फुले ने अपने कारवां में शेख साहब की बीवी फातिमा को भी शामिल कर, अध्यापन का प्रशिक्षण दिलाया. फिर अस्पृश्यों के एक स्कूल में अध्यापन का दायित्व सौंपकर फातिमा शेख को उन्नीसवीं सदी की पहली मुस्लिम शिक्षिका बनने का अवसर मुहैया कराया.
हिन्दुओं की वीभत्स सामाजिक समस्याओं के प्रतिकार के लिए कायम किया समाजसेवा का अद्भुत दृष्टांत !
नारी –शिक्षा, अतिशूद्रों की शिक्षा के अतिरिक्त समाज में और कई वीभत्स समस्याएं थीं जिनके खिलाफ पुणे के हिन्दू कट्टरपंथियों के डर से किसी ने अभियान चलाने की पहलकदमी नहीं की थी. लेकिन फुले थे सिंह पुरुष और उनका संकल्प था समाज को कुसंस्कार व शोषणमुक्त करना. लिहाजा ब्राह्मण विधवाओं के मुंडन को रोकने के लिए नाइयों को संगठित करना, विश्वासघात की शिकार विधवाओं (जो ज्यादातर ब्राह्मणी होती थीं) की गुप्त व सुरक्षित प्रसूति, उनके अवैध माने जानेवाले बच्चों के लालन –पालन की व्यवस्था,विधवाओं के पुनर्विवाह की वकालत, सती तथा देवदासी-प्रथा का विरोध भी फुले दंपति ने बढ़-चढ़कर किया. इस प्रक्रिया में सावित्रीबाई फुले बनीं आधुनिक भारत की पहली समाजसेविका.
शुद्रातिशूद्रों की मुक्ति का घोषणापत्र - गुलामगिरी !
फुले ने अपनी गतिविधियों को यहीं तक सीमित न कर किसानों, मिल-मजदूरों, कृषि-मजदूरों के कल्याण तक भी प्रसारित किया. इन कार्यों के मध्य उन्होंने अस्पृश्यों की शिक्षा के प्रति उदासीनता बरतने पर 19 अक्तूबर,1882 को हंटर आयोग के समक्ष जो प्रतिवेदन रखा, उसे भी नहीं भुलाया जा सकता.
वैसे तो फुले ने शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य करते हुए सर्वजन का ही भला किया किन्तु बहुजन समाज सर्वाधिक उपकृत हुआ उनके चिंतन व लेखन से. उनकी छोटी-बड़ी कई रचनाओं के मध्य जो सर्वाधिक चर्चित हुईं वे थीं- ‘ब्राह्मणों की चालांकी,’ ’किसान का कोड़ा’ और ‘गुलामगिरी’.
इनमें 1जून,1873 को प्रकाशित गुलामगिरी का प्रभाव तो युगांतरकारी रहा. गुलामगिरी की प्रशंसा करते हुए विद्वान सांसद शरद यादव ने ‘गुलामगिरी:हमारा घोषणापत्र’ नामक लेख में लिखा है-
‘मूलतः 1873 में प्रकाशित जोतीराव की पुस्तक गुलामगिरी तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ शूद्रों और अछूतों का घोषणापत्र थी. जिस तरह कार्ल मार्क्स ने 1848 में पश्चिम यूरोप के औद्योगिक समाज के सबसे ज्यादा शोषित और उत्पीड़ित समाज के अधिकारों को रेखांकित करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र निकाला था, उसी तरह जोतीराव ने गुलामगिरी प्रकाशित कर भारत के सबसे अधिक शोषित एवं उत्पीड़ित तबके के अछूतों एवं शूद्रों के अधिकारों की घोषणा की थी.’
फुले भारतीय समाज की व्याधि को जानते थे. इसलिए उन्होंने अपने ऐतिहासिक ग्रन्थ गुलामगिरी द्वारा जन्मजात वंचितों की मुक्ति की दिशा में एक साथ कई काम किए. पहला, दैविक -गुलामी दूर करने; दूसरा,शोषितों में भ्रातृत्वभाव पैदा करने और तीसरे प्राचीन आरक्षण-व्यवस्था(वर्ण-व्यवस्था) की खामियों को दूर करने पर बल दिया. दैविक-दासत्व के दूरीकरण और भ्रातृत्व की स्थापना के लिए उन्होंने प्रधानतः पुनर्जन्म के विरुद्ध घोर संग्राम चलाया तो वेद, ब्राह्मण-ग्रन्थ, वेदान्त और सभी धर्म-ग्रंथों, ईश्वर को शोषक करार देकर इनकी धार्मिक पवित्रता की धज्जियाँ उड़ा दीं.संवाद शैली में रचित गुलामगिरी उन्होंने धोंडीराव से जो संवाद किये हैं वह लोगों में ईश्वर-भय दूर करता है एवं शोषणकारी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरकृत न मानने का स्पष्ट रास्ता सुझाता है. इस तरह यह ग्रन्थ शोषितों को दैविक दासत्व से मुक्त करने का आधारभूत काम किया.
ज्योतिबा फुले भारत से हजारों किलोमीटर दूर जन्मे कार्ल मार्क्स से महज 9 साल छोटे थे। उन्होने बिना कार्ल मार्क्स को पढ़े भारत भूमि पर वर्ग-संघर्ष की परिकल्पना की।
उन्होंने यह भलीभाँति जान लिया था वर्ण –व्यवस्था की असंख्य छोटी-छोटी जतियों को संगठित किए बिना ब्राह्मणशाही का खात्मा मुमकिन नहीं होगा। इसलिए उन्होंने असंख्य जातियों को शूद्रातिशूद्र वर्ग में तब्दील करने का प्रयास गुलामगिरि में किया। वंचित जातियों को वर्ग के रूप में संगठित करने के फुले के बुनियादी काम के ही आधार पर कांशीरम ने ‘बहुजनवाद’ को विकसित किया।
शक्ति के समस्त स्रोतों पर कब्जा जमाये भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के कब्जे से मूलनिवासियों के लिए धन-धरती मुक्त कराने की दूरगामी परिकल्पना के तहत कांशीराम ने परस्पर कलहरत 6000 जातियों को भ्रातृत्व के बंधन में बांधकर जोड़ने का जो अक्लांत अभियान चलाया, वह फुले के वर्ग-संघर्ष से ही प्रेरित रही.
गुलामगिरी से सामने आई संख्यानुपात में शुद्रातिशूद्रों के आरक्षण की विचार प्रणाली
शोषितों में दैविक-गुलामी से मुक्ति और भ्रातृत्व की भावना पैदा करने के साथ हिन्दू-आरक्षण(वर्ण-व्यवस्था) में शक्ति के स्रोतों के बंटवारे में गड़बड़ियां दुरुस्त करना फुले का प्रमुख लक्ष्य रहा. इसके लिए उन्होंने गुलामगिरी में लिखा-‘हमारी दयालु सरकार (अंग्रेज सरकार) ने भट्ट – ब्राह्मणों को उनके संख्यानुसार सरकारी कार्यालयों में नियुक्ति नहीं करना चाहिए, ऐसा मेरा कहना नहीं है. किन्तु, उसके साथ ही अन्य छोटी जातियों के लोगों की उनकी संख्यानुसार नियुक्ति होनी चाहिए. इससे सभी भट्ट –ब्राह्मण सरकारी नौकरों के लिए एक साथ मिलकर हमारे अज्ञानी शूद्रों को नुकसान पहुंचाना संभव नहीं होगा.’
गुलामगिरी की यह पंक्तियां ही परवर्तीकाल में सामाजिक न्याय का मूलमंत्र बनीं. आज दलित-पिछड़ों को शासन-प्रशसन,डाक्टरी, इंजीनियरिंग,अध्यापन इत्यादि में जो भागीदारी मिली है उसमें उपरोक्त पंक्तियों की ही महती भूमिका है.
इन्हीं पंक्तियों को पकड़कर शाहूजी महाराज ने अपनी रियासत में 26 जुलाई,1902 को आरक्षण लागू कर सामाजिक न्याय की शुरुआत की तो पेरियार ने 27 दिसंबर,1929 को मद्रास प्रान्त में बड़े पैमाने पर दलित-पिछड़ों को नौकरियों में प्रतिनिधित्व दिलाया.
संविधान में डॉ.आंबेडकर ने दलितों को आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान रखा, उसके पीछे इन पंक्तियों की ही प्रेरणा रही. मंडलवादी आरक्षण के पीछे गुलामगिरी की भूमिका को शायद पहचान कर ही वी.पी.सिंह ने फुले के प्रति श्रद्धा इन शब्दों में व्यक्त की थी - ‘महात्मा फुले भारत की बुनियादी क्रांति के पहले महापुरुष थे. इसलिए वे आद्य महात्मा बुद्ध-महावीर, मार्टिन लूथर, नानक आदि के उत्तराधिकारी थे, उनका यह समर्पित जीवन आज के युग का प्रेरणा स्रोत बना है.’ बहरहाल आज जब हम भारत की हिस्ट्री के ‘ग्रेटेस्ट शुद्र ‘ की जयंती मना रहे हैं, जरुरत इस बात की है कि फुले ने वर्ण व्यवस्था की जिन छोटी जातियों को सवर्णों की गुलामी से निजात दिलाने के लिए ढेरों शिक्षण संस्थान खड़े किये,सत्यशोधक समाज के निर्माण के साथ भूरि- भूरि साहित्य रचा उनकी वर्तमान स्थिति पर नए सिरे से विचार कर लें.
यह तथ्य है कि फुले ने कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र के समतुल्य जिस ‘गुलामगिरी’ के जरिये आरक्षण के देश भारत में जिस आधुनिक आरक्षण प्रणाली को जन्म दिया, उसका चरम विकास 7 अगस्त, 1990 को मंडलवादी आरक्षण के रूप में सामने आया. किन्तु मंडलवादी आरक्षण की घोषणा होते ही भारत में वर्ग संघर्ष खुलकर सामने आ गया और जिन विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी जातियों से बहुजनों को आजाद करने के लिए फुले ने ताउम्र संघर्ष चलाया, उन जातियों के छात्र व उनके अभिभावक, लेखक-पत्रकार, साधु –संत, पूंजीपति और राजनीतिक दल : सभी अपने –अपने तरीके से आरक्षण के खात्मे में जुट गए. इसी आरक्षण के खात्मे के लिए संघ परिवार ने सितम्बर 1990 से मंदिर आन्दोलन छेड़ा और आज संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा का राज्यों से लेकर केंद्र तक में तानाशाही सत्ता कायम हो चुकी है. आरक्षण के खात्मे के इरादे 24 जुलाई,1991 को नरसिंह राव द्वारा शुरू की गयी नवउदारवादी अर्थनीति!
सवर्ण शाही का अभूतपूर्व दबदबा
बहरहाल आरक्षण के खात्मे के मकसद से नरसिंह राव ने जिस नवउदारवादी अर्थनीति की शुरुआत किया एवं जिसे आगे बढ़ाने में उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने एक दूसरे से होड़ लगाया, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत सुविधाभोगी जैसा शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनितिक- शैक्षिक- धार्मिक) पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है. आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें इन्हीं की है. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल व पोर्टल्स प्राय इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है. संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं. शक्ति के स्रोतों पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेनजीर वर्चस्व के मध्य जिस तरह विनिवेशीकरण और निजीकरण के लैट्रल इंट्री को जूनून की हद तक प्रोत्साहित करते हुए रेल, हवाई अड्डे, चिकित्सालय, शिक्षालय इत्यादि सहित ब्यूरोक्रेसी के निर्णायक पद सवर्णों क सौपें जा रहे हैं उससे संविधान की उद्द्येशिका में उल्लिखित तीन न्याय- आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक - पूरी तरह एक सपना बनते जा रहे है. आर्थिक और सामाजिक विषमता की विस्फोटक स्थिति के मध्य, जिस तरह विनिवेशीकरण, निजीकरण और लैट्रल इंट्री के जरिये शक्ति के समस्त स्रोतों से वंचित बहुजनों के बहिष्कार का एक तरह से अभियान चल रहा है, उसके फलस्वरूप वर्ण व्यवस्था की वंचित जातियों लगभग प्रायः उस स्थिति में पहुच चुकी हैं, जिससे उन्हें निजात दिलाने के लिए फुले को गुलामगिरी की रचना करनी पड़ी. ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था. अतः शुद्रातिशूद्रों की वर्तमान हालात में फुले के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम बहुजन-मुक्ति के लिए वैसी लड़ाई का संकल्प लें जैसी लड़ाई का दृष्टांत अतीत में अंग्रेजों के खिलाफ कायम हुआ !
-एच.एल.दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)
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