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What is the main element of the medium strategy of RSS?
नए भारत की चुनौतियां और आरएसएस
कम्युनिस्ट प्रभावित राज्यों में दलितों-अल्पसंख्यकों पर हमलों की घटनाएं कम क्यों होती हैं? की अगली कड़ी
आरएसएस की माध्यम रणनीति का यह मुख्य तत्व है कि समाचार, उसकी संरचना एवं कथ्य की प्रस्तुति इस तरह की जाए जिससे भय, असुरक्षा और संवैधानिक अवमानना के भाव की अभिव्यक्ति हो। साथ ही,पाठकों श्रोताओं को वह धार्मिक इकाई के रूप में देखते हैं।
एक अन्य पहलू पर विचार करें। यह बृहद् माध्यम प्रक्रिया का अंग है।
सवाल यह है धर्म का जनमाध्यमों से प्रसारण हो या नहीं ॽ
धर्म को जनमाध्यमों के जरिए प्रक्षेपित करने के साथ ही, धर्म अब निजी मसला नहीं रह जाता। यह अंधलोकवाद का अंग बनकर लोकवादी (मासकल्चर) संस्कृति की इकाई के तौर पर भूमिका अदा करने लगता है। जनसमाज में धर्म की शक्ल एक माल की हो जाती है। वह लोगों में बिक्री योग्य होता है और राजनीतिक लामबंदी का उपकरण होता है, इसी अर्थ में जनसमाज में ईश्वर मर जाता है। उसकी जगह राजनीति ले लेती है। धर्म का यह उत्तर-आधुनिक रूप है। यह ऐसा धर्म है जो माध्यम संस्कृति को अंतर्भुक्त करके और जनमाध्यमों के सहारे विकास करता है।
धर्म व्यापार कब हो जाता है?
हमारे देश में जनमाध्यम व्यावसायिक मनोरंजन के माध्यम हैं अत: धर्म का जब जनमाध्यमों से प्रसारण होगा तब धर्म व्यापार हो जाएगा। वह भी मनोरंजन, विखंडन एवं अलगाव की वस्तु हो जाऐगा। धर्म की धर्मनिरपेक्ष धारण यह रही है कि धर्म निजी मसला है किंतु जनमाध्यम सार्वजनीन होते हैं। धर्म का उनके माध्यम से प्रसारण धर्म को निजी नहीं रहने देता, उसे सार्वजनीन कर देता है। माध्यमों से प्रसारित धार्मिक अंतर्वस्तु का जब एक बार प्रसारण हो जाता है तो उसे सहज ही काटा नहीं जा सकता।
धर्म का सार्वजनीकरण धर्म को बाजारू और सांप्रदायिक बना देता है। जनमाध्यमों में जब धर्म प्रवेश करता है तब धार्मिक उत्सवों, आस्थाओं, पुराणपंथी प्राचीन प्रतीकों और मिथों को नई इमेज दे देता है। राष्ट्रीय एकता को धार्मिक एकता के रूप में पेश करता है।
धर्मनिरपेक्षता और 'सर्वधर्म समभाव' को 'सर्वधर्म सहभाव' की धारणा के प्रक्षेपण के जरिए अपदस्थ कर देता है।
परिणामत: धार्मिक आधारों पर सामाजिक विभाजन की प्रक्रिया पुनर्जीवित हो उठती है। इसी प्रक्रिया में राज्य और धर्म, राजनीति और धर्म के बीच में घालमेल का खतरा पैदा हो जाता है।
जनमाध्यमों के लिए ऑडिएंस का उपभोक्ता के रूप में महत्व होता है। ऑडिएंस जब तक उपभोक्ता है तब तक ही उपयोगी है। ऑडियो कैसेट से धार्मिक संगीत हो या टेलीविजन से धार्मिक प्रसारण हो या वीडियो में बनी धार्मिक फिल्म हो इन सबके निर्माण के पीछे ऑडिएंस की जो धारणा काम करती है वह ऑडिएंस को धार्मिक इकाई के रूप में निर्मित करते हुए संप्रेषित करती है। यहां उपभोक्ता मूलत: धार्मिक पहचान लिये होता है। इससे धर्मनिरपेक्षता और आधुनिक चेतना के विकास का रास्ता अवरुद्ध होता है।
ऑडियो-वीडियो कैसेट की बाढ़ का प्रत्यक्ष संबंध टेलीविजन विस्तार से है। अत: टेलीविजन में धर्म के प्रति जो रवैया उभर रहा है वह मूलत: व्यापक धार्मिक और सांप्रदायिक ऑडिएंस तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। धार्मिक आधार पर राजनीतिक लामबंदी को मजबूत कर रहा है। माध्यम विशेषज्ञ सुधीश पचौरी के अनुसार टेलीविजन के माध्यम से धार्मिक उत्सवों और धार्मिक सूचनाओं का प्रसारण सिर्फ सूचनाओं का प्रसारण भर नहीं है, बल्कि इससे भी बढ़कर इसका अर्थ होता है। धर्म के सार्वजनीकरण के कारण धार्मिक समूहों और धार्मिक पहचान के नए आयामों का जन्म होता है। वह इन्हें संगठनबद्ध करता है। इस प्रक्रिया को सांप्रदायिक संगठनों के हित में किया गया विचारधारात्मक कार्य कहा जा सकता है। अथवा अनजाने ही इन संगठनों को इस प्रक्रिया में व्यापक जनाधार मिल जाता है जो उनके पास आधुनिक युग में कभी भी नहीं था। व्यापक जनाधार, आक्रामकता, असहिष्णुता और अतार्किकता के कारण कालांतर में ये संगठन या धर्मसमूह एक दबाव गुट का कार्य करते हैं और धर्म की राज्य के ऊपर वरीयता मिल जाती है।
इसके अलावा टेलीविजन ने सांस्कृतिक पर्वों को धार्मिक पर्वों के रूप में प्रसारित किया है। वह होली,दीवाली, क्रिसमस, ईद जैसे सांस्कृतिक पर्वों को धार्मिक पर्व के रूप में पेश करता रहा है। सांस्कृतिक पर्वों के बारे में तथ्यपूर्ण बातें बताने के बजाय लोकप्रिय किंवदंतियों और अयथार्थपरक लोकप्रिय धारणाओं को ही उनके सारतत्व के रूप में पेश करता है। किंवदंतियों के उन रूपों का चयन करता है जो सांस्कृतिक उत्सव के बजाय धार्मिक उत्सव वाली छवि बनाने में मददगार हों। यह सांस्कृतिक एवं धार्मिक उत्सवों को एक-दूसरे से अलगाता नहीं है। इसके विपरीत घालमेल पैदा करता है। टेलीविजन इमेज मात्र इमेज नहीं होती अपितु वह विशिष्ट अर्थ संप्रेषित करती है। तदनुरूप दर्शक को बदलती और संगठित-असंगठित करती है। जिस तरह हम विज्ञापन देखते हैं तो मात्र विज्ञापन नहीं देखते। अथवा टेलीविजन जब विज्ञापन पेश करता है तब वह हमारे घर में एक वस्तु पेश करता है और फिर यही वस्तु एक अन्य वस्तु को जन्म देती है।
इसी तरह टेलीविजन से जब धर्म का प्रसारण होता है तब धर्म पैदा नहीं होता बल्कि सांप्रदायिकता पैदा होती है। विज्ञापन के माध्यम से कंपनियां दर्शक से विनिमय मूल्य अर्जित करती हैं। इसी तरह धर्म जब प्रक्षेपित होता है तब दर्शक से अपना वैचारिक-सामाजिक एवं आर्थिक विनिमय मूल्य वसूल करता है। धर्म का जब विनिमय मूल्य प्राप्त होने लगे तो वह धर्म नहीं रह जाता और न ही धार्मिकता का प्रचार कर रहा होता है बल्कि वह सांप्रदायिकता का ही विनिमय करता है। धर्म और धार्मिक विचार दोनों ही अब माल बन जाते हैं। अब धार्मिक सूचना का चेहरा और शरीर दोनों ही बदल जाते हैं।
सांप्रदायिक माध्यम रणनीति में जनता और नेता का भेद नहीं मिलता। इन दोनों में समानता दर्शाते हुए जनता एवं नेता की पहचान को एकमेक कर दिया जाता है। हिंदू एकता को देशभक्ति बताया जाता है। जबकि यह साम्प्रदायिकता है।
क्या साम्प्रदायिक दंगे संगठन विहीन और स्वत:स्फूर्त होते हैं? | Are communal riots unorganized and spontaneous?
साम्प्रदायिक नेता दंगों को स्वतःस्फूर्त्त और स्वाभाविक प्रतिक्रिया कहते हैं। वे यह भी आभास देते हैं कि दंगे संगठनविहीन और स्वत:स्फूर्त होते हैं। हकीकत में सांप्रदायिक दंगे आकस्मिक लगते जरूर हैं, किंतु वे सुनियोजित एवं संगठनबद्ध ढंग से कराए जाते हैं। वे स्वत:स्फूर्त एवं आकस्मिक नहीं होते।
असल में, दंगाई ताकतें लोकवादी संस्कृति की खूबियों को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने में सफल रही हैं।
लोकवादी संस्कृति आम जनता में समर्पण का भाव पैदा करती है। जनसभाओं की शिरकत को निष्क्रिय शिरकत में बदल देती है। फासीवादी ताकतें इन दोनों ही बातों को अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हैं। वे धार्मिक मुक्ति को जनता की मुक्ति कहते हैं, इस आधार पर जनता की एकता का शोषण करते हैं। वे ऐसे नेता को उभारते हैं जो स्वभाव से अविवेकवादी एवं अधिनायकवादी है। बहुसंख्यक समुदाय में भावोत्तेजना पैदा करता है। नस्लपरक दंभ का सृजन करता है। सामूहिक अहंकार को उभारता है। उत्तेजनापूर्ण भाषणों से जनोद्वेग पैदा करता है। उसके पास कोई कार्यक्रम नहीं होता। वह ऐसे कार्यक्रम को चुनता है जो भ्रष्टाचार या अल्पसंख्यक विरोधी हो। भारत में इस तरह के नेता और संगठन को असली समर्थन बड़े औद्योगिक घरानों एवं उपभोक्तावाद से मिल रहा है। वह ऐसी भीड़ का निर्माण करता है जो असहिष्णु एवं घृणा से भरी होती है। विवेकपूर्ण संवाद की जिसके साथ गुंजाइश ही नहीं होती। हिंसा और घृणा उसका स्थायी भाव है। आस्था उसकी संपत्ति है। संकीर्ण एवं अवैज्ञानिक दृष्टि से संस्कृति, इतिहास एवं राजनीतिक प्रश्नों की व्याख्या उसकी विचारधारात्मक संपत्ति है। अभी तक इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय समाज में आरएसएस और मोदी अपील करता रहा है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी की एफबी टिप्पणी का संपादित अंश