फेसबुक पर मार्क्सवाद के पक्ष में गिनती के लोग हैं और वे भी देश विदेश की समस्याओं और समाचारों पर कभी कभार लिखते हैं। उनकी मार्क्सवाद सेवा तब फलीभूत होगी जब वे देश -विदेश की समस्याओं पर जमकर नियमित लिखें।
मार्क्सवाद को किस-किससे खतरा है?
मार्क्सवाद को अनपढ़ मार्क्सवादियों से सबसे ज्यादा ख़तरा है।
मार्क्सवाद को दूसरा बड़ा ख़तरा उन लोगों से है, जो मार्क्सवाद के स्वयं-भू संरक्षक हैं। स्वयंभू संरक्षकों ने मार्क्सवाद की सबसे ज्यादा क्षति की है। मार्क्स-एंगेल्स का चिन्तन अपनी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ है। हिंदी के स्वयंभू मार्क्सवादियों से यही कहना है कि वे पहले हिंदी में मार्क्सवाद के नजरिए से काम करके उसे समृद्ध करें और पाठक खोजें।
क्या मार्क्सवाद का विकास फेसबुक पर हंगामा करने से होगा ?
आज हालत इतनी बदतर है कि देश में मार्क्सवाद पर तमीज की एक पत्रिका नहीं है। हिंदी में मार्क्सवादियों की किताबें लोग कम पढ़ते हैं। क्या फेसबुक पर हंगामा करने से मार्क्सवाद का विकास होगा ?
फेसबुक कम्युनिकेशन का पूरक हो सकता है, लेकिन मात्र इतने से काम बनने वाला नहीं है।
फेसबुक मार्क्सवादियों से विनम्र अनुरोध है कि वे कम से कम मार्क्सवाद जिंदाबाद कहकर मार्क्सवाद की सेवा कम और कुसेवा ज्यादा कर रहे हैं।
नारेबाजी की चीज़ नहीं है मार्क्सवाद
मार्क्सवाद का संरक्षण और नारेबाजी मात्र अंततः कठमुल्ला बनाते हैं और कठमुल्लेपन का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है। बल्कि इससे आरएसएस जैसे संगठनों को मदद मिलती है।
अभी मार्क्सवाद को नए सिरे से पढ़ने की जरूरत है। बिना पढ़े ही लोग यहां लिख रहे हैं। मार्क्सवाद की संभावनाएं बाकी हैं, लेकिन यदि मार्क्सवाद को प्रौपेगैंडा बनाया गया तो मार्क्सवाद तो डूबा हुआ समझो। मार्क्सवाद न तो प्रौपेगैंडा है, न विचारधारा है और नहीं दर्शन है, बल्कि विश्वदृष्टि है। मार्क्सवाद दुनिया को देखने का वैज्ञानिक नजरिया है। हम चाहेंगे कि मित्रगण इसी बहाने मार्क्स-एंगेल्स आदि को नए सिरे से पढ़ें और समस्याओं पर विस्तार से लिखें।
मैं जब जेएनयू में पढ़ता था और जेएनयूएसयू का अध्यक्ष था, तो 1984 के दंगों के बाद संत हरचंद सिंह लोंगोवाल, सुरजीत सिंह बरनाला और महीप सिंह ये तीनों अकाली दल की ओर से जेएनयू के छात्रों और खासकर जेएनयू छात्रसंघ की भूमिका के प्रति आभार व्यक्त करने आए थे और बरनाला साहब ने मैसेज दिया कि संत लोंगोवाल मुझसे मिलकर बातें करना चाहते हैं और आभार के रुप में अकालीदल की कार्यकारिणी का प्रस्ताव देना चाहते हैं। उस समय जेएनयू में बड़ा तबका था जो मानता था कि मुझे संतजी से नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि उन्होंने आतंकवाद का समर्थन किया है। लेकिन मैं बहुसंख्यकों की राय से असहमत था और मैंने झेलम लॉन में आम सभा रखी, जिसमें संतजी ने खुलकर अपने विचार रखे और जेएनयू छात्रसंघ के प्रति आभार व्यक्त किया था।
मैं यह वाकया इसलिए लिख रहा हूँ कि राजनीति और विचारधारात्मक कार्यों में कोई अछूत नहीं होता। लोकतंत्र में जो वामपंथी अछूतभाव की वकालत करते हैं, मैं उनसे पहले भी असहमत था आज भी असहमत हूँ।
मेरे लिए माओवादियों से लेकर माकपा-सपा-बसपा-भाजपा या कांग्रेस अछूत नहीं हैं। इनके नेताओं या कार्यकर्ताओं से मिलना या उनके द्वारा संचालित मंचों पर आना जाना स्वस्थ लोकतांत्रिक कर्म है। सवाल यह है आपका नजरिया क्या है? इस प्रसंग में मुझे जैनेन्द्र कुमार याद आ रहे हैं।
जैनेन्द्र कुमार ने लिखा-
'बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है। पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं उस वक्त जेब भरी हो तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फैन्सी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है।'
जगदीश्वर चतुर्वेदी