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जंगे आज़ादी में मुश्तरका जनवादी संघर्ष की विरासत

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hastakshep
26 Mar 2022
जंगे आज़ादी में मुश्तरका जनवादी संघर्ष की विरासत

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मौलाना हसरत मोहानी और गणेश शंकर विद्यार्थी

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     हसरत मोहानी                   गणेश शंकर विद्यार्थी

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   14 अक्टूबर, 1878 - 13मई, 1951             29 अक्टूबर, 1890- 25 मार्च, 1931

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मौलाना हसरत मोहानी और गणेश शंकर विद्यार्थी अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति, सांप्रदायिक सौहार्द, श्रमिक आंदोलन, मुश्तरका जनवादी और क्रांतिकारी संघर्ष परंपरा में अग्रणी रहे हैं। दोनों ने पत्रकारिता से राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया था। दोनों ही कांग्रेस में गरम दल से संबंधित तथा लोकमान्य तिलक के अनुयायी थे। आजादी के आंदोलन को संविधानवादी सुधार आंदोलन में गुमराह करने का दोनों ने विरोध किया। दोनों देश में क्रांतिकारी आंदोलन से भी संबंधित थे। लेनिन के नेतृत्व में रूस की 1917 अक्टूबर सर्वहारा क्रांति से दोनों प्रभावित थे। विद्यार्थीजी कानपुर में मजदूर आंदोलन के जनक तथा हसरत मोहानी 1925 में कानपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे।

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हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा सांप्रदायिक विभाजन की नीतियों का अनुसरण करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विदेशी पूंजी की गुलामी कर रही हैं। गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के ये अनुयायी, आज फिर देश को उसी सांप्रदायिक आग की आग में झुलसाने का प्रयास कर रहे हैं, जिसे शांत करने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपना प्राणेत्सर्ग किया था। सीएए, एनआरसी से लेकर "द कश्मीर फाइल" तक लगातार जारी सांप्रदायिक हथकंडों के जरिए वातावरण विषाक्त किया जा रहा है। रासुका, यूएपीए. अफस्पा जैसे अनेक दमनकारी कानूनों का निशाना सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय ही नहीं हैं; नागरिक अधिकारों की हिफाजत के लिए सक्रिय एक्टिविस्टों, आम मजदूर, किसान खासकर असंगठित मजदूर, भूमिहीन गरीब किसान, अनुसूचित जाति-जनजाति आदि समुदायों से संबंधित श्रमजीवी भी हैं। साम्राज्यवाद परस्त नीतियों के कारण अर्थ व्यवस्था पर छाए संकट, मंदी, बेरोजगारी, मंहगार्इ से ध्यान हटाने के अतिरिक्त आम जनता के संगठित होने, आंदोलन करने के अधिकारों को छीनना असली मकसद है। हिंदुत्वादी राष्ट्रीयता या 'हिंदू राज्य' के नाम पर देश में फासीवादी तानाशाही लागू करने की कोशिश की जा रही है। दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों के नाम पर जनसंहार, उत्तर प्रदेश में जारी दमन, किसान आंदोलन पर अपनाया गया रवैया, लखीमपुर में किसानों को कुचलने जैसी विभत्स घटना सत्ता की फासिस्ट दमनकारी नीतियों के उदाहरण हैं।

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हसरत मोहानी गणेश शंकर विद्यार्थी के शब्दों में

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   "मौलाना फजलुल हसन हसरत मोहानी देश की उन पाक-हस्तियों में से एक हैं  जिन्‍होंने देश की स्‍वाधीनता, कौमियत के भाव की तरक्‍की, अत्‍याचारों को मिटाने, अन्‍यायों के विरोध करने के लिए, जन्‍म -भर कठिनाइयों और विपत्तियों के साथ घोर से घोरतम संग्राम किया। उस समय, जब भारत की राष्‍ट्रीय-वेदी पर लोकमान्‍य तिलक अपना सर्वस्‍व न्‍योछावर कर रहे थे, लोग उनका साथ देते डरते थे, - उस समय उस बीहड़ पथ में, लोकमान्‍य तिलक के साथ, मौलाना हसरत ने अपना कदम आगे बढ़ाया था, और देश और कौम पर अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी थी। उस समय से उन्‍हें आजादी का सौदा है। उस जमाने से, उन्‍होंने इस रास्‍ते में तकलीफों पर तकलीफें उठाई। हाकिमों की आंखों में वे सदा खटकते रहे। कोई कसर न रखी गई उनको सताने में, उनको दबा डालने में। परंतु मौलाना भी अपने ढंग के निराले निकले। जितनी सख्‍ती की जाती, उतनी ही मर्दानगी से वे उसका सामना करते। उनके जीवन का यह खास ढंग रहा है। उनका साहस, उनकी दृढ़ता, तपा हुआ सोना सिद्ध हुई है। युवकों के लिए, उनके ये गुण, बड़े जबर्दस्‍त पथ-प्रदर्शक हैं।.. दृढ़ राष्‍ट्रीय विचारों के कारण मौलाना सांप्रदायिक और जातीय बातों से सदा ऊपर रहे।.. इस कठिन समय में, जब हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन के नापने में अपना बल और पुरुषार्थ दिखा रहे हैं, मौलाना का हमारे बीच में आ जाना, बहुत संभव है, देश के लिए बहुत हितकर सिद्ध हो। महामा गांधी के पश्‍चात् यदि कोई आदमी इस मामले को अपने हाथ में ले सकता है, तो वह मौलाना ही हैं।“

(हसरत मोहानी के तीसरी बार जेल से छूटने के बाद साप्‍ताहिक 'प्रताप' के 18 अगस्‍त 1924 के अंक से उद्धृत )

उन्नाव की हसनगंज तहसील के मोहान में एक जमींदार परिवार में जन्मे हसरत मोहानी (सैयद फजलुल हसन) के विचारों पर तीन समकालीन चिंतन पद्धतियों का प्रभाव देखा जा सकता है। लखनऊ स्थित फिरंगी महल, बरतानिया विरोधी सर्व इस्लामवादी विचारधारा और साम्यवादी चिंतन। अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति में उनका मानस ढला था। वे अपने वक्त के नायाब शायर थे। 'हसरत' उनका तखल्लुस था। सूफी विचार पद्धति, प्रेम और मानवता उनके चिंतन और शायरी के मजमून थे। उनकी रचनाओं में कृष्ण भक्ति तथा मथुरा के साथ उनका लगाव उन्हें अज़ीम शायर बनाते हैं। जोश मलीहाबादी, अकबर इलाहाबादी की तरह उनकी शायरी और नज्में गरीबों के दर्द और जंगे आजादी के ख्यालों से सराबोर थीं। फिरंगी महल के अब्दुल बारी 'जमायते-उलेमा-ए-हिन्द' के संस्थापकों में से एक तथा हिंदू-मुस्लिम एकता के जबरदस्त हिमायती थे।

हसरत मोहानी ने अलीगढ़ एमओयू कॉलेज (मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज) से ग्रेजुएशन किया था। बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी आंदोलन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। छात्र जीवन के दौरान उनके द्वारा 1903 से शुरू उर्दू -ए - मुअल्ला नामक साहित्यिक पत्रिका की शुरुआत की जो जल्द की बरतानिया साम्राज्यवाद के विरोध और हिंदू- मुस्लिम मुश्तरका जद्दोजहद का परचम बन गर्इ। यह पत्रिका देश की जंगे आजादी का महत्वूपर्ण दस्तावेज है।

हसरत मोहानी ने खुलकर कांग्रेस के गरम दल का समर्थन और बंगाल विभाजन के बाद शुरू स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की।

राजद्रोहात्मक लेखन के आरोप में अप्रेल,1908 में उनकी पहली गिरफ्तारी हुर्इ। अलीगढ़ और इलाहाबाद जेल में कठोर कारावास के दौरान उन्हें हाथ की चक्की से 40 किलो अनाज प्रतदिन पीसना होता था। उनकी जेल डायरी ब्रिटिश जेल की यातनाओं की सजीव दास्तान हैं। रिहार्इ के बाद उन्होंनेउर्दू -ए - मुअल्ला का प्रकाशन दुबारा शुरू किया। इसके पहले अंक में अरबिंदो घोष के संपादन में निकलने वाली पत्रिका कर्मयोगी में प्रकाशित लेख का अनुवाद"रिसाला स्वराज एवं मुस्लिम" शीर्षक में मुस्लिम लीग के गठन के दौर में वायसराय से शिमला में मुस्लिम प्रतिनिधियों से मुलाकात पर टिप्पणी करते हुए कहा गया था कि जल्द की मुसलमान समझ जाएंगे कि बरतानिया सरकार जो मधुर वायदे कर रही है वे सब छलावा मात्र हैं।

बरतानिया सरकार ने पत्रिका के खिलाफ दमनकारी प्रेस एक्ट के अंतर्गत कार्रवार्इ करते हुए भारी जुर्माने लगाए गए। कानपुर में बरतानिया हुक्मरानों द्वारा मछली बाज़ार मस्जिद को ढहाए जाने का प्रतिरोध और इसे कुचलने के लिए शासकों द्वारा बेकसूर मुसलमानों पर फायरिंग के विरोध में उन्होंने जबरदस्त लेख लिखे। अंत में 1913 में उर्दू -ए - मुअल्ला को बंद करना पड़ा। कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के मध्य समझौता (दिसंबर1916) के लिए भी हसरत मोहानी की सक्रिय भूमिका रही।

हसरत मोहानी का संपर्क गदर पार्टी के साथ था। उर्दू -ए- मुअल्ला के शुरुआती अंक में हसरत मोहानी के नाम मौलवी बरकतुल्ला का एक पत्र प्रकाशित हुआ था, जिसमें बरतानिया साम्राज्यवाद का विरोध और हिंदू-मुस्लिम मुश्तरका संघर्ष की रणीनीति की पेशकश की गर्इ थी। बरकतउल्ला शेख़ जमालुद्दीन अफ़्ग़ानी से प्रभावित थे, जिन्होंने इस्लामी विश्व बिरादराना दर्शन को बरतानिया साम्राज्यवाद के विरोध और हिंदू-मुस्लिम मुश्तरका संघर्ष के साथ जोड़ कर भारत में क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा की थी। लाला हरदयाल और करतार सिंह सराबा के साथ बरकतउल्ला गदर पार्टी के मुख्य नेताओं में से थे। प्रथम विश्वयुद्ध के समय राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में गठित अस्थार्इ क्रांतिकारी भारत सरकार के महामंत्री थे। इसमें प्रमुख भूमिका दारुल उल उलुम देवबंद के मौलाना ओबेदुल्ल सिंधी की थी। हसरत मोहानी इस सरकार में उप सेनापति (लेफ्टीनेंट जनरल) बनाए गए थे। इस क्रांतिकारी इतिहास को रेशम के रूमाल पर लिखे पत्र संदेशों के नाम से जाना जाता है।

अप्रैल 1916 में हसरत मोहानी को अत्यधिक खतरनाक व्यक्ति करार देते हुए तीसरी बार गिरफ्तार किया गया। विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद वे रिहा हुए। बरतानिया साम्राज्यवाद ने मांटेस्ग्यू-चैम्सफोर्ड सुधार और रौलेट एक्ट जैसे दमनकारी कानून पारित किए। हसरत मोहानी ने अपनी मशहूर नज्म 'कागज के फूल जिनमें खुशबू नहीं होती' के जरिए संवैधानिक सुधारों के रास्ते पर आाज़ादी आंदोलन को गुमराह करने की बरतानिया साम्राज्यवादी साजिश को बेनकाब किया। वे खिलाफत आंदोलन के मुख्य संगठनकर्ताओं में से थे। फिरंगी महल के अब्दुल बारी के साथ मिलकर र्इद-उल-अजहा पर गोकशी नहीं किए जाने के एेलान में उनकी प्रमुख भूमिका थी।

हसरत मोहानी ने 1920 में कानपुर को अपनी प्रमुख कार्यस्थली बनाया। क्रांतिकारियों के साथ उनकी निकटता थी। कांग्रेस के 1921 में अहमदाबाद सम्मेलन में उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पेश किया था। गांधीजी ने इसका विरोध किया परंतु सम्मेलन में शाहजहांपुर से युवा प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान ने उनका प्रबल समर्थन किया था।

कानपुर से उन्होंने उर्दू -ए - मुअल्ला का प्रकाशन और स्वेदशी भंडार के जरिए राजनीतिक गतिविधियों की शुरुआत की। साइमन कमीशन के बहिष्कार के बाद कांग्रेस फिर से संवैधानिक सुधारों के रास्ते पर लौटी और नेहरू रिपोर्ट के जरिए औपनिवेशिक स्वराज की मांग पेश की। हसरत मोहानी ने नेहरू रिपोर्ट का विरोध किया। कानपुर में एनी बेसेंट के नेतृत्व में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। उसके साथ ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी सम्मेलन हुआ। भारत में यह कम्युनिस्ट पार्टी का प्रथम सम्मेलन था। मौलाना हसरत मोहानी इसकी स्वागत समिति के अध्यक्ष थे और 1928 तक कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे। स्थापना सम्मेलन में उनका स्वागत भाषण अत्यंत महत्वपूर्ण था। इसमें उन्होंने आजादी के बाद सोवियत संघ के नमूने के समाजवादी व गणतंत्र की स्थापना का लक्ष्य पेश किया था। हसरत मोहानी ने कानपुर से 1929 में मुस्तकिल नाम से समाचार पत्र की शुरुआत की। 1932 में उन्होंने जमीयत उल उलेमा के सम्मेलन की सदारत की, 1937 का आम चुनाव कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने संयुक्त रूप से लड़ा था। हसरत मोहानी को मुस्लिम लीग के टिकट से कांग्रेस के समर्थित उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े थे। चुनाव में मुस्लिम आारक्षित क्षेत्र और साधारण क्षेत्र से प्रतिनिधयों का चयन हुआ था। मंत्रीमंडल के गठन के दौरान चुनाव पूर्व यह गठबंधन टूट गया। कांग्रेस को जिन प्रांतों में बहुमत हासिल था उसने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाने से इंकार कर दिया था।

हसरत मोहानी हालांकि मुस्लिम लीग के सदस्य थे परंतु उनकी सक्रियता कम्युनिस्ट पार्टी के साथ थी, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उनका झुकाव सोवियत संघ के प्रति था। उन्होंने 1938-39 में काहिरा (मिस्र) और फिलीस्तीन का दौरा किया। मुस्लिम लीग ने 1940 में पाकिस्तान के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया। उस समय यह प्रस्ताव एक संप्रभु राज्य के तहत स्वायत्त प्रदेश के रूप में था।

हसरत मोहानी संघात्मक लोकतांत्रिक गणतंत्र के पक्ष में थे। उनकी पूरी कोशिश यही रही कि देश का विभाजन नहीं हो।उर्दू ए मुअल्ला में प्रकाशित उनके लेखों में उन्होंने भारत को स्वायत्त प्रांतों की संघ के रूप में गठित करने का पक्ष लिया। वे भारत की संविधान सभा के सदस्य थे। उनका मत था कि यह संविधान1935 के ब्रिटिश इंडिया एक्ट के प्रारूप को आधार बनाकर बनाया गया है और भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप नहीं है। उन्होंने आस्ट्रिया,कनाडा, अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन के संविधानों पर भारतीय संविधान के निर्माण पर विचार किए जाने पर टिप्पणी करते हुए कहा था संविधान सभा में पूछा था कि दुनिया के सबसे बेहतरीन संविधान सोवियत संघ के संविधान पर विचार नहीं किया गया? उनका जोर संघात्मक व्यवस्था तथा शक्तियों के विकेंद्रित पर था। देश के विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया। वे कानपुर में रहे। 13मर्इ, 1951 को उनका इंतकाल हुआ। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें फिरंगी महल के कब्रिस्तान में दफनाया गया।

गणेश शंकर विद्यार्थी को श्रृद्धांजलि

"आज उस दीनबंधु के लिए किसान रो रहे हैं कौन उनकी हृदय की ज्वाला को शांत करने के लिए स्वयं आग में कूद पड़ेगा। मजदूर पछता रहे हैं कौन उन पीड़ितों को संगठित करेगा। देशी राज्यों के निवासी आज अश्रुपात कर रहे हैं पशुवत दास अत्याचारिता के उनकी दास्तां को कौन वाणी प्रदान करेगा। ग्रामीण अध्यापक रूदन कर रहे हैं, कौर उनका दुखड़ा सुनेगा और कंधे से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता संग्राम में आगे बढ़ेगा। एक कोने में पड़े पत्रकार बंधु भी अपने को निराश्रित पाकर चुपचाप आंसू बहा रहे हैं, आपतकाल में कौन उनको सहारा देगा, किसे वे अपना बड़ा भार्इ समझेंगे, कौन छुटभइयों का इतना ख्याल रखेगा। " (बनारसी दास चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी को श्रद्घांजलि)

कांग्रेस में गणेश शंकर विद्यार्थी खास शख्सियत थे। वे कांग्रेस में गरम दल की धारावाहिकता थे। जनवादी पत्रकारिता को उन्होंने नए आयाम दिए। उन्होंने कहा था कि संवैधानिक सुधारों के रास्ते के जरिए सांप्रदायिकता का विष को फैलाया जा रहा है। चुनावी राजनीति के बजाए किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलन, देशी राज्यों के जनआंदोलनों पर उन्होंने खास बल दिया। क्रांतिकारी आंदोलन को जनदिशा की ओर मोड़ने में उनकी अहम भूमिका थी। लेनिन के नेतृत्व में सोवियत संध में सर्वहारा क्रांति का अभिनंदन करने और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों को समाजवादी दिशा की ओर उन्मुख किए जाने वाले विचारकों में गणेश शंकर विद्यार्थी की अग्रणी भूमिका थी।

विद्यार्थीजी का जन्म उनके ननिहाल इलाहाबाद के अतरसुइया मौहल्ले में हुआ था। पिता जयनारायण फतेहपुर के रहने वाले तथा ग्वालियर में एक विद्यालय में अध्यापक थे। वहीं उनका बचपन एवं प्रारंभिक शिक्षा हुई। कानपुर से 1907 में एंट्रेस पास कर इलाहबाद कायस्थ कॉलेज में दाखिला लिया और छात्र जीवन में ही कर्मवीर सुंदरललालजी के संपादन में साप्ताहिक पत्रिका कर्मयोगी से पत्रकारिता में प्रवेश किया। पढ़ार्इ पूरी कर कानपुर 1908 में आए, उन्होंने शुरू में एक करेंसी कार्यालय में बतौर लिपिक के रूप मे, फिर पीपीएन कालेज में अध्यापन किया। कर्मयोगी के अतिरिक्त स्वराज्य (उर्दू) और हितवार्ता में लेख लिखे। 1911 में महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में सरस्वती में उप संपादक रहे, 1913 में प्रारंभ साप्ताहिक प्रताप उन के अथक प्रयासों से 1920 में दैनिक समाचार पत्र के रूप में बदल गया।

तिलक की रिहार्इ के बाद 1917-18 में 'होम रूल' आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने राजस्थान के बिजोलिया किसान आंदोलन, चंपारन के किसान आंदोलन और अवध में बाबा रामनाथ के नेतृत्व में किसान आंदोलन तथा उन्नाव हरदोई में मदारी पासी के नेतृत्व में किसानों के सांमतवाद विरोधी "एका आंदोलन" को स्वर दिया। अवध के किसान आंदोलन के समर्थन के कारण 1920 में उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास हुआ, यह उनकी पहली जेल यात्रा थी। शासन विरोधी अखबारनवीसी के कारण अनेक बार प्रताप की जमानत जब्त हुर्इ।

गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर में मजदूर आंदोलन के संगठन कर्ताओं में से थे। पहले विश्वयुद्ध के बाद मजदूर आंदोलन की लहर में कानपुर के मजदूर आंदोलन के संगठन और अगुआई में गणेश शंकर विद्यार्थी की अग्रणी भूमिका थी। कानपुर मिल मजदूर सभा का पंजीकरण 1920 में हुआ था। वे उसके पदाधिकारी थे। प्रताप में कानपुर के मजदूरों के शोषण और उनके अधिकारों को लेकर छपने वाले समचारों ने मजदूर वर्ग को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। विद्यार्थी जी ने "मजदूर" नाम से मजदूरों का एक अलग समाचार पत्र भी प्रारंभ किया था। कानपुर में 1919 में सूती मिल मजदूरों की एेतिहासिक हड़ताल में विद्यार्थी जी की अग्रणी भूमिका थी।

गणेश शंकर विद्यार्थी 1925 में कानपुर से ही यू.पी. विधानसभा के लिए चुने गए और 1929 में पार्टी के कहने पर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। 1929 में वे यू.पी. कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुने गए और राज्य में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी उन्हें दी गई। वे 1930 में गिरफ्तार हुए। गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च, 1931 को रिहा हुए। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत के बाद कानपुर शहर में भड़के सांप्रदायिक दंगों की आग बुझाने के प्रयास में 25 मार्च, 1931 को उनकी शहादत हुर्इ। बरतानिया साम्रज्यवादी नौकरशाही ने षड़यंत्र करके दंगों की आड़ में सुनियोजित रूप से उनकी हत्या की इस साजिश कों अंजाम दिया था। उनका शव तीन दुन बाद बरामद हुआ।

गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था

"भारतवासियों! एक बात सदा ध्‍यान में रखो। धार्मिक कट्टरता का युग चला गया। आज से 500 वर्ष पूर्व यूरोप जिस अंधविश्‍वास, दम्‍भ और धार्मिक बर्बरता के युग में था, उस युग में भारतवर्ष को घसीट कर मत ले जाओ।.. हिंदू-मुसलमानों के झगड़ों और हमारी कमजोरियों को दूर करने का केवल एक यही तरीका है कि समाज के कुछ सत्‍यनिष्‍ठ और सीधे दृढ़ विश्‍वासी पुरुष धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध जिहाद शुरू कर दें। जब तक यह मूर्खता नष्‍ट न होगी, तब तक देश का कल्‍याण न होगा।"(जिहाद की जरूरत).. ‘हमें जानबूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और गलत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए. हिंदू राष्ट्र- हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं. इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है.’ (21 जून, 1915 को प्रताप से)

“हम लोगों को कागजी स्वराज्य का मसविदा बनाने के झंझट में न पड़कर सीधे गांवों की ओर मुड़ना चाहिए। हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य दूर करने का एकमात्र तरीका यही है कि ग्राम संगठन के काम को हाथ में लेकर बिना भेदभाव के गरीब किसानों की सेवा की जाए। इसी तरह शहरों में मिलों में काम करने वाले लाखों मजदूरों के संगठन की आवश्यकता है। किसानों मजदूरों का युग आ गया है। थोथी राजनीति से अब काम नहीं चलेगा।”(देवव्रत शास्त्री द्वारा लिखित गणेश शंकर विद्यार्थी पर पुस्तक, पृष्ठ 64से).. ‘मैं हिन्दू-मुसलमान झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं। चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता। ( 1925 में कौंसिल का चुनाव जीतने के बाद बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे पत्र से)

".. राजनैतिक स्‍वाधीनता के साथ सवाल है, करोड़ों अछूत भाईयों का जो तुम्‍हारी भांति मनुष्‍य हैं, मां- बहनों, पत्नियों और पुत्रियों का मानसिक विकास और शारीरिक कल्‍याण, अन्‍नदाता किसानों और देहातियों की कलाओं का प्रस्‍फुरण का, जिससे साहित्‍य में स्‍वाधीनता की लहर उत्पन्न हो सके, जिससे धार्मिक आडंबरों के अत्‍याचार से पीड़ित लोगों की मानसिक प्रवृत्तियों के बंधन टूट सकें। इन सवालों पर तुम अधिकांश अवस्‍था में चुप रह जाते हो या बोलते भी हो तो बड़े ही धीमे स्‍वर से। स्वाधीनता की लड़ाई इस प्रकार आधे दिल से नहीं लड़ी जा सकती।" (नवयुग का संदेश से)

"मैं नान वायलेंस (अहिंसा) को शुरू से अपनी पालिसी मानता रहा हूं। धर्म नहीं मानता रहा।.. मनसा और कर्मणा, अहिंसा साधारण मनुष्‍यों का सहज स्‍वभाव नहीं है और इसीलिये राजनैतिक संग्राम में उसे अपना साधारण हथियार नहीं बनाया जा सकता.. नि:संदेह मैं लड़ाई का पक्षपाती हूं और टाल्‍सटाय और महात्‍मा गांधी की पूर्ण अहिंसा को जिस अर्थ में धार्मिक सिद्धांत मानते हैं, उस अर्थ में मैं इस पर विश्‍वास नहीं करता।" (राजद्रोह के आरोप में अदालत के सामने लिखित बयान से)

"आत्‍मोत्‍सर्गी व्‍यक्ति में एक गुप्‍त शक्ति रहती हैं, जिसके बल से वह दूसरे मनुष्य को दु:ख से बचाने के लिए प्राण तक देने को प्रस्‍तुत हो जाता है। धर्म, देश, जाति और परिवार वालों ही के लिए नहीं, किंतु संकट में पड़े हुए एक अपरिचित व्‍यक्ति के सहायतार्थ भी, उसी शक्ति की प्रेरणा से वह सारे संकटों का सामना करने को तैयार हो जाता है। अपने प्राणों की वह लेश-मात्र भी परवाह नहीं करता। हर प्रकार के क्‍लेशों को वह प्रसन्‍नतापूर्वक सहता और स्‍वार्थ के विचारों को वह अपने चित्‍त में फटकने तक नहीं देता है।..”(आत्मोत्सर्ग से)

"जिन लोगों ने पत्रकार-कला को अपना काम बना रखा है, उनमें बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपनी चिंताओं को इस बात पर विचार करने का कष्‍ट उठाने का अवसर देते हों कि हमें सच्‍चाई की भी लाज रखनी चाहिये। केवल अपनी मक्‍खन-रोटी के लिए दिन-भर में कई रंग बदलना ठीक नहीं है।" (पत्रकार-कला>पुस्तक की भूमिका से)

पीयूसीएल- कानपुर , स्वातंत्र्य समर स्मृति समिति, और जनवादी चेतना केन्द्र के लिए किशन पोरवाल, चंबल आर्काइव्ज, 40 चौगुर्जी इटावा द्वारा प्रकाशित, वरिष्ठ पत्रकार कमल सिंह द्वारा प्रस्तुति।

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