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मई दिवस की परम्परा और कोरोना में मजदूर वर्ग का कार्यभार | Tradition of May Day and working class in Corona
‘‘मई दिवस वह दिन जो पूंजीवादियों के दिल में डर और मजदूरों के दिल में आशा पैदा करता है।’’ - चार्ल्स ई. रथेनबर्ग
मई दिवस की 130 वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। लेकिन असंगठित क्षेत्र के 70 प्रतिशत मजदूरों की हालत आज भी वही है जो कि 1886 में थी। इन मजदूरों के काम के घंटे सरकार ने आठ कर दिया, लेकिन ये मजदूर आज भी 12-14 घंटे काम करने को मजबूर हैं। उनको श्रम कानून का पालन तो दूर मजदूर ही मानने से इनकार किया जाता रहा है। आज कोरोना महामारी के दौरान वही मजदूर सड़कों पर घर जाते हुए और खाने की लाईन में घंटो खड़े दिख रहे हैं जो कि सरकार की नजर में मजदूर की श्रेणी में ही नहीं आते हैं। हालत यह थी कि लॉक डाउन के पांच दिन बाद से ही इन मजदूरों के पास खाने के लिए कुछ नहीं बचा और वे पैदल ही पांच सौ से पन्द्रह सौ किलोमीटर दूर बुजुर्ग, बच्चे, महिलाएं, विकलांग, नौजवान घर के लिए निकल पड़े।
यह मई दिवस दूसरे मई दिवस से भिन्न है क्योंकि कोई भी संगठन हर साल की तरह इस मई दिवस पर जुलूस नहीं निकाल सकते। कोरोना महामारी के बीच मजदूर वर्ग आज भारत में ही नहीं दुनिया भर में संकट में है और अपने-अपने घरों में कैद होकर नौकरियां गंवा रहे हैं। हम भारत सहित पूरी दुनिया में मजदूरों को बेरोजगार होते हुए देख रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका में मध्य मार्च से अप्रैल तक डेढ़ महीने में 3 करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं, अप्रैल के तीसरे सप्ताह में 38 लाख लोगों ने बेरोजगारी भत्ता के लिए आवेदन किया। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल माह में भारत में 23.7 प्रतिशत बेरोजगारी दर हो गयी हैं और यह संख्या 50 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। हालत यह है कि जिस राज्य ने इन मजदूरों के बल पर उन्नत्ति की, आज वही नहीं चाहता कि ये मजदूर उनके राज्य में रहें। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने 6 राज्यों से कहा है कि महाराष्ट्र में फंसे 3.5 लाख प्रवासी मजदूरों को बुला लें। इन मजदूरों की हालत यह है कि भूख से परेशान होकर वे 28 मार्च को हजारों की संख्या में घर जाने के लिए आनन्द बिहार में इक्ट्ठे हो गये।
इसी तरह 14 अप्रैल को मुम्बई के रेलवे स्टेशनों पर भीड़ देखी गई, इसके अलावा गुजरात में भी कई बार मजदूरों और पुलिस में झड़प हो चुकी है। भूखे-प्यासे सैकड़ों मजदूर घर जाते हुए अपनी जान गंवा चुके हैं। कोयंबटूर में मजदूरों ने सरकार को धमकी दी है कि अगर तीन मई तक उनके घर पहुंचाने की व्यवस्था नहीं की गई तो वह पैदल ही 2000 कि.मी. दूर अपने घर के लिए निकल पड़ेंगे। यह वही मजदूर हैं जिनके परिवार के सदस्य गांव में खेती करते हैं तो वह उनके खाद, बीज का पैसा शहर से भेजा करते थे। आज उन्हीं किसानों की उपजाई हुई फसल पर सरकार अपनी छाती चौड़ी कर रही है, लेकिन उन्हीं के बच्चे शहरों में भूख से तड़प रहे हैं।
29 अप्रैल को केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने घोषणा की है कि दबाव झेल रहे क्षेत्रों के लिए सरकार पैकेज लाएगी तो इन मजदूरों के लिए पैकेज क्यों नहीं लाया जा रहा है? विदेशी कम्पनियों के संगठनों ने वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से मांग की है कि ई-वाणिज्य कम्पनियों पर लगने वाला दो फीसदी कर को नौ माह की लिए टाल दिया जाए। 50 बड़े उद्योगपतियों का 68 हजार करोड़ रू. से अधिक का कर्ज माफ कर दिया लेकिन इन मजदूरों के लिए सरकार ने कोई रियायत नहीं दी है, जबकि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रघुराम राजन का कहना है कि 65 हजार करोड़ इन मजदूरों को देने से संकट का हल किया जा सकता था। राशन कार्ड पर बंटने वाला एक किलो दाल घोषणा के एक माह बाद भी लोगों तक नहीं पहुंच पाया है।
करोना में मजदूर वर्ग पर हमला
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मालिकों से अपील की है कि कामगारों को काम से नहीं निकाला जाये और उनको वेतन भी दिया जाए। भारत के प्रधानमंत्री की इस अपील के बाद खुद ही केन्द्रीय सरकारी कर्मचारियां को डेढ़ साल का महंगाई भत्ता रोकने की घोषणा कर दी, जिसका अनुसरण और राज्य भी कर रहे हैं। इसी में दो कदम और आगे बढ़ते हुए स्पाइस जेट ने कहा है कि अप्रैल माह में 92 प्रतिशत कर्मचारियों को आंशिक वेतन ही दिया जायेगा। इसी से दो कदम और आगे जाते हुए औद्योगिक क्षेत्र ने घोषणा कर दी है कि वह इस हालत में नहीं है कि अप्रैल और मई महीने का सैलरी दे सकें। छोटे उद्योग तो इनसे भी आगे हैं, काफी छोटे उद्योग मालिक ने मार्च में कमाया हुआ पैसा भी मजदूरों को नहीं दिया है, यानी जो जितना ही दबा है उसको उतना ही कष्ट झेलना पड़ रहा है। भारत के प्रधानमंत्री की अपील मजदूरों के लिए झुनझूना भी साबित नहीं हो रही है।
कोरोना संकट के बहाने पूंजीवाद-साम्राज्यवाद अपनी नाकामियों को छिपाने में कामयाब हो रहा है। कोरोना से पहले ही पूरी दुनिया में बेरोजगारी दर बढ़ रही थी, यहां तक कि भारत में बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच चुकी थी। भारत में मोदी सरकार भी अपनी नाकामियों को छुपाते हुए पूंजीवादी-साम्राज्यवादी, संघवाद के एजेंडे को कोरोना महामारी के नाम पर लागू कर रही है।
नई शिक्षा नीति को लागू करते हुए ऑन लाईन क्लास ली जा रही है लेकिन सरकारी स्कूलों में हालात यह है कि ज्यादातर कक्षाओं में 10 प्रतिशत ही विद्यार्थी होते हैं, कुछ में अधिक से अधिक 20-25 प्रतिशत ही भागीदारी हो रही है। कारखाना अधिनियम, 1948 में बदलाव करके काम के घंटे 8 की जगह 12 की जा रही है। कोरोना के बाद पूंजीवाद अपने मुनाफे को और बढ़ाने के लिए स्थायी मजदूर की जगह काम के हिसाब से घंटों और दिनों के लिए मजदूर रखे जा सकते हैं। भविष्य में फ्री लांसर मजदूरों की संख्या बढ़ सकती है। गुजरात चैंबर ऑफ कॉमर्स ने तो मांग रखा है कि यूनियनों पर एक साल तक प्रतिबंध लगा दिया जाए और लॉक डाउन का वेतन न देने का प्रस्ताव पास किया है। बहुत दिनों से कुछ संगठनों द्वारा भारत में मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार करने की बात की जा रही थी जो कि नहीं हो पा रहा था, लेकिन कोरोना महामारी के द्वारा झूठ फैलाया गया कि मुस्लिम समुदाय के लोग थूक लगाकर सब्जियो, फलों को बेच रहे हैं और कोरोना महामारी फैला रहे हैं। इस डर से मुस्लिम समुदाय के लोग हिन्दू कॉलोनियों में फल और सब्जी बेचने नहीं आ रहे हैं। सोशल साईट पर कई ऐसे विडियो देखने को मिला जहां नाम पूछ-पूछ कर मुस्लिम रेहड़ी-पटरी वालों की पिटाई की जा रही है। सब्जी और फल के दुकानों पर भगवा झंडे लगाये जा रहे हैं।
मई दिवस से सबक
भारत की ट्रेड यूनियनें भी इन मजदूरों के असंतोष को सही दिशा देने में असफल रही है और उनकी पूरी लड़ाई आर्थिक रूप में फंस कर रह गई है। मई दिवस मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने या कोई सुविधाएं बढ़ाने के लिए नहीं होती है। मई दिवस की मुख्य मांग थी- आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन, यानी गुलामी से मुक्ति।
ज्यूरिख में 1893 में होने वाली इण्टनेशनल कांग्रेस की प्रस्तावना में कहा गया कि ‘‘एक मई के दिन आठ घण्टे के कार्य दिवस के प्रदर्शन के साथ ही साथ सामाजिक परिवर्तन के जरिये वर्ग विभेदों को खत्म करने का मजदूर वर्ग की दृढ़निश्चय का प्रदर्शन होना चाहिए। इस तरह से मजदूर वर्ग का उस रास्ते पर कदम रखना चाहिए जो सभी मनुष्यों के लिए शान्ति यानी विश्व शान्ति की ओर ले जाने वाला एकमात्र रास्ता है।’’ लेनिन ने कहा था कि- ‘‘हमारा लक्ष्य सिर्फ बड़ी संख्या में मजदूरों का भाग लेना ही नहीं हैं, बल्कि पूरी तरह से संगठित होकर भाग लेना है। एक संकल्प के साथ भाग लेना है, जो एक ऐसे संघर्ष का रूप लें जिसे कुचला न जा सके, जो रूसी जनता को राजनीतिक आजादी दिला सके।’’ आज भारत का ट्रेड यूनियन संगठित-असंगठित, स्थायी-ठेकेदार, सरकारी-प्राइवेट, सेक्टर वाइज बंटे हुए हैं जिसका परिणाम है कि किसी को सही मजदूरी नही मिल रही तो किसी का डीए काट लिया जा रहा है। कभी पेंशन समाप्त कर दी जाती है तो कभी कोई अधिकार में कटौती कर दी जा रही है। ऐसी ही परिस्थितियों से निपटने के लिए मार्क्स लिखते हैं-
‘‘जब तक दास प्रथा गणराज्य के एक हिस्से पर कलंक के समान चिपकी रही, तब तक अमेरिका में कोई भी स्वतंत्र मजदूर आन्दोलन पंगु बना रहेगा। सफेद चमड़ी वाला मजदूर कभी भी स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता, जब तक काली चमड़ी वाले मजदूरों को अलग करके देखा जाएगा।’’
कोरोना महामारी जहां एक तरफ शासक वर्ग को श्रम लूटने का और मौका देगा वहीं क्रांतिकारी परिस्थिति भी तैयार करेगा। कोरोना के बाद पूरी दुनिया में बेरोजगारी और लोगों की परेशानी बढ़ेगी। लेकिन अगर हम इन परेशानियों को अमेरिका में 1884-85 में आई मन्दी से जोड़ कर देखें- जब जनता परेशान थी, बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही थी तो ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ ने इसे एक मौके के रूप में देखा। फेडरेशन को लगा कि ‘आठ घण्टे कार्य दिवस’ की मांग ऐसी मांग होगी जो सभी मजदूरों को एक साथ ला सकता है। जो मजदूर फेडरेशन में या ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ (मजदूरों का पुराना संगठन था) के साथ नहीं जुड़े हैं वह भी इस मांग पर एक साथ आ सकते हैं। फेडरेशन यह भी जानता था कि यह लड़ाई अकेले नहीं जीती जा सकती है इसके लिए व्यापक मोर्चे की आवश्यकता है। फेडरेशन ने ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ से भी आन्दोलन में सहयोग करने को कहा। आज कोरोना महामारी के बाद जो दुनिया बदलने वाली है और जिस तरह से मजदूर, किसान, छात्र, नौजवान बेरोजगारी से परेशान होंगे उसके लिए भारत में भी एक नारा ढूंढना होगा। इसमें यूनियनों की आपसी कड़वाहट, छोटे-बड़ा यूनियन यह सब भूल कर एक मंच पर एक नारे के साथ आगे आना होगा, तभी आने वाले समय में हम एकताबद्ध होकर लड़ पायेंगे। नहीं तो महामारी के बाद पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का चेहरा और क्रूर रूप में आगे आयेगा जिसमें कोई भी छोटा-बड़ा, नवजनवादी या समाजवादी नहीं बचेगा।
सुनील कुमार