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भाजपा को पसमांदा मुसलमानों की याद क्यों आई?

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अगला “महाराष्ट्र” कौन सा राज्य बनेगा या मोदी की भाजपा खुद ही महाराष्ट्र बन जाएगी?

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भाजपा को पसमांदा मुसलमानों की याद आने का मतलब

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भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की हाल की बैठक में खासतौर पर सत्ताधारी पार्टी तथा मोदी सरकार में नंबर दो माने जाने वाले, अमित शाह (Amit Shah, considered number two in Modi government)की देश की राजनीति में कम से कम तीस-चालीस साल लंबा ''भाजपा युग'' शुरू होने की शेखी की स्वाभाविक रूप से काफी चर्चा हुई है। इसी दावे के विस्तार के रूप में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के कुटुंबवादी पार्टियों को हराकर तेलंगाना तथा पं. बंगाल में सत्ता में आने का ही दावा नहीं किया गया है, इसके साथ ही आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल तथा ओडिशा जैसे, बचे हुए राज्यों में भी सत्ता पर काबिज हो जाने के दावों ने भी लोगों का ध्यान खींचा है।

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मुद्दा अमित शाह की शेखी या मुंगेरीलाल के हसीन सपने नहीं है

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मुद्दा यह नहीं है कि भाजपा के सत्ता विस्तार अभियान के ''चाणक्य'' के रूप में प्रचारित किए जाते रहे, अमित शाह के इन दावों के सच होने के वाकई कोई आसार हैं या ये मुंगेरीलाल के हसीन सपने ही हैं।

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मोदी राज में भाजपा ने छह राज्यों में सत्ता गंवाई

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इन मंसूबों के संदर्भ में कम से कम इस ठोस यथार्थ की ओर तो ध्यान खींचा ही जाना चाहिए कि मोदी के राज के रहते हुए, भाजपा ने छ: बड़े राज्यों—राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड तथा महाराष्ट्र—में सीधे सरकार गंवायी थी और तमिलनाडु में परोक्ष रूप से। और जम्मू-कश्मीर को तो उसने चुनाव तथा निर्वाचित सरकार से ही महरूम कर दिया गया। बेशक, बाद में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और अब महाराष्ट्र में भाजपा दलबदल के जरिए दोबारा सत्ता हथियाने में कामयाब हो गयी है।

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तानाशाहीपूर्ण एकछत्र राज की भाजपा की मुहिम

इसमें भी शक नहीं है कि सत्ता बल तथा धन बल समेत, जन-समर्थन से इतर अन्य बलों के सहारे उत्तर-पूर्व के सात राज्यों में से अधिकांश में सरकार तक पहुंच बनाने में कामयाब हो गयी है। फिर भी यह 'एक पार्टी, एक देश' के मोदी-शाह जोड़ी की भाजपा के सपने के आस-पास भी पहुंचने के संकेत नहीं देता है।

हां! यह इसका संकेत जरूर करता है कि वर्तमान सत्ताधारी पार्टी, पूरे देश पर अपना एकछत्र राज देखना चाहती है, उसके लिए ही काम कर रही है। और यह इसका भी संकेत करता है कि यह सिर्फ एक दलीय शासन की मुहिम नहीं है, जिससे सत्ताधारी पार्टी की सहयोगी पार्टियों समेत सभी 'अन्य' राजनीतिक पार्टियों को चिंतित होना चाहिए बल्कि यह एक तानाशाहीपूर्ण एकछत्र राज की मुहिम है और वह भी कई दशक लंबे तनाशाहीपूर्ण एकछत्र राज की। खैर!

एकछत्र राज भले ही उनका दूर का सपना हो, पर तानाशाही का और वह भी सांप्रदायिक तानाशाही का राज तो हमारे सामने ही है।

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का फोकस तेलंगाना चुनाव था

फिर भी, एकछत्र राज के अमित शाह के बड़े बोल अपनी जगह, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की इस बैठक का खास फोकस, तेलंगाना पर था।

वास्तव में इस बैठक के लिए तेलंगाना का चुनाव भी, इसी फोकस का हिस्सा था।

भाजपा को दक्षिण भारत में कर्नाटक के बाद, अब तेलंगाना में ही इसकी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं कि वह तेजी से आगे बढ़ सकती है और सत्ता तक पहुंच सकती है।

पहले हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में अपनी ताकत में नाटकीय बढ़ोतरी और उसके बाद हुए एक से ज्यादा उपचुनावों में अपनी कामयाबी से, भाजपा को यकीन हो गया है कि उसने न सिर्फ कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी पार्टियों को पीछे छोड़कर, राज्य में सत्ता में बैठी, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के लिए मुख्य चुनौती के रूप में खुद को स्थापित कर लिया है, बल्कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वह टीआरएस को अगले एक साल के अंदर-अंदर होने वाले चुनावों में मात देकर, राज्य में सरकार भी बना सकती है।

तेलंगाना में मुकाबला क्या अब टीआरएस और भाजपा के बीच ही है?

भाजपा की इस धारणा के पीछे क्या, कितना वस्तुगत आधार है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। लेकिन, इतना तय है कि धन्ना सेठों के मीडिया समेत विभिन्न उपायों से यह धारणा बनाने की कोशिश की जा रही है कि तेलंगाना में अब मुकाबला टीआरएस और भाजपा के बीच ही है।

अचरज नहीं कि टीआरएस और भाजपा भी, अपने-अपने कारणों से इस धारणा को बल देने में ही लगी हुई हैं। यह दूसरी बात है कि बंगाल के पिछले चुनाव का उदाहरण इसका गवाह है कि ऐन मुमकिन है कि इस तरह का ध्रुवीकरण, भाजपा के मुकाबले में क्षेत्रीय सत्ताधारी पार्टी के ही ज्यादा काम और अपनी सारी ताकत झोंकने तथा जमकर माहौल बनाने के बावजूद, केंद्र की सत्ताधारी पार्टी तेलंगाना की सत्ता पर काबिज होने से चूक जाए।

तेलंगाना जीतने की भाजपा की इस मुहिम की बंगाल के साथ एक और समानता भी गौरतलब है।

वैसे तो भाजपा की हरेक चुनावी मुहिम में ही, बहुसंख्यकवाद को मुख्य आधार बनाया जाता है और अपने विरोधियों को हिंदूविरोधी और वास्तव में मुस्लिम परस्त दिखाकर, हिंदुओं को अपने पाले में इकट्ठा करने की कोशिश की जाती है। लेकिन, बंगाल तथा तेलंगाना जैसे राज्यों में, जहां क्षेत्रीय सत्ताधारी पार्टियां खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों को लेकर मुखर रही हैं, यह खेल और भी उग्रता से खेला जाता है।

तेलंगाना में हालांकि बंगाल के विपरीत, मुस्लिम आबादी का अनुपात राज्य के स्तर पर बहुत ज्यादा नहीं है, फिर भी राजधानी हैदराबाद समेत राज्य के कुछ हिस्सों में मुसलमानों की उल्लेखनीय मौजूदगी और खासतौर पर हैदराबाद पर आधारित ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम की उपस्थिति, इस खेल को आसान बना देती है।

जैसा कि हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में देखने को मिला था, हालांकि इस चुनाव में टीआरएस का एमआइएएम से घोषित-अघोषित कोई गठबंधन नहीं था और पुराने शहर में अपने मजबूत आधार के बावजूद, महानगर क्षेत्र में एमआइएम की ताकत, टीआरएस के मुकाबले साफ तौर पर कम ही थी, फिर भी भाजपा टीआरएस पर यही कहकर हमला कर कर रही थी कि वह तो नगर निगम में एमआइएम का राज कराने जा रही है।

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के मौके पर दिए गए बयानों, आम सभा के भाषणों और इस बैठक से पहले मोदी सरकार के अनेक मंत्रियों तथा भाजपा सांसदों को झोंककर राज्य के विभिन्न हिस्सों में किए गए प्रचार के स्वर से इसके स्पष्ट संकेत मिल गए हैं कि यह तथाकथित 'तुष्टीकरण' ही, टीआरएस के खिलाफ भाजपा के हमले की मुख्य थीम होगा। इस संकेत और चमकाने के लिए, खुद प्रधानमंत्री मोदी ने दो-दो बार, हैदराबाद के लिए संघ परिवार द्वारा प्रस्तावित 'गैर-मुस्लिम' नाम बोलकर, इस खेल के लिए अपनी ओर के खिलाड़ियों की पीठ थपथपा दी।

इस सब की पृष्ठभूमि में यह विरोधी दिशा में एक संकेत लग सकता है कि भाजपा कार्यकारिणी की इसी बैठक में प्रधानमंत्री द्वारा आम तौर पर अल्पसंख्यकों तथा खासतौर पर मुसलमानों की ओर हाथ बढ़ाए जाने का आग्रह किए जाने का काफी प्रचार किया जा रहा है।

खबरों के अनुसार, हाल में उत्तर प्रदेश में उल्लेखनीय रूप से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले रामपुर तथा आजमगढ़ संसदीय उपचुनाव में भाजपा को मिली कामयाबी पर खुशी जताने से आगे बढ़कर प्रधानमंत्री, मुसलमानों के समर्थ तबके विपरीत, पसमांदा या वंचित तबके पर ध्यान केंद्रित करने का विशेष रूप से आग्रह किया।

संभवत: इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए मोदी ने ''स्नेह यात्रा'' निकालने का विचार भी प्रस्तुत किया, हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह यात्रा किस तक अल्पसंख्यकों के प्रति भाजपा के ''स्नेह'' के प्रदर्शन पर केंद्रित होगी।

बेशक, इस संदर्भ में यह सवाल पूछा जाना भी अप्रासांगिक नहीं है कि देश में जिस तरह के विषाक्त सांप्रदायिक वातावरण में भाजपा की कार्यकारिणी बैठक हो रही थी, उसके संबंध में प्रधानमंत्री की चीखती हुई चुप्पी और अमित शाह के निर्देशन में आंतरिक सुरक्षा तंत्र की खुलेआम बहुसंख्यकवादी भूमिका को देखते हुए, इस 'स्नेह' प्रदर्शन को किस तरह देखा जाना चाहिए। फिर भी स्थान की सीमा के चलते हम यहां खुद को भाजपा को आयी पसमांदा मुसलमानों की 'याद' के अर्थ तक ही सीमित रखेंगे।

मुस्लिम विरोध और पसमांदा मुसलमानों की याद एक दूसरे के पूरक हैं

बहुत संक्षेप में कहें तो भाजपा तथा उसके मोदी राज के ज्यादा से ज्यादा खुलकर बहुसंख्यकवादी होते जाने और उन्हें पसमांदा मुसलमानों की याद आने में कोई विरोध नहीं है, बल्कि ये एक-दूसरे के ही पूरक हैं। खुल्लमखुल्ला मुस्लिम विरोधी मंच के आधार पर हिंदुओं के ध्रुवीकरण का छोर आता देखकर, भाजपा इस ध्रुवीकरण को पुख्ता करते हुए भी, मुसलमानों के एक हिस्से को भी अपने पाले में खींचने की कोशिश करना चाहती है। और उत्तर प्रदेश में दलितों तथा पिछड़ों के बीच अपेक्षाकृत ताकतवर, जाटव तथा यादव समुदायों के खिलाफ अन्य दलितों व पिछड़ों को गोलबंद करने के अपने कारगर फार्मूले से संघ-भाजपा को लगता है कि यही दांव, समर्थ और पसमांदा मुसलमानों के बीच की खाई को हथियार बनाकर भी चला जा सकता है।

बेशक, पसमांदा और समर्थ मुसलमानों के बीच अंतर है, काफी अंतर है। लेकिन, इस खाई को हथियार में तब्दील करने का मकसद, इस खाई को पाटना नहीं है बल्कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की आवाज को, उनकी अपने हितों की रक्षा की ताकत को, जो पहले से ही काफी कमजोर है और भी तोड़ना है। और यह किया जाना है, समुदाय के उस समर्थ तबके को कमजोर करने के जरिए, जो समुदाय की ओर से बोल सकता है।

यह भाजपा के दावे के विपरीत किसी 'तुष्टीकरण से समर्थवान बनाने' की ओर बढ़ने का नहीं बल्कि यह तो सीधे-सीधे फूट डालो और राज करो का मामला है।

अचरज नहीं कि जो भाजपा और संघ परिवार, हिंदुओं को ज्यादा से ज्यादा एकजुट करना चाहते हैं, मुसलमानों को न सिर्फ ज्यादा से ज्यादा बांटना चाहते हैं बल्कि उनकी आवाज ही छीन लेना चाहते हैं।

इसका इससे जीता-जागता सबूत क्या होगा कि भाजपा की उक्त कार्यकारिणी बैठक के फौरन बाद, संसद के दोनों सदनों में सत्ताधारी पार्टी में और इसलिए मोदी मंत्रिमंडल में भी, भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की नाममात्र की मौजूदगी भी खत्म हो गयी। पसमांदा मुसलमानों के लिए मंच पर 'स्नेह' प्रदर्शन किया जाएगा और पीछे से मुसलमानों का प्रतिनिधि गायब कर दिया जाएगा, यही संघ-भाजपा के पसमांदा प्रेम की असलियत।

मुख्तार अब्बास नकवी को अगर उपराष्ट्रपति बनवा भी दिया जाता है, उसके टोकनिज्म से यह सचाई बदलने वाली नहीं है।

राजेंद्र शर्मा

Meaning of BJP remembering Pasmanda Muslims

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