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पैबंद की हँसी
इन दिनों जाने कौन से सफ़र पर हूँ ,
जहाँ के रास्तों के दोनों ओर
लपट उठ रही हैं ।
चटखती लकड़ियों की आवाज़ें ,
जिस्म उतार उतार कर फेंकती
धुआँ धुआँ रूहें .....!!!
तमाम मंज़रों के मुँह पर
राख पुती है ।
हर तरफ़ आँखों में अश्क़ भरे ,
लरजती आवाज़ें ।
गिड़गिड़ा कर माँगती हैं ,
बस .....
थोड़ी सी .....,
ऑक्सीजन ........!!!
Dr kavita
1/मिट्टी के दिये
बड़ी हसरत से तकते हैं
शक्लों को
मिट्टी के दिये…
बाज़ार के कोनों से…
और फिर
उदासी ओढ़ कर
सोचते हैं
अक्सर…
क्या उस नदी ने
झूठ बोला था…
इक उम्र तलक
सरयू ने बांची..
कथा राम की…
बनबास राम का…
और
राम का लौटना…
उसने रोज़ कहा…
किस तरह वो
जगमगाहटों का
आधार बने थे ..
इक सीता की
पालकी के
कहार बने थे… .
सुन सुन कर
सौ बार
जुगनुओं सी
चमकी थी आँखें… .
फिर चाक पर
चढ़ने के
दिवा स्वप्न भी
जागे…
सौ मन्नतों के
असर से
इक चाक ने चूमा ..
उँगलियों की
थिरकनों में
बदन
ख़ुशी-खुशी झूमा… .
जगने लगे
फिर बातियों से
मिलने के ख़्वाब…
संग याद आये
हवाओं के
वो सच्चे झूठे
रूआब ..
कच्ची पक्की मिट्टी के
रंगों को लपेटे
टोकरी में
इक बुढ़िया के
ख़्वाबों को समेटे…
बाज़ार तक आये
तो नज़र
डरी-डरी है…
रौशनी की
चकाचौंध
भीड़ पर
भीड़ चढ़ी है…
ऐसे में कौन
टिमटिमाहटों के
भाव को पूछे…
शगुनों वाले दियों के
चाव को पूछे…
आस्था राम की
बुझ गयी क्या ?
लिये प्रश्न पड़े हैं…
मिट्टी के भाव
बिकने को भी
तैयार खड़े हैं…
मगर इस सादगी
का अब कोई
ख़रीददार नहीं है…
इन दियों से…
दो रोटियों की
जुगाड़ नहीं है…
इन्हें मुँडेर पर
सजा लें
वो गाँव नहीं बचे…
गाँव में भी
अब राम के
चाव नहीं बचे ..
तो बाज़ार में
पसरा…
ये जश्न..
किसका जश्न है…?
मामूली बात नहीं…
यह राम की
घर वापसी का
प्रश्न है…
डॉ. कविता अरोरा
(डॉ. कविता अरोरा के काव्य संग्रह “पैबंद की हँसी” से)