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किसानों के संघर्ष के आगे झुक गई मोदी सरकार
Modi government bowed before the farmers' struggle
आखिरकार, किसानों के संघर्ष ने मोदी सरकार को झुकने को मजबूर कर दिया है। गुरु पर्व के मौके पर, राष्ट्र के नाम एक विशेष संबोधन के जरिए, प्रधानमंत्री मोदी ने न सिर्फ तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले का ऐलान किया है।
बेशक, प्रधानमंत्री की इस घोषणा का स्वागत करते हुए तथा इसे अपनी जीत बताते हुए भी, आंदोलनकारी किसान संगठनों तथा किसानों के संघर्ष के मौजूदा चक्र का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधियों ने उचित ही, इस घोषणा भर पर आंदोलन खत्म कर घर लौट जाने का निर्णय नहीं कर लेने की सावधानी ही बरती है। उन्होंने खासतौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी का मुद्दा (Issue of legal guarantee of minimum support price) तथा बिजली संशोधन विधेयक के वापस लिए जाने तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र पर्यावरण प्रदूषण कानून के किसानों को दंडित करने वाले प्रावधानों के हटाए जाने के मुद्दे, अभी भी हल नहीं होने की भी याद दिलाई है।
इस सबके अलावा किसान आंदोलन के सिलसिले में किसान नेताओं, कार्यकर्ताओं तथा आम किसानों पर लादे गए तरह-तरह के मुकद्दमों की वापसी का भी सवाल है।
इससे साफ है कि इस घोषणा के साथ तो, मोदी सरकार के कृषि से जुड़े कदमों को वापस लेने की शुरूआत हुई है, कदमों की वापसी का यह सिलसिला आगे तक जाएगा।
वास्तव में मजदूरविरोधी श्रम कानूनों, रक्षा उद्योग के कार्पोरेटीकरण समेत निजीकरण की मुहिम, कर्मचारी पेंशन व्यवस्था आदि से लेकर, सीएए तक, विभिन्न विवादित तथा उल्लेखनीय आंदोलनों का निशाना बने निर्णयों को वापस लिए जाने का दबाव भी बढ़ेगा और इतने प्रत्यक्ष रूप में चाहे न भी हो, घुमा-फिराकर ही सही, मोदी सरकार को इन मुद्दों पर भी कुछ न कुछ झुकना भी पड़ सकता है।
आखिर, इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन की इस अभूतपूर्व जीत (This unprecedented victory of the historic peasant movement) का, जो एक साल से ज्यादा से जारी अनवरत, शांतिपूर्ण, संगठित संघर्ष और 700 से ज्यादा कुर्बानियों के बाद हासिल हुई है, एक ही सबक है।
दुष्यंत कुमार की कविता की पंक्तियों का सहारा लें तो, 'कौन कहता है कि आसमां सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो!'
जनता अगर ठान ले और धीरज से तथा कुर्बानियां देकर भी लड़ने के लिए उसे गोलबंद किया जाए, तो अंहकारी से अहंकारी और जनविरोधी से जनविरोधी शासन को भी, झुकने के लिए मजबूर किया जा सकता है।
किसान आंदोलन की यह शानदार जीत, हमें एक बार फिर इसकी याद दिलाती है कि जनतांत्रिक व्यवस्था और उसके पीछे स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की आधारभूमि, मेहनत की रोटी खाने वाली आम जनता के हितों की रक्षा करने के लिए कितनी जरूरी है। इतना ही नहीं यह जीत हमें इसकी भी पहचान कराती है कि 'एक देश, एक चुनाव' की मोदी राज की प्रिय योजना, जो मध्यवर्ग के एक हिस्से तथा सत्ताधारी वर्ग को बहुत आकर्षक लगती है, वास्तव में जनतंत्र के ज्यादा से ज्यादा सिकोड़े जाने और जनता के बरखिलाफ, शासन को ज्यादा से ज्यादा ताकतवर और निरंकुश बनाए जाने का ही साधन है। यह तो स्वत: स्पष्ट
ही है कि नरेंद्र मोदी को इसका अहसास दिलाने में कि चूंकि खुद उनके अपने बयान के अनुसार, वह किसानों के एक हिस्से को यह समझाने में कामयाब नहीं हुए हैं कि वह किसानों के हितों के लिए जो कदम उठा रहे हैं, उनमें वाकई किसानों का हित है, इसलिए उनकी सरकार को संबंधित कृषि कानूनों को वापस ही ले लेना चाहिए, विधानसभाई चुनावों के करीब चार महीने में ही आने जा रहे चक्र की चिंता ही निर्णायक साबित हुई है।
इन कानूनों को थोपने के लिए अपनी सारी प्रशासनिक ताकत और राजनीतिक साख लगाने के बाद भी, अगर मोदी के संघ-भाजपा राज को करीब-करीब साफ शब्दों में अपनी हार माननी पड़ी है, तो इसीलिए कि किसान आंदोलन की अडिग और वास्तव में लगातार बढ़ती ताकत ने उसे इसका एहसास करा दिया था कि इन कानूनों को थोपने का उसका हठ, चुनावी-राजनीतिक रूप से उसके लिए बहुत महंगा पड़ सकता है।
सहज ही इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि 'एक देश, एक चुनाव' की परियोजना अगर चालू हो गई होती, तो इसका क्या अर्थ होता?
बाकी सब अगर जस का तस रहता, तब भी किसानों के इस अभूतपूर्व संघर्ष को भी, इस हठी कार्पोरेटपरस्त सरकार को यह समझाने के लिए भी कि उसे इसकी भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है, अगले आम चुनाव तक तो इंतजार करना ही पड़ता!
वास्तव में, बार-बार होने वाले चुनावों पर भारी खर्चे से लेकर, चुनाव की वजह से कथित 'विकास कार्यों' में बार-बार बाधा पड़ने तक की, 'एक चुनाव' और जाहिर है कि एक साथ चुनाव के पक्ष में दी जाने वाली तमाम झूठी दलीलों के पीछे एक ही पुकार है—शासकों को बार-बार जनता के सामने अपने कदमों के लिए जवाबदेही की मजबूरी से बरी किया जाए।
रही बात, एक साथ देश भर में 'एक चुनाव' तो उसे तो कार्पोरेटों की तिजारियों से लेकर उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया तक के लगभग मुकम्मल आशीर्वाद के सहारे, संघ-भाजपा जोड़ी जैसी ताकत किसी न किसी बड़े तमाशे के सहारे, साध ही सकती है।
अलग-अलग समय पर होते चुनाव, एक चुनाव मैनेज करने के बाद मनमानी की पांच साल की एकमुश्त छुट्टी में बाधक हैं और इसीलिए, मोदी को 'एक चुनाव' से इतना प्यार है! इसके ठीक विपरीत, आम जनता का हित तो इसी में है कि शासकों की मनमानी की यह छुट्टी छोटी से छोटी हो और उन्हें जल्दी से जल्दी जनता के सामने जवाब देने के लिए उपस्थित होना पड़े।
बेशक, रोज-रोज चुनाव होना व्यावहारिक नहीं है लेकिन, इसीलिए तो निश्चित अधिकतम अवधि के लिए चुने जाने वाले विधायी निकायों के माध्यम से, जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही को जनतांत्रिक-संसदीय व्यवस्था का प्राण माना जाता है।
मोदी सरकार ने संसद के प्रति शासन की जवाबदेही की खुलेआम हत्या की
दुर्भाग्य से विवादित कृषि कानूनों का प्रसंग इसका भी उदाहरण है कि किस तरह मोदी निजाम ने, लोकसभा में अपने बहुमत की तानाशाही से लेकर, राज्यसभा में हर तरह की जोड़-गांठ तथा चोरी-झपटमारी तक के जरिए जुगाड़े गए प्रभावी बहुमत के सहारे, संसद के प्रति शासन की जवाबदेही की खुलेआम हत्या की है। तभी तो दसियों करोड़ किसानों की जिंदगियों से सीधे जुड़े कृषि कानूनों को किसानों के प्रतिनिधियों की तो छोड़िए, खुद मंत्रिमंडल तथा सत्ताधारी गठजोड़ में चर्चा के बिना संसद में ले आया गया और संसद में किसी वास्तविक चर्चा के बिना और यहां तक कि राज्यसभा में तो विपक्षी आवाजों को जबर्दस्ती दबाते हुए और संसदीय प्रक्रियाओं को धता बताते हुए, देश पर थोप दिया गया।
तभी तो, मरता क्या न करता के आखिरी उपाय के तौर पर, किसानों को खुद ही और जाहिर है कि वामपंथ समेत कई विपक्षी ताकतों के समर्थन तथा मजदूरों व अन्य जनतांत्रिक तबकों के सहयोग से, इन कानूनों को वापस कराने के लिए मैदान में उतरना पड़ा। लेकिन, अगर ये चुनाव सिर पर नहीं होते तो क्या मोदी सरकार एक साल बाद भी आंदोलनकारी किसानों की सुनती?
कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी राज को किसानों की आवाज अब भी सिर्फ इसलिए सुनाई दी है कि विधानसभाई चुनाव के इस चक्र में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब जैसे राज्य शामिल हैं, जो सीधे और उल्लेखनीय तरीके से इस किसान आंदोलन में जुड़े रहे हैं। उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड के लिए तो संयुक्त किसान मोर्चा पहले ही भाजपा को हराने के मिशन का ऐलान भी कर चुका है और इस मिशन के अंतर्गत उत्तर प्रदेश की अति-महत्वपूर्ण किसान महापंचायत, 22 नवंबर को ही होने जा रही है। विधानसभाई चुनावों के इसी साल पूर्वार्द्ध में संपन्न चक्र में और उसके बाद, पिछले ही महीने संपन्न हुए तीन लोकसभाई तथा 20 विधानसभाई चुनावों के उपचुनाव में, उत्तरोत्तर बढ़ते पैमाने पर जिस तरह किसान आंदोलन की धमक सुनाई दी है, उसे देखते हुए विधानसभाई चुनाव के इस चक्र में किसान आंदोलन के राजनीतिक नुकसान को लेकर मोदी का हिला हुआ होना स्वाभाविक था।
इसमें भी अतिरिक्त रूप से महत्वपूर्ण यह कि इस चक्र में उत्तर प्रदेश का चुनाव भी हो रहा है, जिसके संबंध में मोदी राज में बाकायदा नंबर दो बनाए जा चुके, अमित शाह सार्वजनिक रूप से ऐलान कर चुके हैं कि, 22 के आरंभ में विधानसभाई चुनाव में भाजपा जीतेगी, तभी 2024 के चुनाव में मोदी की केंद्र में सत्ता में वापसी हो सकेगी। यह सिर्फ उत्तर प्रदेश के चुनाव में लिए संघ-भाजपा की कतारों में जोश भरने के लिए और योगी के राज से असंतुष्टों को मोदी राज के नारे से बहलाने के लिए, प्रचार वाग्जाल रचने का ही मामला नहीं था। हमेशा चुनाव के मोड में रहने वाली मोदी-शाह जोड़ी ने, आम तौर पर विधानसभाई चुनावों के इस चक्र को और खासतौर पर उत्तर प्रदेश के चुनाव को, सीधे मोदी के तीसरे कार्यकाल के लिए प्रचार की सीढ़ी बना दिया है। किसान आंदोलन के सामने मोदी राज के झुकने को, इसी संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए।
इस तरह, मोदी सरकार ने चुनाव की मजबूरी में ही कृषि कानूनों पर पांव पीछे खींचे हैं। इन कानूनों को वापस लेने का ऐलान करते हुए भी, नरेंद्र मोदी ने सिर्फ इसका ही बखान नहीं किया कि कैसे उन्होंने किसानों के तथा खासतौर पर छोटे के किसानों के हित की सोचकर ये कदम उठाए थे, इस मौके पर वह यह दावा करने से भी नहीं चूके कि किसानों के 'एक छोटे से हिस्से' को इन कानूनों के लाभ समझा पाने में विफल रहने की वजह से ही,उन्हें ये कानून वापस लेने पड़ रहे हैं। वास्तव में मोदी ने जो बहुप्रचारित ''माफी'' मांगी है, वह भी कोई मनमाने तरीके से इन किसानविरोधी कानूनों को थोपने के लिए मांगी है बल्कि अपने कदमों के लाभ समझाने की अपनी ''तपस्या में कोई कमी'' रह जाने के लिए ही मांगी है!
मोदी सरकार की आम तौर पर कार्पोरेटों की सेवा में ही नहीं, कृषि क्षेत्र में कार्पोरेटों के नियंत्रण को आगे बढ़ाने की कोशिशों में भी, इन कानूनों की वापसी से भी कोई कमी नहीं आने जा रही है। इस मामले में मोदी सरकार का पांव पीछे खींचना सिर्फ एक राजनीतिक पैंतरा है। किसानों और अन्य मेहनतकशों को, निरंतर सतर्क और सन्नद्ध रहना होगा और उन्हें भी अभी से अगले आम चुनाव में मोदी राज की वापसी नहीं होने देने में जुटना होगा।
राजेंद्र शर्मा