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मोदी ने बहुजनों को गुलामों की स्थिति में डाल दिया है

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hastakshep
31 Jul 2020
भारत-चीन सीमा क्षेत्रों की स्थिति पर प्रधानमंत्री का वक्तव्य

Modi has put Bahujans in the status of slaves.

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मोदी ने बहुजनों के समक्ष नहीं छोड़ा है कोई विकल्प! |  मुक्ति की लड़ाई में उतरने से भिन्न                                

2014 में बेरोजगारों को हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ देने तथा प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 100 दिन के अंदर 15 लाख जमा कराने के वादे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार ने जिस तरह आरक्षण के खात्मे के लिए अंधाधुंध लाभजनक सरकारी कंपनियों के साथ रेलवे, हास्पिटलों, हवाई अड्डों इत्यादि को निजी हाथों में देने का सिलसिला शुरू किया, उससे बड़े पैमाने पर जागरूक बहुजनों का मोहभंग हुआ। रही सही कसर मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल की समाप्ति के प्रायः 5 माह पूर्व गरीब सवर्णों को आरक्षण देकर पूरा कर दिया। किन्तु जिस तरह उन्होंने कोरोना काल में अचानक लॉकडाउन कर लाखों करोड़ों लोगों को पैदल ही लॉन्ग मार्च के लिए विवश करने के साथ इस आपदा काल को अवसरों में बदलते हुये सरकारी संपत्तियों और कंपनियों को निजी हाथों में देने में अतिरिक्त तत्परता दिखलाया, उससे उनसे बहुजनों की उम्मीदें हमेशा के लिए खत्म हो गयी हैं। किन्तु वंचित बहुजन हमेशा के लिए उनसे नाउम्मीद जरूर हुये हैं, पर, किसी कोने से यह शोर नहीं सुनाई पड़ रहा है कि मोदी ने बहुजनों को गुलामों की स्थिति में डाल दिया है।

किन्तु अप्रिय सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सवर्णपरस्त नीतियों से बहुजनों के समक्ष जो हालात पैदा कर दिये हैं, उसमें उन्हें अपनी आज़ादी की लड़ाई में उतरने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा है। पर, अगर ऐसी आवाजें अगर चारों ओर से नहीं गूंज रही हैं तो उसका खास कारण है कि ब्राह्मणवाद के ध्वंस तथा लोगों को ईश्वर - विश्वास से मुक्त करने में निमग्न बहुजन बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों को शासक और गुलाम में फर्क का इल्म ही नहीं है: दुनिया में स्वाधीनता संग्राम क्यों संगठित होते रहे हैं, इसका सबब जानने का इनके द्वारा प्रयास ही नहीं हुआ।

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गुलाम कौन हैं | Who are the slaves,

बहरहाल यदि इस विषय में वे अपना मस्तिष्क सक्रिय करें तो पता चलेगा कि शासक और गुलाम के बीच मूल पार्थक्य शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक) पर कब्जे में निहित रहता है. गुलाम वे हैं जो शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत रहते हैं, जबकि शासक वे होते हैं, जिनका शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार रहता है।

यदि विश्व इतिहास में पराधीन बनाने गए तमाम देशों के गुलामों की दुर्दशा पर नज़र दौड़ाई जाय तो साफ नजर आएगा कि सारी दुनिया में ही पराधीन बनाए गए मूलनिवासियों की दुर्दशा के मूल में शक्ति के स्रोतों पर शासकों का एकाधिकार (Monopoly of rulers over sources of power) ही प्रधान कारण रहा।

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अगर शासकों ने पराधीन बनाये गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी दिया होता, दुनिया में कहीं भी स्वाधीनता संग्राम संगठित नहीं होता।

शक्ति के समस्त स्रोतों पर अंग्रेजों के एकाधिकार रहने के कारण ही पूरी दुनिया मे ब्रितानी उपनिवेशन के खिलाफ मुक्ति संग्राम संगठित हुये। इस कारण ही अंग्रेजों के खिलाफ भारतवासियों को स्वाधीनता संग्राम का आन्दोलन संगठित करना पड़ा; ऐसे ही हालातों में दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी कालों को शक्ति के स्रोतों पर 80-90% कब्ज़ा जमाये अल्पजन गोरों के खिलाफ कठोर संग्राम चलाना पड़ा।

The real difference between slaves and rulers
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अमेरिका का जो स्वाधीनता संग्राम सारी दुनिया के लिए स्वाधीनता संग्रामियों के लिए एक मॉडल बना, उसके भी पीछे लगभग वही हालात रहे। गुलामों और शासकों मध्य का असल फर्क जानने के बाद आज यदि भारत पर नजर दौड़ाई जाय तो पता चलेगा कि मंडल उत्तर काल में जो स्थितियां और परिस्थितियां बन या बनाई गयी हैं, उसमें मूलनिवासी बहुजन समाज के समक्ष एक नया स्वाधीनता संग्राम संगठित करने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बंचा है। क्योंकि यहाँ शक्ति के स्रोतों पर भारत के जन्मजात शासक वर्ग का प्रायः उसी परिमाण में कब्जा हो चुका है, जिस परिमाण में उन सभी देशों में शासकों का कब्जा रहा, जहां-जहां मुक्ति आंदोलन संगठित हुये।

स्मरण रहे मण्डल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद बहुजनों को आज की दिशा में पहुंचाने तथा शक्ति के स्रोतों पर सवर्णों का एकाधिकार स्थापित करने की सबसे पहले परिकल्पना नरसिंह राव ने की। इसी मकसद से राव द्वारा 24 जुलाई, 1991 को ग्रहण किये गए नवउदारवादी अर्थनीति को उनके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह ने भी आगे बढ़ाया। पर, सबसे जोरदार तरीके से किसी ने हथियार के रूप में नवउदारवादी अर्थनीति का इस्तेमाल किया तो वह नरेंद्र मोदी ही रहे.

Modi's pro-upper caste policies
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मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों का कमाल 22 जनवरी, 2018 को प्रकाशित ऑक्सफाम की रिपोर्ट के जरिये सामने आया. उस रिपोर्ट से पता चला कि टॉप की 1% आबादी अर्थात 1 करोड़ 3o लाख लोगों की धन-दौलत पर 73 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है. इसमें मोदी सरकार के विशेष योगदान का पता इसी बात से चलता है कि सन 2000 में 1% वालों की दौलत 37 प्रतिशत थी, जो बढ़कर 2016 में 58.5 प्रतिशत तक पहुंच गयी. अर्थात 16 सालों में इनकी दौलत में 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. किन्तु, उनकी 2016 की 58.5 प्रतिशत दौलत सिर्फ एक साल के अन्तराल में 73% हो गयी अर्थात सिर्फ एक साल में 15% का इजाफा हो गया. शायद ही दुनिया में किसी परम्परागत सुविधाभोगी तबके की दौलत में एक साल में इतना इजाफा हुआ हो. किन्तु मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों से भारत में ऐसा चमत्कार हो गया.

1% टॉप वालों से आगे बढ़कर यदि टॉप की 10% आबादी की दौलत का आकलन किया जाय तो नजर आएगा कि मोदी राज में देश की टॉप 10% आबादी, जिसमें 99.9% सवर्ण होंगे, का देश की धन-दौलत पर 90% से ज्यादा कब्ज़ा हो गया, जिसे विषमता का शिखर कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी.

टॉप की 10 प्रतिशत आबादी के विपरीत नीचे की जो 60 प्रतिशत आबादी है, वह महज 4.8 प्रतिशत धन-सम्पदा पर गुजर बसर करने के लिए अभिशप्त है।

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बहरहाल जिन सवर्णों का धन- दौलत पर प्रायः 90 प्रतिशत कब्जा हो चुका है, उनका सर्विस सेक्टर पर भी जो कब्जा है उसका ठीक से जायजा लेने पर किसी का भी सर चकरा जायेगा।

केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 1 जनवरी 2016 को जारी आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार में ग्रुप ‘ए’ की कुल नौकिरयों की संख्या 84 हजार 521 है। इसमें 57 हजार 202 पर सामान्य वर्गो ( सवर्णों ) का कब्जा है। यह कुल नौकरियों का 67.66 प्रतिशत होता है। इसका अर्थ है कि 15-16 प्रतिशत सवर्णों ने करीब 68 प्रतिशत ग्रुप ए के पदों पर कब्जा कर रखा है और देश की आबादी को 85 प्रतिशत ओबीसी, दलित और आदिवासियों के हि्स्से सिर्फ 32 प्रतिशत पद हैं।

अब ग्रुप ‘बी’ के पदों को लेते हैं। इस ग्रुप में 2 लाख 90 हजार 598 पद हैं। इसमें से 1 लाख 80 हजार 130 पदों पर अनारक्षित वर्गों का कब्जा है। यह ग्रुप बी की कुल नौकरियों का 61.98 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि ग्रुप बी के पदों पर भी सर्वण जातियों का ही कब्जा है। यहां भी 85 प्रतिशत आरक्षित संवर्ग के लोगों को सिर्फ 28 प्रतिशत की ही हिस्सेदारी है।

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कुछ ज्यादा बेहतर स्थिति ग्रुप ‘सी’ में भी नहीं है। ग्रुप सी के 28 लाख 33 हजार 696 पदों में से 14 लाख 55 हजार 389 पदों पर अनारक्षित वर्गों ( अधिकांश सवर्ण )का ही कब्जा है। यानी 51.36 प्रतिशत पदों पर। आधे से अधिक है। हां, सफाई कर्मचारियों का एक ऐसा संवर्ग है, जिसमें एससी, एसटी और ओबीसी 50 प्रतिशत से अधिक है।

जहां तक उच्च शिक्षा में नौकरियों का प्रश्न है 2019 के आरटीआई के सूत्रों से पता चला कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर, एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पदों पर सवर्णों की उपस्थित क्रमशः 95.2 , 92.90 और 76.12 प्रतिशत है.

उपरोक्त आंकड़े 2016 के हैं। जबकि 13 अगस्त, 2019 को संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट पर नजर दौड़ाई जाय तो नौकरशाही के निर्णायक पदों पर सवर्णों का वर्चस्व देखकर किसी के भी होश उड़ जाएंगे। उस रिपोर्ट से पता चलता है कि मोदी सरकार के 89 सचिवों में से 1-1 एससी और एसटी के, जबकि ओबीसी का एक भी व्यक्ति नहीं है।

उन आकड़ों से केंद्र सरकार के मंत्रालयों/विभागों में तैनात कुल 93 एडिशनल सेक्रेट्री में छह एसटी, पाँच एसटी और ओबीसी से एक भी नहीं। वहीं, 275 ज्वाइंट सेक्रेट्री में 13 एससी, 9 एसटी और 19 ओबीसी से रहे : बाकी सवर्ण। डायरेक्टर पद की बात करें तो इसमें कुल 288 पदों में महज 31 एससी, 12 एसटी और 40 ओबीसी से रहे : बाकी सवर्ण। डिप्टी सेक्रेट्री के कुल 79 पदों में 7 पर एससी, तीन पर एसटी और 21 पर ओबीसी रहे : बाकी सवर्ण। सर्विस सेक्टर से बढ़कर धार्मिक सेक्टर नज़र दौड़ाई तो वहाँ भी चौकाने वाला आंकड़ा ही दिखेगा।

डॉ. आंबेडकर के अनुसार शक्ति के स्रोत (Power sources according to Dr. Ambedkar) के रूप में जो धर्म आर्थिक शक्ति के समतुल्य है, उस पर आज भी 100 प्रतिशत आरक्षण इसी वर्ग के लीडर समुदाय का है। धार्मिक आरक्षण सहित सरकारी नौकरियों के ये आंकडे चीख-चीख कह रहे हैं कि आजादी के 70 सालों बाद भी हजारों साल पूर्व की भांति सवर्ण ही इस देश के मालिक हैं।

एच.एल. दुसाध (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)   लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 89-90 प्रतिशत फ्लैट्स सवर्ण मालिकों के ही हैं। मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें इन्हीं की हैं। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाडियां इन्हीं की होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय इन्ही के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है। संसद विधान सभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है। मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं।

उपरोक्त आंकड़े साल-दो साल पहले के हैं। इन विगत वर्षों में शक्ति के स्रोतों पर सवर्णों का वर्चस्व और ज्यादा बढ़ा है। ऐसे में दावे के साथ कहा जा सकता है कि न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय विशेष का नहीं है। यहीं नहीं जिन- जिन देशों में मुक्ति आंदोलन संगठित हुये क्या उन देशों में शासक वर्गों का शक्ति के स्रोतों पर भारत के सवर्णों से बहुत ज्यादा रहा ? नहीं! आज भारत में सवर्णों का प्रत्येक क्षेत्र में जो दबदबा है, वैसे ही हालातों में सारी दुनिया में मुक्ति संग्राम संगठित हुये। ऐसे में द्विधामुक्त भाव से कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने जिस हालात में बहुजनों को पहुंचा दिया है, उसमें मुक्ति आंदोलन छेड़ने से भिन्न उनके समक्ष कोई विकल्प ही नहीं बचा है।

- एच एल दुसाध

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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