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Modiji, the farmer movement has not hijacked, rather this government has been hijacked: Vijay Shankar Singh
सरकार को उम्मीद थी कि रेलवे और अन्य सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में निरन्तर कॉरपोरेट की दखल बढ़ाते हुए और रेलवे की लोक कल्याणकारी योजनाओं (Public welfare schemes of railways) को बंद करते हुए उसे न तो रेल या सरकारी कर्मचारियों का विरोध झेलना पड़ा है और न ही रेल यात्रियों का गुस्सा ही संगठित होकर फूटा, तो वैसे ही कोरोना आपदा में कॉरपोरेट को एक अवसर (Corporate opportunity in Corona disaster) देते हुए देश के कृषि सेक्टर में, वह कुछ ऐसे कानून पास कर देगी जिससे न केवल कृषि में कॉरपोरेट का एकाधिकार स्थापित हो जाएगा, बल्कि अमेरिकन थिंकटैंक को दिया गया वादा भी पूरा हो जाएगा।
रेलवे सहित लगभग सभी लाभ कमाने वाली बड़ी-बड़ी सरकारी कम्पनियां बिकने के कगार पर आ गयीं, लोगों की नौकरियां छिन गयीं, बेरोजगारी अनियंत्रित रूप से बढ़ गयी, शिक्षा के क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट कॉलेज की फीस बेतहाशा बढ़ गयी, पर जनता, इस सब विफलताओं पर, न तो संगठित हुयी और न ही किसी ने कोई आंदोलन किया। सरकार से यह तक, किसी ने नहीं पूछा कि आखिर यह सब अचानक क्यों किया जा रहा है ? कौन सी आफत आ गयी है ?
निःसन्देह कोरोना एक आफत है। उससे आर्थिकी का नुकसान हुआ है। पर निजीकरण, सब कुछ बेच देने की नीति, अम्बानी अडानी को देश के हर आर्थिक क्षेत्र में घुसा देने का पागलपन तो कोरोना काल से पहले ही सरकार के एजेंडे में आ चुका था।
Why did demonetization happen in 2016?
2016 में नोटबंदी की ही क्यों गयी, और उसका लाभ क्या मिला, देश को यह आज तक सरकार बता नहीं पाई। देश के हाल के आर्थिक इतिहास में नोटबंदी जैसा कदम सबसे मूर्खतापूर्ण आत्मघाती कदम के रूप में दर्ज होगा।
नोटबंदी के बाद जीएसटी के मूर्खतापूर्ण क्रियान्वयन और लॉकडाउन को बेहद लापरवाही से लागू करने के कारण, कर सुधारों और लॉकडाउन के जो लाभ देश को मिलने चाहिए थे वह नहीं मिले। उल्टे हम दुनिया की दस सबसे तेजी से बढ़ती हुयी अर्थव्यवस्था के विपरीत, दस सबसे गिरती हुयी अर्थव्यवस्था में बदल गये। इसका कारण अकेला कोरोना नहीं है बल्कि इसके कारण का प्रारंभ 8 नवम्बर 2016 को रात 8 बजे की गयी एक घोषणा है जिसे तब मास्टरस्ट्रोक कहा गया था। अब उस शॉट का कोई जिक्र नहीं करता है, क्योंकि वह तो उसी समय बाउंड्री पर कैच हो गया था।
सरकार ने सोचा था कि, देश में सहनशक्ति इतनी आ गयी है कि लोग मुर्दा हो गए हैं। धर्म और जाति की अफीम चढ़ चुकी है और अब इसी बेहोशी में आर्थिक सुधार के नाम पर कॉरपोरेट या यह कहिये अडानी और अम्बानी को, देश के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधन सौंप दिए जाएं। जनता खड़ी होगी और सवाल उठाएगी तो, ऐसे आंदोलनों को विभाजनकारी बता कर हतोत्साहित करने के लिए, गोएबेलिज़्म में दीक्षित और दुष्प्रचार में कुख्यात भाजपा का आइटी सेल तो है ही। इसलिए जैसे ही किसान आंदोलन बढ़ा और वह दिल्ली तक आया वैसे ही यह कहा जाने लगा कि यह खालिस्तान समर्थित है।
खालिस्तान का इतना बड़ा आंदोलन दिल्ली तक आ भी गया और तमाम खुफिया एजेंसियों के होते हुए, सरकार को इसकी भनक तक नहीं लग सकी ? यह किसका निकम्मापन है ?
यदि इस किसान आंदोलन को, राजनीतिक रूप से हल करने की कोशिश नहीं की गयी तो यह आने वाले समय में, सरकार के समक्ष और परेशानी खड़ी कर सकता है। आंदोलन का उद्देश्य स्पष्ट है कि, तीनों कृषि कानून रद्द हों। सरकार को भले ही अपने कानूनों को लेकर कन्फ्यूजन हो तो हो, पर किसानों को कोई कन्फ्यूजन नहीं है कि यह कानून उनके और उनकी कृषि संस्कृति के लिये घातक सिद्ध होंगे। अब यह सरकार के ऊपर है कि वह कैसे इसे हल करती है। सरकार को अगर यह आभास नहीं है कि उसके फ़ैसलों और कानून की क्या संभावित प्रतिक्रिया हो सकती है तो, यह भी सरकार की अदूरदर्शिता ही कही जाएगी।
सरकार के एक मंत्री इस आंदोलन को चीन और पाकिस्तान प्रयोजित बता रहे हैं। यदि ऐसा है तो, सरकार को यह बात पहले ही दिन किसानों से कह देनी चाहिए थी, कि उनका आंदोलन किसान आंदोलन नहीं है, कुछ और है, और उनसे बात भी नहीं करनी चाहिए थी। आंदोलनकारियों से यह भी कह देना चाहिए था कि पहले वे आंदोलन की नीयत और खालिस्तान पर स्थिति स्पष्ट करें तभी बात होगी।
पर सरकार ने खालिस्तान कनेक्शन पर तो कुछ भी नहीं कहा। यह बात कुछ मीडिया चैनल और बीजेपी आईटी सेल ने उठाई। सच क्या है यह तो सरकार पता कर ही सकती है। यह आंदोलन कानून बनने के समय से ही चल रहा है। दिल्ली कूच भी पहले से ही तय था।
पर जब वाटर कैनन, सड़क खोदने, आदि उपायों के बाद भी किसान दिल्ली पहुंच गए, तब सरकार ने बातचीत का प्रस्ताव दिया। यह बातचीत अगर पहले ही शुरू हो जाती तो अब तक शायद कोई न कोई हल निकल सकता था। पर सरकार को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि यह आंदोलन इतना गम्भीर हो जायेगा।
अब सरकार और किसान दोनों ही एक ऐसे बिंदु पर आ गए हैं कि आगे क्या होता है, इस पर अभी क्या कहा जा सकता है।
सीएए आंदोलन में तो सुप्रीम कोर्ट ने मौके पर अपने वार्ताकार भी भेजे थे। उन्होंने भी आंदोलन को गलत नहीं कहा था। लोकतांत्रिक राज्य में आंदोलन तो होंगें ही, क्योंकि कोई न कोई मुद्दा तो राजनैतिक और सामाजिक जीवन में उपजता ही रहेगा। अगर कोई सरकार यह सोच ले कि, उसके शासनकाल में असंतोष नहीं उपजेगा और आंदोलन नहीं होंगे तो यह सम्भव ही नहीं है।
This farmers' movement is strong and is getting organized day by day.
किसानों का यह आंदोलन मज़बूत है और दिन पर दिन संगठित होता जा रहा है। तीनों कृषि कानून केवल और केवल पूंजीपतियों के हित में लाये गए हैं। इसे सरकार के कुछ मंत्री भी जानते हैं। पर क्या करें वे भी हस्तिनापुर से बंधे हैं।
2014 के बाद, सरकार का हर कदम, चाहे वह संचार नीति के क्षेत्र में हो, या राफेल की खरीद हो, बैंकिंग सेक्टर से जुड़ी नीतियां हों, या निजीकरण के नाम पर सब कुछ बेच दो की नीति हो, लगभग सभी पूंजीपतियों और कॉरपोरेट के हित मे डिजाइन और लागू की जाती है।
सरकार के कॉरपोरेट हित की शुरुआत ही भूमि अधिग्रहण बिल और अडानी को ऑस्ट्रेलिया में कोयले की खान के लिये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया द्वारा लोन दिलाने के कदम से हुयी है।
सरकार का कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने का इरादा पोशीदा नहीं है। वह बस समय-समय पर अफीम की डोज बढ़ा देती है और हम उसी में मुब्तिला हो जाते हैं।
यह आंदोलन न तो किसी की साज़िश है न ही किसी ने इसे हाईजैक किया है, बल्कि सच तो यह है कि सरकार खुद ही या तो गिरोहबंद पूंजीपतियों खास कर अम्बानी और अडानी की गोद में अपनी मर्जी से बैठ गयी है या वह इन पूंजीपतियों द्वारा हाईजैक कर ली गयी है। जिनके खून में व्यापार होता है वह लोककल्याणकारी राज्य का नेतृत्व कर ही नहीं सकता है।
विजय शंकर सिंह
लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।